शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों का एक वैचारिक मंच

अभिव्यक्ति के इस स्वछंद वैचारिक मंच पर सभी लेखनी महारत महानुभावों एवं स्वतंत्र ज्ञानग्राही सज्जनों का स्वागत है।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

विदर्भ किसान परेशान,सोना गिरवी रखने पर मजबूर

विदर्भ किसान परेशान,सोना गिरवी रखने पर मजबूर


अमरावती. मानसून दाखिल होने के साथ ही किसानों ने बुआई की तैयारियां शुरू कर दी है, लेकिन बैंकों से समय पर कर्ज नहीं मिलने और पुराने कर्ज का भुगतान नहीं कर पाने के चलते किसान सोना गिरवी रख रहे हैं। जिससे विदर्भ में पिछले एक सप्ताह में करोड़ों का गोल्ड लोन उठाया जा चुका है। हालांकि पिछले वर्ष की तुलना में सोने के भाव गिरने के कारण गोल्ड लोन पर 20 फीसदी घाटा उठाना पड़ रहा है लेकिन दूसरा कोई चारा नहीं रहने से किसान विवश हैं। पिछले वर्ष जून 2012 में सोने के भाव 30000 रुपये थे, जबकि वर्तमान में 27990 रुपये प्रति 10 ग्राम भाव है। बट्टा काटकर 75 फीसदी रकम सोने के दाम में चढ़ाव-उतार का दौर शुरू रहने से विदर्भ के सभी जिला व तहसील मुख्यालयों में सराफा दुकानों पर ग्राहक की मंदी है, लेकिन सोना गिरवी रखने वालों की भीड़ दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। पश्चिम विदर्भ के अमरावती अकोला बुलढाना यवतमाल वाशिम जिलों के साथ ही पूर्व विदर्भ के नागपुर, चंद्रपुर, भंडारा, गोंदिया, वर्धा व गडचिरोली में सराफा दुकानों पर पिछले एक सप्ताह से गिरवी रखने वालों की संख्या में बढ़ोतरी देखी जा रही है। अमरावती में एक सराफा व्यापारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि बट्टा काटकर वर्तमान दरों के अनुसार गिरवी पर 75 प्रतिशत गोल्ड लोन दिया जा रहा है।
 1 लाख से कम गिरवी पर 3 प्रतिशत व 1 लाख से अधिक गिरवी पर पौने 2 टका ब्याज के हिसाब से यह गोल्ड लोन दिया जा रहा है। गिरवी की भीड़को देखते हुये सराफा की एक दुकान पर एक दिन में 1 से 2 करोड़ रुपये भी कम पड़ रहे हैं। शासन नहीं ले रही सुध जिला मुख्यालय ही नहीं तो परतवाड़ा जैसे तहसील स्तरों पर भी यही हाल है। इससे आंकलन लगाया जा सकता है, कि विदर्भ में हजारों करोड़ों रुपये का गिरवी रखा जा रहा है। इसमें निजी साहूकारों की हिस्सेदारी भी पकड़ ली जाए तो किसानों की क्या गत हो रही है, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। राज्य का खुफिया विभाग भी इससे अनजान नहीं है, जिसकी भनक शासन को भी लग चुकी है। उसके बाद भी बैंकों से फसल कर्ज सुलभ बनाने के लिये प्रत्यक्ष रूप से कोई पहल नहीं की जा रही है। केवल बैंक व राजस्व अधिकारियों के साथ बंद कमरे में मीटिंग लेकर हजारों करोड़ के क्राफ्ट लोन का लक्ष्य सामने रखकर नियोजन के नाम पर केवल खानापूर्ति की जा रही है। आज पूरे देश में मोदी आडवाणी राहुल के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की पड़ी है, वही विदर्भ के किसान अमानत गिरवी रखने को मजबूर किसानों को बैंक से कर्ज मिल रहा है या नहीं।  इस पर चर्चा करने की भी फुर्सत भाजपा को राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नहीं मिली।  लक्ष्य 498 करोड़ बांटे 264 करोड़ अमरावती जिला सहकारी बैंक ने इस वर्ष फसल कर्ज का लक्ष्य 498 करोड़ रखा है जिसमें से 13 जून 2013 तक 37195 किसानों को कुल 264 करोड़ का फसल कर्ज जिला बैंक वितरित कर चुकी है।  प्रबंधक जेसी राठोड़ के अनुसार खरीफ व रबी के लिये यह कर्ज बांटा गया है। अब लक्ष्य के अनुसार केवल 30 प्रतिशत कर्ज बांटना शेष रह गया है। किसानों की अनदेखी : तिवारी विदर्भ जनांदोलन के अध्यक्ष किशोर तिवारी के अनुसार सरकार की अनदेखी के कारण  ही आज किसानों पर यह नौबत आई है कि वे अपने घर  का श्रीधन  गिरवी रखने पर विवश हो रहे हैं।  इस क्रम में केवल दो वर्षों में एक अकेले बुलढाना क्रेडिट सोसायटी ने 2 टन का सोना गिरवी रखकर गोल्ड लोन दिया है। हालांकि आरबीआई के नये नियमों के अनुसार क्रेडिट सोसायटी को गोल्ड लोन देने का अधिकार नहीं है, लेकिन बावजूद इसके नियमों का उलंघन किया जा रहा है। बुलढाना जिला सहकारी बैंक डूब चुकी है।  नेशनल बैंकों द्वारा लक्ष्य के अनुसार क्राफ्ट लोन नहीं दिया जा रहा। ऐसे में किसानों पर बुआई आदि के लिये अब ले देकर सोना गिरवी रखने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बचा है। जबकि किसानों को सरकार फसल क़र्ज़ मिलने की केंद्रीय वित्तमंत्री चिदंबरम की घोषणा  के बाद बैंक किसानों को अपने दरवाजे पर भी खड़ी नहीं कर रही है।  फिर भी सरकार कुंभकर्णी नींद ले रही है।

