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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मैं विधा नहीं जानता के अंतर्गत...

गरीबी
गरीबी इंसान को शैतान बना देती है,
गरीबी इंसान में तूफान समां देती है।
गरीबी वेश्या के घर दरबान बना देती है,
गरीबी को इतना न उतार चित्रों में,
गरीबी महल को शमशान बना देती है।
गरीबी से न जाने कितने अपराध हो गए,
गरीबी में न जाने कितने बर्बाद हो गए।
अरे इस गरीबी ने न समझा पीर किसी की,
गरीबी में न जाने कितने अरमान बिक गए।
गरीबी के बल पर भरते हैं जेबें जो रोज रोज,
गरीबी में उनके बचे खुचे ईमान बिक गए।
गरीबी के नाम पर सदन में मचाते हल्ला,
गरीबी की रकम से बनाते हैं कई तल्ले तल्ला।
गरीबी तो खुद को मजबूर कर देती है जीने को
हलक की प्यास मजबूर नहीं करती नाली का पानी पीने को।
गरीबों के सिसकते हैं कंठ तो इनके दिखावे के पानी से,
अपने प्रति इनके लगाव से और इनकी बेमानी से।
बंद करना होगा तुम्हें अपने मगरमच्छी आंसुओं को,
वरना न जाने कब लग जाए दीमक तुम्हारी इन आँखों में,
और बंद हो जाएँ तुम्हारे ये वादे, गरीबी और तुम।   
                                                             - रामशंकर 'विद्यार्थी'


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