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शुक्रवार, 15 मई 2015

सामुदायिक रेडियो : एक नए युग की शुरुआत

मीडिया विस्फोट के इस दौर में जहाँ एक ओर भारतीय उपग्रह चैनल आपसी प्रतिस्पदर्धा में सिर्फ बाज़ार को दृष्टिगत रखते हुए, कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर निजी एफएम चैनलों की भीड़ फिल्संगीत और पॉप म्यूज़िक का प्रसारण कर राजस्व कमाने की होड़ में जुटी है। आकाशवाणी अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को स्वीकारता है किन्तु राजस्व अर्जन के बढ़ते दबाव के चलते आकाशवाणी ज़बरदस्त बदलाव के दौर से गुज़र रहा है । आम भारतीय की स्थानीय समस्याओं और हितों को दृष्टिगत रखते हुए आकाशवाणी द्वारा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर के प्रसारण के साथ- साथ देश भर में स्थानीय स्तर पर कई 'लोकल रेडियो स्टेशन' आरम्भ किए गए । देश भर में बिछे रेडियो चैनलों के जाल के बावजूद लगातार यह महसूस किया जाता रहा कि कुछ है जो छूट रहा है, छोटे समुदायों के प्रसारण हितों और अधिकारों का पूर्णतया संरक्षण नहीं हो पा रहा है। सम्भवत: इसीलिए भारत में सामुदायिक रेडियो को वैधानिक मान्यता मिलते ही कई समुदायों का ध्यान इस ओर गया है।

सामुदायिक रेडियो को किसी एक परिभाषा में बाँधना सम्भव नहीं है। प्रत्येक देश के संस्कृति सम्बन्धी क़ानूनों में अन्तर होने के कारण देश और काल के साथ इसकी परिभाषा बदल जाती है। किन्तु मोटे तौर पर किसी छोटे समुदाय द्वारा संचालित कम लागत वाला रेडियो स्टेशन जो समुदाय के हितों, उसकी पसंद और समुदाय के विकास को दृष्टिगत रखते हुए ग़ैरव्यावसायिक प्रसारण करता है, सामुदायिक रेडियो केन्द्र कहलाता है। ऐसे रेडियो केन्द्र द्वारा कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, समाज कल्याण, सामुदायिक विकास, संस्कृति सम्बन्धी कार्यक्रमों के प्रसारण के साथ-साथ समुदाय के लिए तात्कालिक प्रासंगिता के कार्यक्रमों का प्रसारण किया जा सकता है। सामुदायिक केन्द्र का उद्देशय समुदाय के सदस्यों को शामिल कर समुदाय के लिए कार्य करना है।

सामुदायिक रेडियो की शुरूआत अमरीका में बीसवी सदी के चौथे दशक में हो गई थी। इसके पूर्व तीसरे दशक में, डेविड आर्मस्ट्राँग, एफएम प्रसारण का अविष्कार कर रेडियो प्रसारण के एक नए युग का सूत्रपात कर चुके थे। अपने शुरूआती दिनों में अमरीकी रेडियो का स्वरूप मुख्यतया व्यावसायिक था। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन द्वारा एफएम बैंड की निचली आवृतियों (881 मेगा हर्ट्ज़ से 919 मेगा हार्ट्ज़ तक) शैक्षणिक रेडियो के लिए सुरक्षित रखने का प्रावधान किया गया। एफएम रेडियो की संभावनाओं को पहचानने का यह पहला प्रयास था। एफएम रेडियो तकनीक की सुविधाजनक प्रणाली और इसकी कम लागत को देखते हुए भविष्य दृष्टाओं को इसमें एक ओर संभावना नज़र आई सामुदायिक रेडियो केन्द्र की संभावना । सामुदायिक रेडियो की कल्पना ने जब साकार रूप लिया तो यह संचार के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी क़दम सिद्ध हुआ

पहला सामुदायिक रेडियो केन्द्र 'वेस्ट कोस्ट' में लुइस हिल नाम के मशहूर पत्रकार द्वारा आरम्भ किया गया। 1946 में इससे जुड़े प्रसारणकर्ताओं ने ''पेसिफिका फाउंडेशन'' की स्थापना की। विश्व युद्ध के पश्चात् उस समय विभिन्न राष्ट्रों के बीच समझ पैदा करने को आवश्यकता महसूस की जा रही थी।इसी उद्देश्य से पेसेफिका फाउंडेशन ने सामुदायिक रेडियो प्रसारण आरम्भ किया। इस फाउंडेशन से जुड़े शांतिप्रिय बुद्धिजीवी इस बात से भली भाँति परिचित थे कि रेडियो के प्रायोजक इसके कार्यक्रमों को अपने हितों के अनुरूप प्रभावित कर सकते हैं अत: यह निर्णय लिया गया कि श्रोताओं की सहायता से ही केन्द्र का व्यय वहन किया जाएगा। आवश्यक राशि जुटाने के बाद फाउंडेशन ने बर्कले, कैलिफोर्निया से 15 अप्रैल 1949 को प्रसारण आरम्भ कर दिया। इस रेडियो केन्द्र से आज भी प्रसारण हो रहा है और अपनी तरह का यह सबसे पुराना रेडियो केन्द्र है। लेटिन अमरीकी देश बोलीविया में खदान श्रमिकों द्वारा 1949 में आरम्भ किया गया रेडियो केन्द्र, सामुदायिक रेडियो का अनूठा उदाहरण है। बोलीविया अपनी चाँदी एवम् टिन की खानों के लिए एक समय विश्व प्रसिद्ध था। शहरों से मीलों दूर इन खानों में हज़ारों श्रमिक कार्य करते