(लेखक – रामशंकर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में पीएच.डी. जनसंचार  शोधार्थी एवं ICSSR रिसर्च फ़ेलो हैं ।)

शनिवार, 9 नवंबर 2013

महिला जागरूकता और वैकल्पिक मीडिया

वर्तमान में वैकल्पिक मीडिया महिलाओं के सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। बाल विवाह अधिनियम की बात करें या पत्नी के भरण पोषण या विधवा गुजारा भत्ते की स्त्रियां जागरूक हो रही हैं। उन्हें महिला हिंसा कानून, समान वेतन कानून, गोद लेने संबंधी कानून और संपत्ति में स्त्री के अधिकार की जानकारी सहित ऐसे अनेक उपमों का ज्ञान है जो उनके जीवन को सही दिशा दे सकते हैं। अपने जीवन की विभिन्न समस्याओं को बेहतर ढंग से सुलझाने की क्षमता उनमें निरंतर विकसित हो रही है। वे प्रारंभ से ही मेधा संपन्न रही हैं, लेकिन उनमें जागरूकता का अभाव रहा है। आत्मविश्वास की कमी भी उनकी उन्नति के मार्ग का रोड़ा रही है। वैसे तो संचार माध्यम समाज के विकास में बहुत सहायक हैं। परंतु महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में बात करते समय संचार के वैकल्पिक माध्यमों की सशक्त भूमिका को सर्वोपरि मानना होगा। आज समूचे विश्व में स्त्रियों का वर्चस्व बढ़ा है। शिक्षा, राजनीति, विज्ञान, कला, मनोरंजन-हर क्षेत्र में स्त्रियां अपनी प्रतिभा उजागर कर रही हैं। उनकी पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई दे रहा है। नि:संदेह हाल के दो दशकों में महिला हिंसा की घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है। परंतु इसी अवधि में महिलाओं ने विश्व में कीर्तिमान भी स्थापित किए हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। महिला के प्रति हिंसा, यौन उत्पीड़न, दहेज प्रताड़ना जैसी घटनाएं पहले से घटती आ रही हैं। परंतु वैकल्पिक मीडिया ने उनमें वह चेतना जगाई है जिसके कारण अब वे अत्याचार के वैकल्पिक मीडिया मुखर हो रही हैं और सरकार को भी उनके हित में कानून बनाने के लिए तत्पर होना पड़ रहा है।
वैकल्पिक मीडिया से आशय ऐसी मीडिया (समाचार पत्र-पत्रिका, रेडियो, टीवी सिनेमा व इण्टरनेट आदि) से है,जो मुख्य धारा की मीडिया के संदर्भ में वैकल्पिक जानकारी प्रदान करती है। वैकल्पिक मीडिया को मुख्य धारा मीडिया से हटकर देखा जाता है। मुख्यधारा के मीडिया वाणिज्यिक, सार्वजनिक रूप से समर्थित या सरकार के स्वामित्व वाली हैं। वैकल्पिक मीडिया के अंतर्गत उन खबरों को प्रसारित किया जाता है,जिन्हें मुख्यधारा मीडिया के मीडिया में स्थान नहीं दिया जाता और वे जन सरकारों से पूर्णतः जुड़ी होती है।3 प्राचीन काल में डुग्गी व मुनादी के माध्यम से खबरों का प्रसारण किया जाता था। औद्योगिक व विज्ञान के विकास ने संचार का  चेहरा बदल दिया है, जिसमें मुनादी, डुग्गी आज की शैली में पम्फ्लेट, पोस्टर व भित्ति चित्र में बदल गये है। आज ज्यों ही हम मीडिया की बात करते है ,हमारे जेहन में त्यों ही चौबीस घंटे पोपट की तरह बोलने वाले तमाम समाचार चैनल व अखबार घूम जाते है,जो दिन भर एक्सक्लूसिव के नाम पर अपना राग अलापते रहते हैं । इस भागमभाग की स्थिति ने हमें तमाम समाचारों से वंचित कर दिया है । यही आज मुख्य धारा का मीडिया कहलाता है।
वैकल्पिक मीडिया को व्यापक रूप में फैलाने में मुख्यधारा के मीडिया की अहम् भूमिका है। प्रतिवाद, जागरूकता और मीडिया एक दूसरे से अंतर्गृंथित हैं। प्रतिवाद बोलकर भी होता है और बिना बोले भी।6 जब मुख्य धारा की मीडिया में जन सामान्य की बात को भुलाया जाने लगा और मसालेदार, औचित्यविहीन ख़बरें परोसी जाने लगी और साथ ही साथ जनता की अभिव्यक्ति को जन माध्यम में रोका जाने लगा। अखबारी खबरों पर संदेह किया जाने लगा, तब शनैः शनैः वैकल्पिक मीडिया का उत्थान इस सूचना युग में हुआ। यह वह संचार माध्यम का स्वरूप हो गया जो बार-बार  मुख्य धारा की मीडिया के साथ खड़ा होने की कोशिश करता है।

महिलाएं अपने अस्तित्व की लड़ाई लंबे समय से लड़ती आ रही हैं, लेकिन इसने अभियान का रूप नहीं लिया था। महिलाओं के पक्ष में जमीन तैयार करने में सामुदायिक रेडियो, लघु पत्र-पत्रिकाओं की सबसे अधिक भूमिका रही है। क्योंकि वह आम आदमी तक पहुंचने का सर्वसुलभ सस्ता माध्यम है। 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन के परिणामस्वरूप देश की ग्रामीण एवं नगरीय स्वशासी संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था ने उन्हें अधिकार-संपन्न तो बनाया किंतु जब हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और मध्यप्रदेश के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों ने सामाजिक बुराइयों एवं अन्याय के विरूद्ध आवाज बुलंद कर उन पर विजय पाई, तो वैकल्पिक मीडिया ने ही समाज में यह आस जगा दी कि सभी विसंगतियों के खिलाफ स्त्रियों की एकजुटता सचमुच क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है। 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

शोध संबन्धित प्रश्नावली

आप सभी मित्रों महानुभावों से विनम्र निवेदन है कि मेरे शोध में प्रश्नावली को भरकर अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करने कि कृपा करें । प्रश्नावली को भरने ले लिए दिये गए url पर क्लिक करें ।https://docs.google.com/forms/d/1XEcxH4taD4lz4WKfhR7s4GSQHWMtpcMcu4o3qBVVlLQ/viewform?sid=412028cbf3270de8&token=7d6gCD4BAAA.ANTXjzXYI3FAdIHBRjZ-jg.dsWc9GcbsI8QMjrRP7Oikg