थे। इनके लिए मनोरंजन और संचार के माध्यमों का नितांत अभाव था। इन श्रमिकों ने अपने वेतन का एक भाग संचित कर उस राशि से एक रेडियो केन्द्र स्थापित किया । प्रसारण की लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि इसने स्थानीय पत्र और तार सेवा के महत्व को तक कम दिया। श्रमिकों के संदेश सांस्कृतिक गतिविधियों की सूचना आपातकालीन उदघोषणाएं , सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों सम्बन्धी जानकारियों के साथ-साथ ट्रेड यूनियन और सरकार के बीच संवाद के समाचार प्रसारित होने लगे। कुछ ही वर्षों में बोलीविया में ऐसे 26 सामुदायिक रेडियो केन्द्रों से प्रसारण आरम्भ हो गया। सैन्य शासन के दौरान कई बार इन केन्द्रों को कुचल दिया गया किन्तु इस विचार में इतनी शक्ति थी कि ये बार-बार उठ खड़ा हुआ । इंग्लैंड में कम्युनिटी रेडियो का विचार उन अवैधानिक रेडियो स्टेशनों से आरम्भ हुआ जो सत्तर के दशक में बरमिंघम, बिस्टल, लंदन और मैनचेस्टर में ऐफ्रो-कैरिबियाई अप्रवासियों द्वारा आरम्भ किए गए। हालांकि ब्रिटिश सरकार ने इन्हें 'पाइरेट रेडियो' की संज्ञा दी थी किन्तु अवैधानिक होने के बावजूद इन केन्द्रों ने कम्युनिटी रेडियो की शक्ति को सिद्ध कर दिया
में सामुदायिक रेडियो की आधारशिला सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में रखी जब उसने अपने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में यह कहा कि 'रेडियो तरंगे लोक सम्पति हैं'। अन्नामलाई विश्वविद्यालय , चेन्नई का 'अन्ना एफएम' भारत का पहला कैम्पस कम्युनिटी रेडियो केन्द्र बना, जिसका प्रसारण 01 फरवरी 2004 से आरम्भ हुआ। इसे ई अम आर सी ।द्वारा संचालित किया जाता है। 16 नवम्बर 2006 को भारत सरकार द्वारा एक नई कम्युनिटी रेडियो नीति को अधिसूचित किया गया । इसके अनुसार ग़ैरव्यावसायिक संस्थायें, जैसे स्वयंसेवी संस्थायें, कृषि विश्वविद्यालय ,सामाजिक संस्थायें, भारतीय कृषि अनुसंधान की संस्थायें, कृषि विज्ञान केन्द्र तथा शैक्षणिक संस्था कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए आवेदन कर सकती हैं । ऐसी कोई भी संस्था, जो व्यावसायिक, राजनैतिक, आपराधिक गतिविधियों से सम्बद्ध हो या जिसे केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा अवैध घोषित किया गया हो, कम्युनिटी रेडियो खोलने की हक़दार नहीं है। व्यष्टि या व्यक्ति विशेष को भी यह अधिकार प्राप्त नहीं है। ऐसी पंजीकृत संस्थायें जो कम से कम तीन वर्षों से सामुदायिक सेवा के क्षेत्र में कार्य कर रही हों, कम्युनिट रेडियो के लाइसेंस के लिए आवेदन कर सकती हैं । इसके लिए कोई लाइसेंस फीस देय नहीं है । आवेदक को रु 2500- क़े मामूली प्रोसेसिंग शुल्क के अतिरिक्त रु 25,000- क़ी बैंक गारंटी जमा करनी होती है । लाइसेंस मिलने पर इन्हें 100 वॉट के एफएम ट्रांसमिटर के ज़रिए प्रसारण करने की अनुमति मिलती है । इसका एंटेना अधिकतम 30 मीटर ऊँचाई तक स्थापित किया जा सकता है । ऐसे ट्रांसमीटर की पहुँच 12 किमी क़े घेरे तक सीमित होती है । केन्द्रों को अपने आधे कार्यक्रम यथासंभव स्थानीय भाषा या बोली में, स्थानीय स्तर पर ही बनाने होते हैं। भारत में निजी एफएम और कम्युनिटी रेडियो पर अब तक समाचारों के प्रसारण की अनुमति नहीं हैं। एक घंटे के प्रसारण समय में पाँच मिनट के विज्ञापन बजाए जा सकते हैं। प्रायोजित कार्यक्रमों के प्रसारण की अनुमति नहीं है किन्तु राज्य अथवा केन्द्र सरकार से प्रायोजित कार्यक्रम प्राप्त होने की दशा में इन्हें प्रसारित किया जा सकता है । आने वाले कुछ वर्षों में भारत भर में लगभग चार हज़ार कम्युनिटी रेडियो केन्द्र खोले जाने का अनुमान है मीडिया का निजीकरण और पूर्णत: स्वतंत्र मीडिया आम भारतीय के लिए मायने नहीं रखता। आज भी भारत, गाँव में बसता है और भारतीय ग्रामीणों की प्रसारण आवश्कताओं की पूर्ति बड़े प्रसारक नहीं कर सकते। जिस देश में बहुत कम दूरियों पर लोगों की ज़रूरतें, भाषा और संस्कृति बदल जाती हो वहाँ यह संभव भी नहीं है। सामुदायिक रेडियो, सामुदायिक कल्याण, पर्यावरण जागरूकता, विविधता में एकता ओर समग्र विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकता है। यही नहीं कुछ और स्वतंत्रता मिलने पर यह छोटे-छोटे केन्द्र प्रजातंत्र को उसका सही अर्थ प्रदान कर सकते हैं। (साभार- संवाद समय) 