बुधवार, 10 जुलाई 2013

उदारीकरण एवं वैश्वीकरण का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव

भारतीय समाज विविधतायुक्त समाज है, जिसमें बहुत से धर्म,जाति,भाषा ,क्षेत्र , रीति-रिवाज व परंपरा का समिश्रण है । अन्य समाजों की तरह भारतीय समाज भी पितृसत्तात्मक समाज है जिसमें सांस्कृतिक व धार्मिक आधार पर तो स्त्रियाँ सम्मानित, पूज्यनीय देवी स्वरूप है लेकिन व्यवहरिक  धरातल पर महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है । भारतीय महिलाओं की सामाजिक संरचना में निर्धारित प्रस्थिति के कारण उनमें शिक्षा का अभाव, सामाजिक आर्थिक भौतिक संपदाओं पर उनकी सहभागिता बहुत ही कम होती है । वे न केवल आर्थिक सामाजिक वंचनाओं की शिकार होती हैं वस्तुतः पूरा नारी समाज असमानता व पिछड़ेपन का शिकार है । उनके साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव के कारण उनकी हैसियत समाज में निम्न है ।
वर्तमान में विश्व के विकसित और विकासशील देशों में ग्रामीण महिलाएं मूख्य भूमिका अदा कर रही हैं। भारत में उदारीकरण का दौर शुरू होने पर महिलाओं की स्थिति में तेजी से परिवर्तन देखने को मिला। देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के फैलाव ने बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार दिया जिनमें महिलाओं की संख्या भी उल्लेखनीय रही। नए प्रौद्योगिकी और शिक्षा के प्रसार ने महिलाओं के प्रति समाज की सोच में बदलाव लाना शुरू किया उनकी सामाजिक स्थिति के साथ -साथ आर्थिक स्थिति भी मजबूत हुई। आज सरकार और उद्योग पूरे ज़ोर से विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित करने में लगे हैं लेकिन उदारीकरण व ढांचागत समायोजन नीतियों के प्रभाव के अध्ययन के संदर्भ में हमें ध्यान रखना होगा कि भारत एक तीसरी दुनिया का देश है और काफी समय तक उपनिवेश रहा है ।
भारत सरकार की ओर से ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए वर्तमान में कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, उनमें प्रमुख रूप से राष्ट्रीय महिला साक्षरता मिशन, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार मिशन, राजीव गांधी किशोरी सशक्तिकरण योजना, जननी सुरक्षा योजना, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शामिल हैं। इसके अलावा महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सरकार ने वर्ष 1990 में एक बड़ा कदम उठाया। इस वर्ष सरकार ने राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की जो महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा और उन्हें अपनी भूमिका के प्रति जागरूक करती है।
हाल के वर्षों में उदारीकरण व ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों को हर आर्थिक समस्या के हल के रूप में देखा जा रहा है । “उदारीकरण का अर्थ है आद्योगिक विनिमय और बाज़ार का पूरी तरह खोला जाना जिससे कि अर्थ व्यवस्था में सरकार के बजाय बाजारी शक्तियाँ हावी हो जाएँ । बाज़ार को सुरक्षित रखने तथा आयात के विकल्प खोजने के बजाय महसूस किया गया कि भारतीय अर्थव्यवस्था को निर्यातोन्मुखी बनाया जाय।[1] उदारीकरण में निहित है- विदेशी व्यापार का उदारीकरण,चुंगी व कर में कमी, खासकर कृषि उत्पादों के निर्यात से सारे प्रातिबंध हटाना ।
          उदारीकारण के लगभग दो दशकों के बाद भूमंडलीकरण की आंधी ने जहां कुछ प्रतिशत महिलाओं को फायदा पहुंचाने का काम किया उससे कहीं अधिक प्रतिशत महिलाओं को विश्व व्यापार की शर्तों के थपेड़ो ने उनकी पारंपरिक आजीविका के साधनों को छीनकर उन्हें अर्थ व्यव्स्था से बाहर करने पर भी मजबूर किया है। पहले से ही सामाजिक असमानता के माहौल में जीती भारतीय महिलाओं पर भूमंडलीकरण का प्रतिकूल असर अधिक नजर आता है। हमारे देश की आर्थिक व्यव्स्था में महिलाओं का सबसे अधिक योगदान कृषि के क्षेत्र में है। यहां अधिकतर खेतिहर कार्य महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। महिलाओं का ज्ञान और उनकी निपुणता बीजों की सुरक्षा, खाद्य उत्पादन और फसलों की विविधता और खाद्य प्रोसेसिंग में काम आती है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत कृषि पर कारपोरेट जगत का दबदबा बढ़ा है। जो खाद्य सुरक्षा महिलाओं के काम पर निर्भर करती है उसे कारपोरेट संबंधित खाद्य संस्कृति ने पीछे धकेल दिया है। ट्रिप्स ( व्यापार संबंधित बौद्धिक संपति अधिकार) समझौते के तहत ग्रामीण महिलाओं से बीज और जैव विविधता का ज्ञान छीनकर ग्लोबल कंपनियों के हाथों चला गया है।
          वर्ष 2005 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने भूमंडलीकरण के कृषि पर होने वाले प्रभावों पर कराए एक अध्ययन में कहा था कि विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि पर समझौता अनुचित और असमान है और इससें कृषि में कार्यरत महिलाओं पर नकारात्मक बदलाव आया है। कारपोरेट आधरित कृषि ने महिलाओं को उनकी खाद्य उत्पादन और खाद्य प्रस्संकरण की जीविका से बेदखल करने का काम किया है। यह सही है कि ग्लोबलाइजेशन ने अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं को रोजगार के असीम अवसर प्रदान किए है। जो महिलाएं परिवार की देखभाल में समय बिताती थीं उन्हें श्रम प्रधान इन इकाइयों में काम करने का अवसर मिला लेकिन इस प्रक्रिया ने महिलाओं से उनके काम के बुनियादी अधिकार छीन लिए। 1990 से शुरू हुए एसएपी (ढांचागत समयोजन) कार्यक्रम के तहत कई विदेशी कंपनियों ने अपने निर्यात उध्योगों जैसे कपड़ा, खेल का सामान, फूड प्रोसेसिंग, खिलौनों की इकाईयों को भारत में खोलकर महिलाओं को सस्ता श्रम मानते हुए उन्हे अधिक से अधिक काम पर रखा। लेकिन असुरक्षित माहौल और दमघोंटू काम की स्थितियों ने महिलाओं को गुलाम वेतनभोगीबनाने का काम अधिक किया। नौकरियां मिलीं लेकिन न तो युनियन बनाने के अधिकार और न ही अपने अधिकारों के खिलाफ लड़ने या आवाज उठाने के अधिकार मिल सके। काम की उचित कल्याणकारी सरकारी नीतियों के अभाव ने इन महिलाओं को बदहाल और गुलाम बनाने वाली कार्य स्थितियों में भी काम करने का आदी बना दिया है।
          इस प्रक्रिया ने गरीबी के स्त्रीकरणको अधिक प्रोत्साहित किया है। एक अनुमान के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई घंटे काम करती हैं । लेकिन विश्व की केवल दस तिहाई आय अर्जित करती हैं  और विश्व की केवल एक प्रतिशत संपति की मालकिन हैं । ग्लोबलाइजेशन के चलते आर्थिक और सामाजिक स्तर पर आगे बढ़ने के रास्ते खुलने का कुछ हद तक लाभ शहरों की शिक्षित अधिकार संपन्न महिलाओं को हुआ। लेकिन यहां भी फायदा उन्हीं महिलाओं को मिला जो संगठित क्षेत्रों की कंपनियों में बेहतर कार्य शर्तों पर काम करने की स्थिति में अधिक थीं। संचार माध्यमों के विस्तार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, मीडिया के विस्तार और विश्व स्तरीय संस्थाओं के भारत में खुलने से महिलाओं को समान अवसर और अपने अधिकारों के प्रति जागृत करने का काम किया है। इस से महिलाओं के स्तर में बदलाव लाने की कुछ हद तक कोशिश भी सफल हुई। गैर सरकारी संगठनों के आने से महिलाओं में साक्षरता और वोकेशनल प्रशिक्षण का लाभ भी मिला है। लेकिन खुले बाजार से पैदा हुई उपभोक्ता संस्कृति का शिकार भी महिलाएं बनीं। इस संस्कृति ने महानगरों से लेकर छोटे शहरों की महिलाओं को महज उपभोक्ता और उत्पादक बनाने का काम अधिक किया है। ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया ने विकास के नए आयाम बनाए हैं लेकिन लाभों के असमान वितरण से आर्थिक असमानता बढ़ी है।
          वर्ष 2000 में बीजिंग प्लस 5 परिपत्र में 1995 में हुए संयुक्त राष्ट्र महिला सम्मेलन के बाद से हुई प्रगति का आकलन करते हुए कहा गया है कि ग्लोबलाइजेशन कुछ महिलाओं को अवसर प्रदान करता है लेकिन बहुत सी महिलाओं को हाशिये पर भी धकेलता है इसलिए समानता के लिए उन्हें मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। ग्लोबलाइजेशन के मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए यह स्पष्ट है कि इससे समान रूप से महिलाओं का भला होने वाला नहीं। ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है जो महिलाओं की कार्यक्षमता को बढ़ाने और भूमंडलीकरण के नकारात्मक सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का सामना करने के लिए उन्हें सशक्त बनाने का काम करे। भूमंडलीकरण का महिलाओं का उचित लाभ पहुंचे इसके लिए रोजगार की नीतियां को दुबारा तैयार करना होगा। ऐसे अवसरों का निर्माण करना होगा जिसमें महिलाएं विकास की प्रक्रिया में भागीदार बने। इसके लिए ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया के स्वरूप को बदलने की जरूरत है ताकि महज लाभपर केंद्रित नीतियों की बजाय ऐसी नीतियां बने जो लोगों पर केंद्रित हों और महिलाओं के प्रति अधिक जवाबदेह हो ।



[1] साधना आर्य, निवेदिता मेनन,जिनी लोकनीता : नारीवादी राजनीति, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली 

शनिवार, 6 जुलाई 2013

विद्यार्थी ब्लॉग : वर्तमान राजनीति में गांधी के विचारों की प्रासंगिकत...