अहसास


                                                                                                मैं विधा नहीं जनता के अंतर्गत...  

अहसास...

मन था अकेला मन में था गुबार
देखी एक छाया हुआ उससे प्यार,
आगे फिर बात बढ़ी किया मैंने इज़हार
इज़हार हुआ कि इकरार ये शायद याद नहीं,
दिल ने धीरे से कहा
इक दूसरे से दूर रहने के मेरे पास वाद नहीं,
छाया बोली दिल उमंग से है भर गया
कोई हवा का झोंका मेरे कान में है कुछ कह गया,
क्या कहा ये मुझे भी याद नहीं

आपसे दूर रहने के मेरे पास वाद नहीं।  
                                                     रामशंकर 'विद्यार्थी'

सोमवार, 11 मई 2015

माध्यमिक शून्यवाद के प्रणेता : आचार्य नागार्जुन

माध्यमिक शून्यवाद के प्रणेता : आचार्य नागार्जुन
रामशंकर विद्यार्थी
ICSSR डॉक्टोरल रिसर्च फ़ेलो,
म्हटमा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा

नागार्जुन बौद्धाचार्य (जन्म -150; मृत्यु -लगभग 250 ई) भारतीय बौद्ध भिक्षु-दार्शनिक और माध्यमिक (मध्य मार्ग) मत के संस्थापक, जिनकी शून्यता’ (ख़ालीपन) की अवधारणा के स्पष्टीकरण को उच्चकोटि की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि माना जाता है। बाद के कई बौद्ध मतों ने उन्हें प्राधि-धर्माध्यक्ष माना। दो मौलिक रचनाएं, जो काफ़ी हद तक उनकी हैं और संस्कृत में उपलब्ध रही- मूलमाध्यमिका कारिका (सामान्यत: माध्यमिका कारिका के रूप में जानी जाती) तथा विग्रहव्यवर्तिनी हैं, जो अस्तित्व की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन और यथार्थ के स्वरूप पर विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण हैं।
नागार्जुन की जीवन कथा का आंरभिक विवरण चीनी भाषा में उपलब्ध है, जिसे क़रीब 405 ई. में प्रसिद्ध बौद्ध अनुवादक कुमारजीव ने उपलब्ध कराया। यह अन्य चीनी एवं तिब्बती वृत्तांत से सहमत हैं कि नागार्जुन दक्षिण भारत में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। ऐतिहासिक रूप से बचपन की उनकी कथाएं विवादास्प्रद हैं, लेकिन यह संकेत देती हैं कि उनके पास असाधारण बौद्धिक क्षमता थी तथा जब उन्होंने महायान बौद्ध धर्म के सिद्धांतों, जो इस समय पूर्वी एशिया में प्रचलित हैं, के गहन अर्थों को समझा, तब उनमें आध्यात्मिक परिवर्तन हुआ। कुमारजीव के वृत्तांत के अनुसार, नागार्जुन द्वारा बौद्ध धर्म के कुछ मूल विचार कुछ असंतुष्टि से सीखने के बाद एक 'महानाग बोधिसत्व' पर ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर एक प्रमुख नागराज[1] ने दया दिखाई तथा उन्हें अत्यंत गूढ़ महायान श्लोकों के बारे में बताया। नागार्जुन ने कुछ ही समय में इनमें प्रवीणता हासिल की तथा भारत में सफलतापूर्वक सत्य (धर्म) का प्रचार किया और कई विरोधियों को बौद्धिक-दार्शनिक शास्त्रार्थ में परास्त किया। अनुश्रुत वृतांत यह भी संकेत देते हैं कि वह काफ़ी लंबी उम्र तक जिए तथा इसके बाद उन्होंने अपने जीवन का अंत करने का निर्णय लिया। विभिन्न वृत्तांत नागार्जुन के विभिन्न धार्मिक गुणों का वर्णन करते हैं तथा उनके जीवन का कालांकन 500 से अधिक वर्षों के दायरे में करते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि उपलब्ध संदर्भ कई व्यक्तियों के बारे में हो सकते हैं तथा इनमें कुछ काल्पनिक वृत्तांत भी शामिल होंगे। फिर भी नागार्जुन की जीवनी के विभिन्न तत्वों की पुष्टि एतिहासिक साम्रग्री से होती है। वर्तमान विद्वान संकेत देते हैं कि नागार्जुन 50 ई. और 280 ई. किसी अवधि में रहे होंगे। एक आम राय के मुताबिक़, उनका कालांकन 150-250 ई. है। कुछ पुरातात्विक सबूत : उनके द्वारा सातवाहन वंश के एक राजा, संभवत: यज्ञश्री (173-202) को लिखा एक पत्र (सुहारिल्लेख, ‘मैत्रिपूर्ण पत्र’) इस दावे की पुष्टि करता है कि वह दक्षिण भारत में रहते थे।
नागार्जुन माध्यमिक दर्शन के प्रतिष्ठापक और महायान बौद्ध दर्शन के प्रमुख आचार्य थे। भगवान बुद्ध ने शाश्वत और उच्छेद, सत् और असत्, भाव और अभाव इन दो अन्तों के बीच चलने का उपदेश दिया था। नागार्जुन ने तथागत द्वारा उपदिष्ठ इस मध्यम मार्ग की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की और बौद्ध परम्परा में प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत का दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत कर जगत को सापेक्ष, फलत: अनुत्पन्न, नि:स्वभाव और स्वभाव शून्य बताते हुए शून्यता के सिद्धांत को शास्त्रीय दृष्टि से प्रस्तुत किया। नागार्जुन ने जीवन एवं उनकी तिथि के विषय में कई प्रकार के प्रवाह और मत प्रचलित हैं। उन मतभेदों का विशद विवरण तो यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु उनके विषय में लंकावतारसूत्र, महामेघसूत्र, महामेरीसूत्र और मज्जुश्रीमूलकल्प में भविष्यवाणियाँ उपलब्ध होती हैं। सभी प्राणियों और परम्पराओं की समीक्षा से ज्ञात होता है कि भारतीय परम्परा में माध्यमिक दर्शन, रसेश्वर दर्शन, तन्त्र तथा आयुर्वेद से सम्बन्ध नागार्जुन नामधारी चार आचार्य हुए। इनमें प्राचीनतम बौद्ध नागार्जुन ही थे, जिनकी तिथि प्राय: ईसवी सन दूसरी शताब्दी के आस पास मानी गयी (146 – 217 ई.) है।
प्रभाव एवं रचनाएं
नागार्जुन का प्रभाव बौद्ध धर्म के माध्यमिक मत के अनुयायियों के ज़रिये जारी रहा। उनकी दार्शनिक स्थितियों की विवेचनात्मक पड़ताल तथा उपदेशात्मक व्याख्या का अध्ययन अब भी कई पूर्वी एशियाई मतों में चीनी बौद्ध धर्मशास्त्र (ता-त्सांग चिंग) के अंग के रूप में किया जाता है। इसी प्रकार तिब्बती बौद्ध धर्मशास्त्र के अंग की तरह बस्तान-ग्यूर में 17 माध्यमिका शोध प्रबंध हैं। इनमें से सभी प्रबंधों का श्रेय नागार्जुन को नहीं दिया और पारंपरिक तौर पर जिनका श्रेय उनको दिया जाता है, संभवत: वे भी उन्होंने नहीं लिखे हैं।
दो मूल रचनाएं, जो काफ़ी हद तक उनकी हैं, इस समय संस्कृत में उपलब्ध हैं; वे हैं- मूलमाध्यमिकाकारिका (माध्यमिका कारिका,’ मध्यम मार्ग के मूल सिद्धांत’) और विग्रहव्यवर्तनी (वाद-विवाद का निवारण), दोंनो सत्ता की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन, तथा यथार्थ के स्वरूप के बारे में असत्य विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण है। जिन तीन महत्त्वपूर्ण, माध्यमिका रचनाओं का श्रेय नागार्जुन को दिया जाता है वे वर्तमान में केवल चीनी भाषा में उपलब्ध हैं, ता-चिह-तू-लुन (महाप्रज्ञपारमिता-शास्त्र, 'प्रज्ञा शोध प्रबंधों की महान पराकाषठा'), शी-चू-पी-पा-शा-लुन (दशमूमि-विभाष-शास्त्र, ’10 स्तरीय ग्रंथों की आभा'), तथा शिन-एर्ह-मेन-लुक (द्वादश-द्वार {निकाय} -शास्त्र, '12 प्रवेश मार्ग ग्रंथ') निम्नलिखित रचनाएं केवल तिब्बती धर्मशास्त्र में मिलती हैं तथा कई विद्वान इन्हें नागार्जुन की रचनाएं मानते हैं : रिग्स पा द्रग का पाही त्सिग लेहुर व्यास पा शेस ब्या बा (युक्ति-षष्टिका, 'संयोजन पर 60 छंद'), तोन पा निद दुन कु पाही त्सिग लेहूर ब्यास पा शेस ब्या बा (शुन्यता-सप्तति, 'शून्यता पर 70 छंद') और शिब भो नम्पर ह्तग पा शेस ब्या बहि म्दो (वैदालया-सूत्र, 'वैदालया श्रेणी का पवित्र ग्रंथ')