विद्यार्थी ब्लॉग : वर्तमान राजनीति में गांधी के विचारों की प्रासंगिकत...: गाँधीजी प्रेम को लोकतंत्र का सच्चा आधार मानते है , उनके विचार में प्रेम लोकतंत्र के विकास में निर्णायक भूमिका निभाता है। इसके अलावा स्वयं ...

वर्तमान राजनीति में गांधी के विचारों की प्रासंगिकता

गाँधीजी प्रेम को लोकतंत्र का सच्चा आधार मानते है, उनके विचार में प्रेम लोकतंत्र के विकास में निर्णायक भूमिका निभाता है। इसके अलावा स्वयं व्यक्ति का अच्छा होना, अहिंसा व नैतिकता के नियमों का पालन आदि को भी वे लोकतंत्र के विकास में सहायक मानते हैं। गाँधीजी के इन विचारों से उन लोगों को छोडकर जिन्हें लोकतन्त्रिय शासन में विश्वास नहीं है, शायद ही कोई इन्कार कर सकता है। गाँधीजी के विचारों से यह भी स्पष्ट होता है कि पश्चिम में लोकतत्र के सफल न हो सकने का कारण संस्थाओं की पूर्णता उतनी ही है, जितनी सिद्धान्तों की अपूर्णता है। विशेष रूप से हिंसा और असत्य की उपयोगिता म विश्वास । लोकतंत्र उन गलत विचारों और आदर्शो से विकृत होता हैं। जो मनुष्यों का संचालन करते हैं यदि जनता ने शुद्ध अहिंसा के मार्ग को अपनाया तो लोकतंत्रवादी राज्य के ये दोष बहुत कम हो जायेंगे। गाँधीजी ने विश्वास प्रकट किया कि लोकतंत्र का विकास, बल प्रयोग से नहीं हो सकता । लोकतंत्र की सच्ची भावना बहार से नहीं अपितु भीतर से उत्पन्न होती है। कानून पास करने से बुराइयां दूर नहीं की जा सकती, मूल बात तो यह है कि हृदय को बदला जाये । यदि हृदय बदले बिना व्यवस्थापन कर दिया जाये तो महत्वहीन होगा । कानून सदैव आत्मरक्षा के लिये बनाये जाने चाहिए यदि वे उन्नति और विकास को रोकते हैं तो वे बेकार हैं, कोई भी मानवीय कानून स्थायी रूप से व्यक्ति के लिए बाध्यकारी नहीं हो सकते। गाँधीजी की पुस्तक हिन्द-स्वराज्यके अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वे संसदीय लोकतंत्र के पक्ष में नही थें । उनके मत में – जिसे आप पार्लियामेंट की मॉकहते है, वह तो बांझ और वेश्या है। ये दोनों शब्द कठोर हैं पर उस पर पूरी तरह चरितार्थ होते है। उसे बांझ मैं इसलिए कहता हूं कि अब तक उसने एक भी अच्छा काम अपने आप नहीं किया। उसकी स्वाभाविक रूप से ऐसी स्थिति है कि उसके ऊपर दबाव देने वाला कोई न कोई हो तो वह कुछ भी न करे और वैश्या वह इसलिए है कि जो मन्त्रीमण्डल वह बनाती है उसके वश में रहती है।‘‘ इसके अलावा उसका कोई एक मालिक मुख्तार भी नहीं है। उसका मुखिया कोई एक आदमी हो ही नहीं सकता। उसका मुखिया जब कोई बनता है जैसे कि प्रधानमंत्री, तब भी उसकी चाल एक सी नही रहती। जो दुर्गति वेश्या की होती है वही सदा उसकी रहती है। प्रधानमन्त्री को संसद की चिन्ता अधिक नहीं होती, वह तो अपनी शक्ति के मद में चूर रहता है, उसका पक्ष कैसे जीते इसी की चिन्ता उसे रहती है। संसद ठीक काम कैसे करे इसकी फिक्र उसे ज्यादा नहीं होती। अपने पक्ष का बल बढाने के लिए वह संसद से कैसे कैसे काम करवाता है। गाँधीजी के से विचार आज के सन्दर्भ में पूर्णतया सत्य प्रतीत होते हैं। प्रायः देखा गया है कि संसदीय प्रजातंत्र में दलगत राजनीति कार्य करती है, जिसमें जनता के प्रतिनिधि होते हैं परन्तु वास्तव में उसकी कर्त्तव्यनिष्ठा अपने परिवार या अपनी पार्टी तक ही सीमित रहती है। जनता के कल्याण के लिए वे कुछ भी नहीं कर पाते । जो जिस दल का सदस्य होता है उसी को आँख मूंद कर वोट कर देता है, अथवा देने को मजबूर है। कोई इस नियम का अपवाद बन जाए तो समझ लीजिए कि उसकी सदस्यता के दिन पूरे हो गए। जितना समय और पैसा संसद बरबाद करती है उतना समय और पैसा थोडे से भले आदमियों को सौंप दिया जाय तो उद्धार  हो जाय । एक ब्रिटिस संसद सदस्य ने तो यहां तक कह दिया कि संसद इस लायक नहीं रही कि कोई सच्चा ईसाई उसका सदस्य हो सके। एक अन्य सदस्य का कहना था कि संसद तो अभी दूध पीती बच्ची हैं । इस पर बच्चा सदा बच्चा ही बना रहे ये बात क्या आपने देखी है। सात सौ साल हो जाने पर भी संसद बच्ची ही बनी है तो सयानी कब होगी? इसी कारण संसद में बहुत अधिक अस्थिरता पाई जाती है और यही करण है कि उसके फैसलों में कोई पक्कापन नहीं होता । आज का फैसला कल रद्द कर दिया जाता है। सम्भवतः एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि संसद ने कोई काम करके उसे अन्त तक पहुंचाया हो । यही नहीं संसद क सदस्य महत्वपूर्ण और बडे मसलों पर विवाद के समय बैठे-बैठे ऊंधा करते है, कभी संसद में वे इतना शोर मचाते हैं कि सुनने वालों की हिम्मत टूट जाती है। भारत की संसद में तो अनेक बार संसद सदस्यों द्वारा गाली-गलौंच छीना-झपटी, एक दूसरे के कपडे फाड देना, माईक व पेपरवेट फेंकना, टेबल उलट देना जैसी घटनाएं देखी गई हैं। जिससे हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। क्या यही वे सदस्य हैं जो सरकार में हमारे प्रतिनिधी हैं? संक्षेप में संसद न तो किसी के प्रति वफादार होती है और न उसमें सृजन की क्षमता ही होती है। इसने कभी कोई अच्छा काम नहीं किया ।
            गांधीजी के मत में ब्रिटिश प्रजातंत्र में समस्त जनता के कल्याण का भार कुछ चुने हुए प्रतिनिधि ले लेते हैं। इसमें जनता प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी हाथ नहीं बंटा पाती है। सम्पूर्ण जनता वास्तव में अपने कल्याण के लिए राज्य के प्रतिनिधियों की गुलाम हो जाती है, उनका शोषण होता है। अतः गाँधीजी की राय में यह पद्वति हिंसा से पूर्ण है। उसमें नाजीवाद और फांसीवाद उपनिवेशवादी नीति को ढकने का एक बडा आवरण है। इसकी सभी संस्थाएं अलोकतांत्रिक तथा  हिंसा से पूर्ण है। अतः ब्रिटिश लोकतंत्र उपयोगी पद्वति नहीं है। गांधीजी का यह मत कुछ अंशो में सत्य माना जा सकता है। यह सत्य है कि संसद के सदस्य कठोर दलीय अनुशासन में बन्धें होते हैं और उनका सम्पूर्ण व्यहवार अपने अपने दल के नेता के इशारे द्वारा निर्धारित होता है किन्तु गाँधीजी की इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि संसद ने भी कोई अच्छा काम नहीं किया । भले ही संसद के सदस्य ने जनभावनाओं को अभिव्यक्त कर उसकी स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा की है। यह कहना भी सत्य नहीं है कि संसद के सदस्य दलगत राजनीति से प्रेरित और सदैव दलीय नेता के इशारे पर कार्य करते रहे है। ब्रिटेन और भारत में ऐसे अनेक अवसर आये हैं जब संसद के सदस्यों ने दलीय राजनीति से प्रेरित होकर नहीं बल्कि अपने विवेक और अन्तरात्मा की आवाज के आधार पर कार्य किया है। १९७५ में प्रधानमन्त्री स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा लगाये गए आपातकाल के अवसर पर जब देश के विभिन्न भागों में जनता के साथ ज्यादतियां हुई तो स्व. श्रीमती गांधी के दल (कांग्रेस आई) के ही कुछ सदस्यों ने असन्तोष प्रकट करते हुए श्रीमती गाँधी के इस कदम की न केवल आलोचना ही कि बल्कि अपने अपने पदों से त्यागतत्र भी दे दिये ।

             १९८९ से लेकर वर्तमान तक ऐसे अनेक अवसर आये जब संसद सदस्यों ने अपने विवेक और अन्तरात्मा के अनुसार कार्य किया है, न कि दलीय नेता के इशारे पर । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि गाँधीजी संसदीय लोकतंत्र के विरोधी हैं। वे लाकतंत्र के जिस रूप का सर्मथन करते हैं वह आदर्श लोकतंत्र है। ऐसा आदर्श  लोकतंत्र जो सभी आभावों व हिंसा से पूर्ण मुक्त हो, अपने आदर्श  लोकतंत्र में वे राजनीतिक अधिकारों, आर्थिक समानता तथा सुरक्षा को अत्यधिक महत्व देते हैं किन्तु इस पर भी वे इनको लोकतंत्र का मूल तत्त्व स्वीकार नहीं करते थे। वे इनको लोकतंत्र का केवल बाह्य ढांचा प्रतीक ही समझते थे। उनके मतानुसार कोई भी समाज लोकतंत्र का सुखभोग केवल उसी सीमा तक कर सकता है जहां तक कि उसके सदस्यों को आन्तरिक स्वतंत्रता अथवा अपनी इच्छाओं तथा भावनाओं को विवेक के अनुसार नियन्त्रित करने की क्षमता प्राप्त होती है। यह आन्तरिक स्वतंत्रता भीतर से विकसित होती है, इसे बाहर से थोपा नहीं जा सकता। इसलिये लोकतंत्र की भावना भी भीतर से विकसित होती है, इसे वयस्क मताधिकार, चुनाव तथा संसद जैसे बाह्य संस्थाओं द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता । उनके अनुसार पश्चिम में लोकतन्त्र की विफलता का कारण वहां पूंजी वाद व उसक यन्त्रों में कुछ दोषों का होना नही था बल्कि उसका वास्तविक कारण यह भी था कि जनगण अपने भीतर आन्तरिक स्वतंत्रता को विकसित नहीं कर पाये। उनका विश्वास था कि जिस समाज के सदस्यों में आन्तरिक स्वराज्य की भावना उत्पन्न नहीं हो जाती वे एक सच्चे लोकतंत्र की स्थापना नहीं कर सकते । आज के सन्दर्भ मे गाँधी के उपर्युक्त विचार सत्य प्रतीत होते हैं। निःसन्देह थोपा गया लोकतंत्र कभी भी स्थायी और सफल नहीं हो सकता । जब तक जनता स्वयं लोकतान्त्रिक भावना की आत्मानुभूति नहीं कर लेती, लेाकतंत्र केा प्रबल समर्थन नहीं मिल सकता। केवल निर्वाचन में खडा होने या मत देने के अधिकार से ही लोकतंत्र की सफलता को मापा नहीं जा सकता। अक्सर निर्वाचन के समय मतदाताओं की उदासीनता देखी गई है । इस प्रकार विषय पर एक विशद अध्ययन की आवश्यकता है । 