माध्यमिक विश्लेषण के श्लोकों के अलावा तिब्बती अनुश्रुति ने कई तांत्रिक (जादुई) एवं चिकित्सा रचनाओं का श्रेय किसी 'नागार्जुन' को दिया है। बाद की भारतीय रचनाओं में नागार्जुन नाम के एक महान सिद्ध या तांत्रिक का ज़िक्र है, जिन्होंने तांत्रिक आचरण, यानी चमत्कारी मंत्रों एवं मंडलों की मदद से जादुई शक्तियां प्राप्त की तथा नियंत्रित आहार और औषधि से अस्तित्व की अभौतिकीय अगत तक पहुंचे। इन कथाओं के साथ एक शक्तिशाली कीमियागर की कहानी भी संबद्ध है, जिन्होंने अन्य उपलब्धियों के आलावा अमरता का अमृत खोज निकाला था। ठोस ऐतिहासिक आंकड़ों के अभाव तथा परस्पर विरोधी वृत्तांतों दूसरी सदी के इस दार्शनिक पर लागू नहीं माना जाता है।
माध्यमिक दार्शनिक के जीवन एवं दृष्टिकोण के बारे में कुछ जानकारी नागार्जुन की रचनाओं से भी मिल सकती है। उनके विवेचनात्मक विश्लेषणात्मक काव्यों और उनके उपदेशात्मक प्रबंध, पत्र एवं श्लोक लोगों के साथ विनियोजन में अनासक्ति’ (यानि सभी चीजों की शून्यता का बोध करना और इसलिए उनसे निर्लिप्त होना) को व्यवहार में लाने के प्रति अनेक गहरे सरोकार का संकेत देते हैं। दुरूह तर्क के ज़रिये, जैसा माध्यमिका कारिका में है, उन्होंने अस्तित्व के बारे में हिंदू एवं बौद्ध दृष्टिकोणों की आलोचना की हैं। लेकिन उनके अधिकतर शास्त्रार्थ स्थविरवाद और सर्वास्तिवाद के बौद्ध मतों द्वारा प्रस्तातिव अस्तित्व की व्याख्या के प्रयास थे। नागार्जुन की स्थिती प्रारंभिक महायान साहित्य के प्रज्ञापारमिता-सूत्र (प्रज्ञा श्लोकों की पराकाष्ठा) से घनिष्ठ रूप से संबद्ध और संभवत: निर्भर है, जिसमें 'शून्य' का विचार ज्ञान के मार्ग पर चलने वालों से लिए महत्त्वपूर्ण था और माध्यमिका मत में विशिष्ट शब्द बन गया।
यह विचार बताता है कि अस्तित्व का स्वरूप संबंधात्मक है : कोई आत्मा नहीं है, कुछ नहीं है तथा इसके संदर्भ में स्वतंत्र कोई अवधारणा नहीं है; सभी चीज़े किसी से रिक्त हैं तथा केवल परिस्थिती के संदर्भ में विद्यमान हैं। परिवर्तनशील स्वरूपों के पीछे कोई शाश्वत सत्य नहीं है; यहां तक कि बिना किसी बंधन के निर्वाण (ज्ञान-प्राप्ति) भी अस्तित्व के बदलते स्वरूप से स्वतंत्र नहीं है। जिन व्यक्तियों ने ज्ञान में पूर्णता प्राप्त कर ली है, उन्हें निर्वाण एवं अस्तित्व के परिवर्तनशील प्रवाह का एक साथ बौद्ध होता है। यह पूर्णता उन दूसरी 'पूर्णताओं' को रुपांतरित करती है, जो बोधिसत्व (भावी बुद्ध) के मार्ग के अंग हैं, जैसे नैतिकता, सहनशीलता एवं ध्यान। विवेक की पराकाष्ठा पूर्णता के लिए प्रयासरत उत्साही व्यक्ति को पूर्णता की आसक्ति तक से मुक्ति दिला देती है, उस 'पूर्णता' से, जिसमें उसे क्षण के संबंधात्मक स्वरूप का बोध नहीं होता । अत: विवेक को करुणा से पृथक न करने वाले नागार्जुन के दृष्टिकोण से विद्वतापूर्ण शास्त्रार्थ में हिस्सा लेना, बुद्ध की शिक्षाओं की व्याख्या लिखना तथा श्लोकों में माया एवं पीड़ा से मुक्ति की प्रशंसा करना परम सत्य (धर्म) अनुकूल माने जाते हैं।
सत्ताईस अध्यायों में विभक्त और 448 कारिकाओं में निबद्ध माध्यमिक कारिका या मध्यमक शास्त्र नागार्जुन की सर्वाधिक विद्वत्तापूर्ण और प्रसिद्ध रचना है, जो सम्पूर्ण माध्यमिक प्रस्थान का आधार स्तम्भ है। विग्रहव्यावर्तनी में नागार्जुन के दर्शन का प्रमाण पक्ष स्फुट हुआ है। चतु:स्तव में बुद्ध की स्तुति है तो रत्नावली में राजा के आचार मार्ग का निर्देश और बौद्ध दर्शन के वास्तविक स्वरूप का विवेचन है। प्रतीत्यसमुत्पादहृदय, शून्यतासप्तति, युक्तिषष्टिका, उपायहृदय, भवसंक्रांतिशास्त्र, महाप्रज्ञापारमिताशास्त्र और वैदत्यसूत्र नागार्जुन की दूसरी असंदिग्ध रचनायें हैं, जिनमें उनके दर्शन के विविध पक्षों की अभिराम अभिव्यक्ति हुई है।
नागार्जुन की दृष्टि में मूल तत्व शून्य के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। ध्यान देने की बात यह है कि यह शून्य कोई निषेधात्मक वस्तु नहीं है जिसका अपलाप किया जा सके। किसी भी पदार्थ का स्वरूपनिर्णय करने में चार ही कोटियों का प्रयोग संभाव्य है - अस्ति (विद्यमान है), नास्ति (विद्यमान नहीं है), तदुभयम् (एक साथ ही अस्ति नास्ति दोनों) तथा नोभयम् (अस्ति नास्ति दोनों कल्पनाओं का निषेध)। परमार्थ इन चारों कोटियों से मुक्त होता है और इसीलिए उसके अभिधान के लिए "शून्य" शब्द का प्रयोग हम करते हैं। नागार्जुन के शब्दों में-
न सन् नासन् न सदसत् न चाप्यनुभयात्मकम्।
चतुष्कोटिर्विनिर्मुक्त तेत्वं माध्यमिका विदु:॥
शून्यवाद की सिद्धि के लिए नागार्जुन ने विध्वंसात्मक तर्क का उपयोग किया है - वह तर्क, जिसके सहारे पदार्थ का विश्लेषण करते करते वह केवल शून्यरूप में टिक जाता है। इस तर्क के बल पर द्रव्य, गति जाति, काल, संसर्ग, आत्मा, आदि तत्वों का बड़ा ही गंभीर, मार्मिक तथा मौलिक विवेचन करने का श्रेय नागार्जुन को है। इस मत में सत्य दो प्रकार का होता है - (1) सांवृतिक सत्य तथा (2) पारमार्थिक सत्य जिनमें प्रथम अविद्या से उत्पन्न व्यावहारिक सत्ता का संकेत करता है; द्वितीय प्रज्ञा जनित सत्य का प्रतिपादक है। "संवृति" शब्द का अर्थ है अविद्या। अविद्याजनित होने से व्यावहारिक सत्य सांवृतिक सत्य के नाम से जाना जाता है। सत्य की यह द्विविध व्याख्या नागार्जुन की दृष्टि में शून्यवाद के द्वारा उद्भावित नूतन कल्पना नहीं है, प्रत्युत बुद्ध के द्वारा ही प्राचीन काल में संकेतित की गई है। बुद्ध के कतिपय उपदेश व्यावहारिक सत्य के आधार पर दिए गए हैं; अन्य उपदेश पारमार्थिक सत्य के ऊपर आलंबित हैं। अभीष्ट दोनों है बुद्ध को -
द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना।
लोक संवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थित: ॥
नागार्जुन दार्शनिक होते हुए भी व्यवहार की उपेक्षा करनेवाले आचार्य नहीं थे। वे जानते हैं कि व्यवहार का बिना आश्रय लिए परमार्थ का उपदेश ही नहीं हो सकता और परमार्थ की प्राप्ति के अभाव में निर्वाण मिल नहीं सकता। साधारण मानवों की बुद्धि व्यवहार में इतनी आसक्त है कि उसे परमार्थपथ पर लाने के लिए व्यवहार का अपलाप नहीं किया जा सकता। फलत: व्यवहार की असत्यता परमार्थ शब्दों के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु नहीं है। इसीलिए उसे "अनक्षरतत्व" के अभिधान से जानते हैं। परमार्थतत्व बुद्धिव्यापार इतनी आसक्त है कि उसे परमार्थ पथ पर लाने के लिए व्यवहार का अपलाप नहीं किया जा सकता। फलत: व्यवहार की "असत्यता" दिखलाकर ही साधक को परमार्थ में प्रतिष्ठित करना पड़ता है। परमार्थ शब्दों के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु नहीं है। इसीलिए उसे अनक्षर तत्व के अभिधान से जानते हैं।

परमार्थतत्व बुद्धिव्यापार से अगोचर, अविषय (ज्ञान की कल्पना से बाहर), सर्वप्रपंचनिर्मुक्त तथा कल्पनाविरहित है, परंतु उसके ऊपर जागतिक पदार्थों का समारोप करने से ही उसका ज्ञान हमें हो सकता है। यह तत्व वेदांतियों के अध्यारोप तथा अपवादविधि से निमांत सादृश्य रखता है।

शनिवार, 9 मई 2015

भारत में तेरहवीं शताब्दी के आक्रमणों से पूर्व बौद्ध धर्म का इतिहास

रामशंकर विद्यार्थी
ICSSR डॉक्टोरल रिसर्च फ़ेलो,
म्हटमा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा

हीनयान अर्थात छोटा या लघुतरऔर महायानअर्थात बड़ा या बृहत्तरवाहन शब्दों का उल्लेख पहली बार प्रज्ञापारमिता सूत्रों अर्थात ज्ञान की परिपूर्णता
के सूत्रों में महायान की प्रधानता को प्रतिपादित करने के निमित्त के रूप में मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से महायान से पहले अठारह बौद्ध निकाय थे और इनमें से प्रत्येक निकाय के भिक्षुओं के अनुशासन सम्बंधी नियम (विनय) थे जो एक-दूसरे से थोड़े-बहुत भिन्न थे। हालाँकि इन अठारह निकायों के समुच्चय के लिए कुछ अन्य नाम भी सुझाए गए हैं, किन्तु किसी प्रकार के निंदासूचक लक्ष्यार्थ के बिना हम यहाँ हीनयान शब्द का प्रयोग करेंगे।
थेरवाद (संस्कृत : स्थविरवाद) अठारह बौद्ध निकायों में से एक निकाय है जो वर्तमान समय में प्रचलित है। यह सम्प्रदाय श्रीलंका और दक्षिण-पूर्वी एशिया में फल-फूल रहा है। जब भारतीय और तिब्बती महायान ग्रंथ वैभाषिक और सौत्रान्तिक निकायों के दार्शनिक मतों को प्रस्तुत करते हैं, तो इन दोनों हीनयान निकायों से आशय उन अठारह बौद्ध निकायों में से एक अन्य निकाय सर्वास्तिवाद की शाखाओं के रूप में होता है।तिब्बती मठीय अनुशासन के नियम मूलसर्वास्तिवाद निकाय से हैं जो कि सर्वास्तिवाद का एक स्कंध है। अतः हीनयान के तिब्बती प्रस्तुतीकरण को थेरवाद समझने के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।
पूर्व-एशियाई बौद्ध परम्पराओं में अठारह बौद्ध निकायों में से एक अन्य निकाय धर्मगुप्तक की भिक्षु परम्परा विनय का पालन किया जाता है।
शाक्यमुनि बुद्ध
राजकुमार सिद्धार्थ, जो बाद में शाक्यमुनि बुद्ध हुए, का जीवनकाल मध्य उत्तर भारत में 566 से 486 ई.पू. तक माना जाता है। पैंतीस वर्ष की उम्र में बुद्धत्व को प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपना जीवन किसी भिक्षुक की भांति घूम-घूम कर दूसरों को शिक्षा देते हुए व्यतीत किया। जल्दी ही ब्रह्मचारी आध्यात्मिक साधकों का एक समुदाय उनके साथ एक होकर खड़ा हो गया और जहाँ भी वे जाते, यह समुदाय उनके साथ साथ चलता। आगे चलकर, जैसे-जैसे आवश्यकता महसूस की गई, बुद्ध ने इस समुदाय के अनुशासन के लिए नियम निर्धारित किए। ये भिक्षुमाह में चार बार एकत्र होकर इन नियमों का उच्चार करते और यदि उनसे किसी प्रकार का उल्लंघन हुआ हो, तो उसका प्रक्षालन करते थे।
अपने ज्ञानोदय के लगभग बीस वर्ष बाद बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए प्रत्येक वर्ष वर्षा ऋतु में तीन माह के एकान्तवास की परम्परा की शुरुआत की। बौद्ध मठों के निर्माण के विचार ने इसी परम्परा से जन्म लिया। देह त्याग करने से कुछ वर्ष पहले बुद्ध ने भिक्षुणियों की भी परम्परा की शुरुआत की।
प्रथम बौद्ध संगीति
बुद्ध ने अपनी शिक्षाएं मगध की प्राकृत भाषा में दीं, लेकिन उनके अपने जीवन काल में इनमें से कुछ भी लिपिबद्ध नहीं किया गया। दरअसल बुद्ध की शिक्षाओं को पहली बार पहली शताब्दी की शुरुआत में ही लिपिबद्ध किया गया और ये शिक्षाएं थेरवाद सम्प्रदाय से ली गई थीं। इन्हें श्रीलंका में पालि भाषा में लिखा गया। इससे पहले की शताब्दियों में भिक्षु बुद्ध की शिक्षाओं को याद करके और समय-समय पर उनका उच्चार करके सुरक्षित रखते थे।
स्मृति के आधार पर बुद्ध की शिक्षाओं का वाचन करने की प्रथा बुद्ध के देह त्याग के कुछ माह बाद ही शुरू की गई। शिक्षाओं का पहली बार वाचन प्रथम बौद्ध संगीति में किया गया जो राजगृह (वर्तमान राजगीर) में आयोजित की गई थी, जहाँ पाँच सौ शिष्य जमा हुए थे। परम्परागत विवरणों में उल्लेख मिलता है कि इसमें भाग लेने वाले सभी शिष्य अर्हत या परमज्ञानी थे।
वैभाषिक विवरण के अनुसार तीन अर्हतों ने स्मृति के आधार पर शिक्षाओं का वाचन किया। यदि सभा के अन्य सभी सदस्य इस बात से सहमत हो जाते कि इन अर्हतों ने जो वाचन किया वह बुद्ध द्वारा दी गई शिक्षाओं से हू-बहू मेल खाता था, तो इससे शिक्षाओं की सटीकता की पुष्टि हो जाती थी।
आनन्द ने सूत्रों धर्म के आचरण सम्बंधी विभिन्न विषयों के उपदेशों का संगायन किया।
उपालि ने विनय भिक्षु परम्परा सम्बंधी नियमों का संगायन किया।
महाकाश्यप ने ज्ञान के उच्चतर सविवेक बोध के विशिष्ट विषयों से सम्बंधित अभिधर्म पिटक का संगायन किया।
इन तीन विषयों पर बुद्ध की शिक्षाओं के संग्रह कोत्रिपिटक, अर्थात तीन पिटारों की संज्ञा दी गई।
विनय पिटक में उच्च नैतिक आत्मानुशासन सम्बंधी शिक्षाओं को शामिल किया गया,
सूत्र पिटक में उच्च अन्तर्लीन एकाग्रता सम्बंधी शिक्षाओं को सम्मिलित किया गया,
अभिधर्म पिटक में उच्च सविवेक बोध या उच्च ज्ञानसम्बंधी शिक्षाओं को शामिल किया गया।
वैभाषिक विवरणों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि प्रथम संगीति में बुद्ध की सभी अभिधर्म शिक्षाओं का संगायन नहीं किया गया था। कुछ शिक्षाएं संगीति से इतर मौखिक परम्परा से प्राप्त हुईं जिन्हें बाद में शामिल किया गया।
सौत्रान्तिक विवरण के अनुसार संगीति में जिन अभिधर्म शिक्षाओं का संगायन किया गया, वे बुद्ध के शब्द थे ही नहीं। इस पिटक में शामिल किए गए सात अभिधर्म ग्रंथों की रचना दरअसल सात अर्हतों द्वारा की गई थी।
द्वितीय बौद्ध संगीति और महासांघिक निकाय की स्थापना
द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन 386 या 376 ई.पू. में वैशाली में किया गया जहाँ सात सौ भिक्षु एकत्र हुए। यह संगीति भिक्षुओं के विनय-नियमों से सम्बंधित दस विषयों पर निर्णय करने के उद्देश्य से आहूत की गई थी। मुख्य निर्णय यह लिया गया कि भिक्षुओं को स्वर्ण स्वीकार करने की अनुमति नहीं होगी। वर्तमान समय की दृष्टि से इसका अर्थ यह था कि भिक्षुओं को धन का लेन-देन करने की अनुमति नहीं थी। इसके बाद सभा की शुद्धता को पुनःप्रमाणित करने के लिए विनय पिटक का संगायन किया गया।
थेरवाद की व्याख्या के अनुसार भिक्षु समुदाय में विवाद की पहली दरार इसी संगीति में उत्पन्न हुई। उल्लंघन करने वाले भिक्षुओं ने समुदाय से अलग होकर महासांघिक निकाय की स्थापना कर ली जबकि पीछे छूट गए ज्येष्ठों के समुदाय को थेरवाद निकाय का नाम दिया गया। पालि भाषा में थेरवादका अर्थ ज्येष्ठ के वचनों के अनुयायीहोता है। महासांघिकका अर्थ बहुसंख्य समुदायहोता है।
कुछ विवरणों के अनुसार बौद्ध समुदाय का वास्तविक बंटवारा बाद में 349 ई.पू. में हुआ। विवाद भिक्षुओं के विनय नियमों को लेकर नहीं था, बल्कि दार्शनिक विचारों को लेकर उत्पन्न हुआ था। विवाद इस बात को लेकर था कि अर्हत, जो कि परमज्ञानी होता है, की क्षमताएं परिमित हैं अथवा नहीं।
•           थेरवादी ज्येष्ठ मानते थे कि अर्हतों का ज्ञान सीमित होता है। उदाहरण के लिए, सम्भव है कि यात्रा के दौरान उन्हें अपनी दिशा का ज्ञान न हो और उन्हें इस सम्बंध में दूसरों से सूचना प्राप्त करनी पड़ सकती है। यद्यपि उन्हें धर्म सम्बंधी सभी विषयों की जानकारी होती थी। उन्हें अपनी सिद्धियों के बारे में भी संदेह हो सकते थे। लेकिन थेरवाद की यह दृढ़ मान्यता थी कि अर्हत वासना जैसे अशांतकारी मनोभावों से पूरी तरह मुक्त होते थे।
•           अशांतकारी मनोभावों के विषय में महासांघिक या बहुसंख्यक समुदायथेरवादियों से असहमत था। उनका कहना था कि अर्हतों को स्वप्न में बहकाया जा सकता है और वे रात्रि में स्वप्नदोष से ग्रस्त हो सकते हैं, क्योंकि उनमें काम प्रवृत्ति के अवशेष रह जाते हैं। इस प्रकार महासांघिक ने बुद्ध और अर्हत के बीच एक स्पष्ट विभाजन कर दिया।
थेरवाद सम्प्रदाय के अनुयायी उत्तर भारत के पश्चिमी भाग में जाकर केन्द्रित हो गए। महासांघिक के अनुयायी उत्तर भारत के पूर्वी भाग में केन्द्रित हो गए और फिर दक्षिण भारत के पूर्वी भाग में स्थित आंध्र तक फैल गए। बाद में आंध्र में महायान उभर कर सामने आया। पाश्चात्य विद्वान महासांघिक को महायान का अग्रदूत मानते हैं।
तृतीय बौद्ध संगीति और सर्वास्तिवाद तथा धर्मगुप्तक निकायों की स्थापना
चंद्रगुप्त मौर्य ने 322 ई.पू. में उत्तर भारत के मध्य क्षेत्र, मगध, जो बौद्ध धर्म की जन्मभूमि था, में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यह साम्राज्य तेज़ी के साथ बढ़ा और 268 232 ई.पू. में सम्राट अशोक के शासनकाल में इसका विस्तार अपने चरम पर पहुँचा। अशोक के काल में मौर्य साम्राज्य वर्तमान अफ़गानिस्तान और बलूचिस्तान से लेकर असम तक, और दक्षिण भारत के अधिकांश क्षेत्र में फैला हुआ था।
सम्राट अशोक के शासनकाल में 237 ई.पू. में सर्वास्तिवाद निकाय भी कुछ दार्शनिक विषयों पर विवाद के कारण थेरवाद से अलग हो गया। थेरवाद के अनुसार यह अलगाव मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र, जो वर्तमान पटना है, में सम्राट के प्रश्रय में आयोजित की गई तीसरी संगीति के अवसर पर हुआ। लेकिन उनके अनुसार यह संगीति सर्वास्तिवाद निकाय द्वारा बताई गई तारीख से बीस वर्ष पहले 257 ई.पू. में आयोजित की गई थी। इस अन्तर का कारण यह है कि थेरवाद के अनुसार इस संगीति द्वारा थेरवाद के मत की शुद्धता की पुनःपुष्टि किए जाने के बाद ही सम्राट अशोक ने अपने साम्राज्य के भीतर और साम्राज्य की सीमाओं से बाहर बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अगले वर्ष नए क्षेत्रों में धर्म प्रचारक मंडल भेजे। इन धर्म प्रचारक मंडलों के माध्यम से बौद्ध धर्म वर्तमान पाकिस्तान (गंधार और सिंध), वर्तमान दक्षिण-पूर्वी अफ़गानिस्तान (बैक्ट्रिया), दक्षिण भारत के पश्चिमी भाग गुजरात, श्रीलंका और बर्मा तक पहुँचा। सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद उसके पुत्र जलोक ने कश्मीर में सर्वास्तिवाद को प्रचलित किया। वहाँ से फिर आगे उसका प्रसार वर्तमान अफ़गानिस्तान तक हो गया।
संगीति का आयोजन जब भी हुआ हो, उसका प्रमुख कार्य बुद्ध की शिक्षाओं का विश्लेषण करना और उन विचारों का खंडन करना था जिन्हें थेरवादी ज्येष्ठ अशुद्ध विचार मानते थे। सभा के प्रधान भिक्षु मोग्गलिपुत्त तिस्स ने इन विश्लेषणात्मक खंडनों कोतर्क-वितर्कों के आधारों(पालि : कथावत्थु) के रूप में संकलित किया, जो थेरवाद अभिधम्म पिटक के सात ग्रंथों में से पाँचवाँ ग्रंथ बना।
दूसरी हीनयान परम्पराओं में इस संगीति का उल्लेख उस प्रकार से नहीं मिलता जैसा थेरवाद में किया गया है। जो भी हो, एक प्रमुख दार्शनिक मुद्दा जिसके आधार पर अलगाव हुआ वह भूत, वर्तमान और भविष्य की घटनाओं के अस्तित्व से सम्बंधित था।
•           सर्वास्तिवाद का आग्रह इस बात पर था कि सभी चीज़ों का अस्तित्व है जो घटनाएं अब घटित नहीं हो रही है, जो अभी घटित हो रही हैं, और जो अभी घटित नहीं हुई हैं। इसका कारण यह है कि जिन अणुओं से सभी चीज़ें निर्मित हैं, वे नित्य हैं; सिर्फ़ उनका स्वरूप बदल जाता है। अतः अणुओं का स्वरूप जो घटनाएं अभी घटित नहीं हुई हैं से बदल कर वर्तमान में घटित हो रही घटनाओं के रूप में और उसके बाद उन घटनाओं के रूप में अन्तरित हो सकता है जो अब घटित नहीं हो रही हैं। लेकिन इन गोचर वस्तुओं का निर्माण उन्हीं शाश्वत अणुओं से होता है।
•           न केवल थेरवाद, बल्कि महासांघिक का भी इस बात पर बल था कि केवल वर्तमान में घटित हो रही गोचर वस्तुओं का अस्तित्व है, साथ ही साथ उन घटनाओं का भी अस्तित्व है जो अब घटित नहीं हो रही हैं जिनके परिणाम अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं। उत्तरवर्ती घटनाओं का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि वे अभी भी किसी प्रकार्य को सम्पादित कर सकती हैं।
•           लेकिन सर्वास्तिवाद इस बात पर महासांघिक से सहमत था कि अर्हतों की योग्यता इस दृष्टि से सीमित होती है कि उनमें अशांतकारी मनोभावों के अंश विद्यमान होते हैं।
190 ई.पू. में धर्मगुप्तक निकाय भी थेरवाद से अलग हो गया।
•           धर्मगुप्तक निकाय इस विषय पर थेरवाद से सहमत था कि अर्हत अशांतकारी मनोभावों से प्रभावित नहीं होते हैं।
•           किन्तु महासांघिक निकाय की ही भांति धर्मगुप्तक निकाय ने भी बुद्ध को अधिक ऊँचा स्थान देने पर बल दिया। इस निकाय का दृढ़ मत था कि मठवासियों की अपेक्षा बुद्धजनों को भेंट-चढ़ावा देना अधिक महत्वपूर्ण है, और इसमें बुद्धजनों के स्मृति-चिह्नों को रखने के लिए निर्मित स्तूपों में चढ़ावा चढ़ाने पर विशेष तौर पर बल दिया गया।
•           धर्मगुप्तक निकाय ने धारणी पिटक नाम का एक चौथा पिटक-समान संकलन और जोड़ दिया। धरणीजिसका संस्कृत भाषा में अर्थ धारणा शक्तिऔर तिब्बती अनुवाद में महत्वपूर्ण उपायहोता है, संस्कृत भाषा में ऐसे धार्मिक मंत्र होते हैं जिनका जाप करने से साधक को धर्म के वचनों और उनके अर्थ का स्मरण रहता है, ताकि वह सकारात्मक तथ्यों को परिपुष्ट कर सके और विनाशकारी तथ्यों को दूर कर सके। धारणियों को विकसित करने की इस घटना का सादृश्य उस युग की धार्मिक भावना के रूप में हिन्दू गौरव ग्रंथभगवद् गीता के आविर्भाव के रूप में देखा जा सकता है।
धर्मगुप्तक निकाय का विस्तार वर्तमान पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, ईरान, मध्य एशिया, और चीन तक हुआ। चीनियों ने भिक्षुकों और भिक्षुणियों के लिए प्रतिज्ञाओं के धर्मगुप्तक निकाय द्वारा पालन किए जाने वाले स्वरूप को स्वीकार किया। बाद की शताब्दियों में मठवासियों के लिए अनुशासन के इस प्रारूप का प्रसार कोरिया, जापान, और वियतनाम में हुआ।
चतुर्थ बौद्ध संगीति
थेरवाद और सर्वास्तिवाद निकायों ने अपनी-अपनी चौथी संगीतियों का आयोजन किया।
थेरवाद निकाय ने अपनी चौथी संगीति 83 ई.पू. में श्रीलंका में आयोजित की। बुद्ध के वचनों की व्याख्या को लेकर मतभेदों के कारण बहुत से गुटों के थेरवाद से अलग हो जाने के कारण उत्पन्न स्थिति को देखते हुए बुद्ध के वचनों का पाठ करने और उन्हें लिपिबद्ध करके उनकी प्रामाणिकता को बरकरार रखने के लिए महारख्खित और थेरवाद के पाँच सौ ज्येष्ठों ने बैठक की। यह पहला अवसर था जब बुद्ध की शिक्षाओं को लिखित रूप में दर्ज किया गया, और इस मामले में यह लेखन कार्य पालि भाषा में किया गया था। तीन पिटारों के समान संग्रहों,अर्थात त्रिपिटक के इस स्वरूप को सामान्य तौर पर पालि धर्मग्रंथ-संग्रह के रूप में जाना जाता है। हालाँकि दूसरे हीनयान निकायों ने मौखिक रूप में ही इन शिक्षाओं का प्रसार करना जारी रखा।
सर्वास्तिवाद निकाय में बुद्ध की शिक्षाओं की व्याख्या को लेकर धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार के मतभेद उत्पन्न होने लगे। सबसे पहले उत्पन्न होने वाला मतभेद वैभाषिक निकाय की पूर्वध्वनि बना। इसके बाद ईसवी सन 50 के आस-पास सौत्रान्तिक निकाय विकसित हुआ। अभिधर्म में कही गई बहुत सी बातों के बारे में इन दोनों के अपने-अपने मत थे।
इसी दौरान मध्य एशिया से युएझ़ी जाति के आक्रमण के साथ ही उत्तर भारत, कश्मीर, और अफ़गानिस्तान की राजनीतिक स्थिति में एक बड़े बदलाव का सूत्रपात हुआ। युएझ़ी लोग हिन्द-यूरोपीय जाति के लोग थे जो मूलतः पूर्वी तुर्किस्तान के निवासी थे। पश्चिम में एक विशाल क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित करने और फिर ई.पू. की दूसरी शताब्दी के अन्त में दक्षिण पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के बाद उन्होंने कुषाण राजवंश की स्थापना की जिसने लगभग 226 ईसवी तक शासन किया। अपने उत्कर्ष के समय कुषाण साम्राज्य आधुनिक ताजिकिस्तान, उज़बेकिस्तान, अफ़गानिस्तान, और पाकिस्तान से लेकर कश्मीर और उत्तर-पश्चिम भारत तक, और मध्य उत्तर भारत तथा मध्य भारत तक फैला हुआ था। इस राजवंश ने रेशम मार्ग को सिंधु नदी के मुहाने पर समुद्र पत्तनों से जोड़ा जिसके परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म अनेक प्रकार के विदेशी प्रभावों के सम्पर्क में आया। इसी प्रकार के सम्पर्क के माध्यम से बौद्ध धर्म चीन पहुँचा।
कुषाण सम्राटों में सम्राट कनिष्क सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ, कुछ स्रोतों के अनुसार उसने 78 ईसवी सन से लेकर 102 ईसवी सन तक शासन किया, जबकि कुछ स्रोत उसके शासन काल को 127 ईसवी सन से लेकर 147 ईसवी सन तक मानते हैं। दोनों ही स्थितियों में सर्वास्तिवाद निकाय ने अपनी चौथी संगीति का आयोजन कनिष्क के शासन काल में या तो उसकी राजधानी पुरुषपुरा (आधुनिक पेशावर) में या फिर कश्मीर स्थित श्रीनगर में किया। इस सभा ने सौत्रान्तिक अभिधर्म को अस्वीकार कर दिया और उसके स्थान पर महान भाष्य (संस्कृत : महाविभाष) के रूप में अपने अलग अभिधर्म को संहिताबद्ध किया। इस परिषद में सर्वास्तिवाद के त्रिपिटक संग्रहों के प्राकृत से संस्कृत भाषा में अनुवाद और इन संस्कृत ग्रंथों के लेखन का कार्य भी किया गया।
ईसवी संवत की चौथी और पाँचवीं शताब्दियों के बीच मूलसर्वास्तिवाद निकाय कश्मीर में वैभाषिक सर्वास्तिवाद निकाय की मुख्यधारा से अलग हो गया। ईसवी संवत की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तिब्बतियों ने उसके मठवासियों के विनय सम्बंधी नियमों को अपना लिया। उत्तरवर्ती शताब्दियों में इसका विस्तार तिब्बत से मंगोलिया तक और फिर मंगोलिया से रूस के तुर्की क्षेत्रों तक हो गया।
महासांघिक निकाय की शाखाएं
इस दौरान महासांघिक निकाय जो मुख्यतः दक्षिण भारत के पूर्व में स्थित था, पाँच निकायों में विभाजित हो गया। ये सभी निकाय इस बात पर सहमत थे कि अर्हतों की क्षमताएं सीमित होती हैं और बुद्धजन श्रेष्ठ हैं, और प्रत्येक निकाय ने इस दावे को और आगे बढ़ाया जिससे महायान के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ। तीन प्रमुख शाखाओं के विषय में :
•           लोकोत्तरवाद निकाय का कहना था कि बुद्ध समस्त सीमाओं से परे हैं, और उनकी काया इस लोक की नश्वर कायाओं से परे है। यही कथन बुद्ध के तीन शरीरों (त्रिकाय) के महायान के स्पष्टीकरण का आधार बना। लोकोत्तरवाद निकाय का प्रसार अफ़गानिस्तान तक हुआ जहाँ इसके मतावलम्बियों ने बुद्ध के सीमातीत होने सम्बंधी अपने दृष्टिकोण को व्यक्त करने के लिए बामियान में विशालकाय बुद्ध प्रतिमाओं का निर्माण किया।
•           बहुश्रुत निकाय का कहना था कि बुद्ध ने लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की शिक्षाएं दी हैं। इसके परिणामस्वरूप महायान बुद्ध के उत्पन्न शरीर (निर्माणकाय) और पूर्ण उपयोग वाले शरीर (सम्भोगकाय) में विभाजित हो गया।
•           चैतसिक निकाय बहुश्रुत से अलग हो गया और उसका मत था कि बुद्ध इस जगत में प्रकट होने से पहले से ही प्रबुद्ध थे और वे अपने ज्ञानोदय की लीला केवल इसलिए कर रहे थे ताकि दूसरे लोगों को मार्ग दिखा सकें। बाद में महायान ने इस मत को भी स्वीकार कर लिया।
महायान का प्रादुर्भाव
महायान सूत्र पहले-पहल ई.पू. की पहली शताब्दी और चौथी ईसवी शताब्दी के बीच आंध्र, पूर्वी दक्षिण भारत के उन क्षेत्रों में प्रकट हुए जहाँ महासांघिक निकाय फल-फूल रहा था। परम्परागत बौद्ध वृत्तान्तों के अनुसार स्वयं बुद्ध ने इन सूत्रों की शिक्षा दी थी, लेकिन इनका गुप्त प्रसार मौखिक परम्परा के माध्यम से हुआ। इनमें से कुछ को तो मानवेतर विधियों से सुरक्षित रखा गया था।
उस काल में प्रकट रूप में उपलब्ध सबसे महत्वपूर्ण महायान सूत्र निम्नलिखित थे :
•           पहली दो शताब्दियों के दौरान, व्यापक सविवेक बोध सम्बधी सूत्र (प्रज्ञापारमिता सूत्र) औरविमलकीर्ति देशनाओं से सम्बंधित सूत्र(विमलकीर्ति-निर्देश सूत्र)। प्रज्ञापारमिता सूत्र सभी परिघटनाओं की शून्यता से सम्बंधित हैं; जबकि विमलकीर्ति सूत्र में गृहस्थ बोधिसत्व का विवरण दिया गया है।
•           ईसवी सन 100 के आस-पास आनन्द की (पवित्र) भूमि की व्यूह-रचना सम्बधी सूत्र (सुखावती-व्यूह सूत्र)जिसमें अपरिमित दीप्तिमान बुद्ध, अमिताभ की पवित्र भूमि सुखावती का परिचय दिया गया था।
•           ईसवी सन 200 के आस-पास पवित्र धर्म का कमल सूत्र(सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र) जिसमें इस बात पर बल दिया गया है कि सभी में बुद्ध बनने की क्षमता है और इस प्रकार बुद्ध की शिक्षा के सभी यान कुशल साधनों के रूप में एक-दूसरे के साथ जुड़े हैं। इसकी प्रस्तुति बहुत ही भक्तिपरक है।
महायान पंथ के भीतर भी माध्यमिक और चित्तमात्र निकायों का उदय सबसे पहले दक्षिण भारत स्थित आंध्र में हुआ।
•           माध्यमिक निकाय का प्रारम्भ नागार्जुन से माना जाता है जो 150 ईसवी से 250 ईसवी के बीच आंध्र में हुए और जिन्होंने प्रज्ञापारमिता सूत्रों की व्याख्या की। पारम्परिक अनुश्रुतियों के अनुसार नागार्जुन इन सूत्रों को समुद्रलोक से निकाल कर लाए थे जहाँ नाग इनकी रक्षा उस समय से कर रहे थे जब बुद्ध ने मध्य उत्तर भारत स्थित राजगृह के निकट गृध्रकूट पर्वत पर इन सूत्रों की शिक्षा दी थी। नागआधे मनुष्य और आधे सर्प की आकृति वाले जीव होते हैं जो पृथ्वी और जलाशयों की गहराइयों में रहते हैं।
•           चित्तमात्र निकाय ने अपने दर्शन को लंका में अवतरण सम्बधी सूत्र (लंकावतार सूत्र) पर आधृत किया। हालाँकि यह सूत्र पहली बार आंध्र में प्रकट हुआ, लेकिन चित्तमात्र की शिक्षाओं को और अधिक विकसित करने का कार्य ईसा की चौथी शताब्दी के पूर्वार्ध में गंधार, जो वर्तमान मध्य पाकिस्तान में हैं, में रहने वाले असंग ने किया। असंग को ये शिक्षाएं मैत्रेय बुद्ध के दिव्यदर्शन के माध्यम से प्राप्त हुई थीं।
मठीय विश्वविद्यालयों और तंत्र का विकास
पहले बौद्ध मठीय विश्वविद्यालय, नालंदा की स्थापना ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ में राजगृह के निकट की गई। नागार्जुन यहाँ के शिक्षक थे, और उनके बाद भी महायान के बहुत से आचार्य यहाँ के शिक्षक हुए। किन्तु इन मठीय विश्वविद्यालयों का विकास विशेषतः गुप्त राजवंश की स्थापना के परिणामस्वरूप हुआ। यहाँ की पाठ्यचर्या में दार्शनिक सिद्धांतों के अध्ययन पर बल दिया जाता था और भिक्षुगण ईसा की तीसरी शताब्दी से छठी शताब्दियों के बीच विकसित हुए छह हिन्दू और जैन मतों के समर्थकों के साथ विस्तार से शास्त्रार्थ करते थे।
ईसा की तीसरी और छठी शताब्दियों के बीच तंत्र का भी उदय हुआ, पहले-पहल इसकी शुरुआत एक बार फिर दक्षिण भारत के आंध्र से ही हुई। यह गुह्यसमाज तंत्रथा। नागार्जुन ने इस पर अनेक भाष्य लिखे। बौद्ध परम्परा के अनुसार तंत्र का प्रसार भी बुद्ध द्वारा इसकी शिक्षाएं दिए जाने के समय से मौखिक परम्परा के माध्यम से ही हुआ, लेकिन यह प्रसार महायान सूत्र की शिक्षाओं के प्रसार से कहीं अधिक गुप्त रीति से किया गया।
शीघ्र ही तंत्र का विस्तार उत्तर तक हो गया। ईसा की आठवीं शताब्दी के मध्य से नौवीं शताब्दी के मध्य तक यह आधुनिक उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान स्थित स्वात घाटी के ओड्डियान (उर्ग्यान) में विशेषतः समृद्ध हुआ। सबसे बाद में लिखे गए ग्रंथ कालचक्र तंत्र की रचना ईसा की दसवीं शताब्दी के मध्य में की गई।
बौद्ध मठ के विश्वविद्यालय उत्तर भारत में पाल राजवंश के शासन काल (ईसवी सन 750 से बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक) में अपने उत्कर्ष पर पहुँचे। राज्याश्रय में विक्रमशिला जैसे अनेक नए विश्वविद्यालयों का निर्माण किया गया। इनमें से कुछ मठ विश्वविद्यालयों में, विशेषतः नालंदा विश्वविद्यालय में तंत्र के अध्ययन की शुरुआत की गई। किन्तु तंत्र के अध्ययन और साधना की समृद्धि ईसा की आठवीं और बारहवीं शताब्दियों के बीच मठों से बाहर, विशेष तौर पर चौरासी महासिद्धों की परम्परा में ही अधिक हुई। महासिद्धतंत्र के अत्यंत निष्णात साधक होते हैं।