रविवार, 17 मार्च 2013

दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में सम्प्रेषण माध्यमों की प्रासंगिकता



            सीखो अथवा नष्ट हो जाओप्रख्यात शिक्षाविद ए.जे. टोयनबी का यह कथन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में और अधिक प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि द्रुतगामी  विकास और प्रतिस्पर्धा के युग में यदि नागरिक वर्तमान चुनौतियों और माँग के सन्दर्भ में स्वयं को सूचनायुक्त, सजग और दक्ष नहीं बनाते हैं तो वे विकास की मुख्य धारा से वंचित हो जाते हैं। यदि किसी राष्ट्र में यह स्थिति लम्बे समय तक बनी रहती है तो सम्पूर्ण सभ्यता ही नष्ट हो जाती है। अतः निरन्तर सीखते रहने की जिज्ञासा और प्रवृत्ति को मानव की प्रगति और अस्तित्व के लिये अपरिहार्य माना गया है। निरन्तर सीखने और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिये शिक्षा आवश्यक है। शिक्षा मनुष्य को स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने और निर्णय लेने के योग्य बनाती है। इसीलिये कहा गया है ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ शिक्षा मनुष्य के ज्ञान, अभिवृत्ति और व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन करती है और उसको समाजोपयोगी अंतर्दृष्टि प्रदान कर लक्ष्य के प्रति क्रियाशील बनाये रखती है। डा. एस. राधाकृष्णन ने कहा है कि - ‘‘शिक्षा को मनुष्य और समाज का कल्याण करना चाहिये। इस कार्य को किए   बिना शिक्षा अनुर्वर और अपूर्ण है। ’’[1]
            शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। यह विकास का मूलाधार है।  किसी भी राष्ट्र का विकास शिक्षा के अभाव में असम्भव है चाहे वह राष्ट्र कितने ही प्राकृतिक संसाधनों से आच्छादित क्यों न हो। आज के बदलते परिवेश में परिवर्तन की धारा ने शिक्षा को विशेष रूप से प्रभावित किया है। जहाँ एक ओर मानवीय सम्बन्धों में बदलाव आया है, वहीं विज्ञान के बढ़ते चरण ने शिक्षा की दशा व दिशा दोनों ही परिवर्तित किये है। वैज्ञानिक आविष्कारों से प्रत्येक क्षेत्र में युगान्तकारी परिवर्तन हुए है। मनुष्य ने तकनीकी उन्नति के माध्यम से स्वयं का जीवन उन्नत किया है। ‘’दूर शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा की आधुनिक प्रणाली हैं । इसमें संस्थान, शिक्षक तथा छात्र का सम्पर्क बहुत कम या नही के बराबर होता हैं । यह पत्राचार, सम्पर्क कार्यक्रमों, जन संचार के साधनों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती हैं । दूर शिक्षा में पत्राचार ग्रह-अध्ययन, मुक्त अध्यन, परिसर मुक्त अध्यन आदि सम्मिलित हैं दूर शिक्षा शब्द का प्रयोग सन् १९८२ से शुरू हुवा । जब चार दशक पुरानी इन्टर नेशनल कौन्सिल फॉर कोरस्पोन्डेन्स एजुकेशन(ICCE) ने अपना नाम बदल कर इन्टरनेशनल कौन्सिल फॉर डिस्टेन्स एजुकेशन(ICDE) रख लिया। दूर शिक्षा मूलतः एसे बालकों/बालिकाओं तथा प्रौढों के किए हैं जो विभिन्न कारणों से नियमित रूप से औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकें और वर्तमान दशा में समयाभाव और अधिक आयु हो जाने के कारण नही कर सकते हैं । [2]
            महात्मा गाँधी के अनुसार ‘‘शिक्षा से अभिप्राय मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम  अंश की अभिव्यक्ति है’’। अतः किसी भी राष्ट्र के लिये नागरिकों को शिक्षित बनाना उसके लिए एक प्रकार से दीर्घकालिक निवेश की प्रक्रिया है। शिक्षित नागरिक कुशल मानव संसाधन के रूप में राष्ट्र के सामाजिक आर्थिक विकास में अधिकतम योगदान कर सकते हैं। समाज को उच्च शिक्षण संस्थाओं से अधिक अपेक्षायें हैं। 1986 की नई शिक्षा नीति के अनुसार ‘‘उच्चशिक्षा लोगों को जटिल सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं को मानवीय रूप में सामने रखने का अवसर प्रदान करती है। यह विशिष्ट ज्ञान एवं प्रशिक्षण द्वारा राष्ट्रीय विकास में योगदान देती है। अतः हमारे लिये आवश्यक तत्व है।’’ किन्तु इसी से सम्बद्ध यह पहलू भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि लम्बे समय तक उच्च शिक्षण संस्थायें अनौपचारिक व अन्य प्रसार कार्यक्रमों के माध्यम से अपने चारो ओर के समुदाय के विकास के लिये सचेत और सक्रिय नहीं रहीं हैं।
उच्च शिक्षा के  प्रसार में दूर शिक्षा  का महत्व
            भारतीय परिपे्रक्ष्य में शिक्षा को व्यापक स्तर पर लाने हेतु दूरस्थ शिक्षा अग्रणी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि बिखरी हुई जनसंख्या का वृहत क्षेत्र शिक्षा से अहूता है। जन-जन तक शिक्षा की ज्योति पहुँचाने हेतु प्रौद्योगिकी की अग्रणी भूमिका है। दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में सूचना सम्प्रेषण तकनीक के अनेक माध्यम है, जो प्रयोग में लाये जाते हैं। जैसे- रेडियो प्रसारण, दूरदर्शन, श्रृव्य-दृश्य कैसटेस, इलेक्ट्रांनिक डाक, कम्प्यूटर नेटवर्क, फैक्स, टेलिकान्फ्रेंसिंग  आदि। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के प्रतिवेदन में लिखा है कि दूरस्थ शिक्षा के प्रसार के लिए प्रौद्योगिकी (आईसीटी) आधारिक-तंत्र अवश्य स्थापित किया जाना चाहिए। इस संबंध में हम यह सिफारिश करते हैं कि एनकेसी द्वारा प्रस्तावित डिजिटल ब्राडबैंड ज्ञान नेटवर्क में प्रमुख ओडीई संस्थानों को तथा पहले चरण में ही उनके अध्ययन केन्द्रों को परस्पर जोड़ने के लिए प्रावधान होना चाहिए। अंततः 2 एमबीपीएस की न्यूनतम संयोज्यता का विस्तार सभी ओडीई संस्थानों के अध्ययन केन्द्रों तक किया जाना जरूरी है। एक राष्ट्रीय आईसीटी अवलंब, ओडीई में सुलभता और ई-अभिशासन का संवर्द्धन करेगा और सभी विधियों के बीच अर्थात मुद्रित, श्रृव्य-दृश्य और इंटरनेट-आधारित मल्टीमीडिया में ज्ञान का प्रसार करा सकेगा । ”[3]
            मुक्त विश्वविद्यालयों में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका स्वतः स्पष्ट होती है क्योंकि रेडियो व टेलीविज़न  द्वारा भी इसका क्रियान्वयन होता है। 1995 में इण्टरनेट के  भारत में आगमन  के बाद  इसके माध्यम से छात्रों को शिक्षण प्रशिक्षण के कार्यक्रम आसानी से सुलभ हो जाने लगे है। ज्ञानदर्शन व ज्ञानवाणी जैसे शैक्षिक चैनल भी इसमें सहायता करते है। ज्ञानवाणी 7 नवम्बर 2001 से शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहा है। इसी प्रकार ज्ञानदर्शन भी जनवरी 2000 से शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करता है। अनेक शिक्षाविद् व विषय विशेषज्ञ इन कार्यक्रमों की गुणवत्ता को संवर्धित करते है तथा समस्याओं का समाधान भी इसी माध्यम से किया जाता है । भारतीय उपग्रह इन्सेट के माध्यम से दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में रेडियो, टीवी का भरपूर `उपयोग किया जाने लगा है । 27 अक्टूबर 2009 को इग्नू ने तीसरी पीढी  की मोबाइल फोन प्रौद्योगिकी के जरिए आन लाइन शिक्षा प्रदान करने के लिए स्वीडन की दूर संचार कम्पनी एरिक्सन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये है ।  अगले छः माह के लिए इसे पायलेट परियोजना की तरह चलाया जायेगा। इग्नू ने छः माह बाद पूरे देश में चलाये जा रहे सभी कोर्सो में 3डी  का उपयोग करने की योजना बनाई है। जब हम भारत में उच्चशिक्षा के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि भारत में सर्वप्रथम महाविद्यालयों की स्थापना हुई, तत्पश्चात् विश्वविद्यालय आये। जब 1857 में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई तो उनका प्रमुख उद्देश्य महाविद्यालयों का पर्यवेक्षण करना तथा उनके लिये परीक्षायें सम्पादित करना था। कुछ समय पश्चात् बीसवीं सदी के प्रारम्भ में इस विचार में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। 1947 तक आते-आते उच्चशिक्षा ग्रहण करने वालों की संख्या लगभग 2.5 लाख तक पहुँच गई जो कि 20 विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत थे।
        वर्ष 2004-05 में भारत में उच्चतर शिक्षा में लगभग ग्यारह मिलियन लोग दाखिल थे, जिनमें से मुक्त और दूरस्थ शिक्षा प्रणाली (परम्परागत कालेजों के दूरस्थ शिक्षा संस्थानों (डी00आई0) द्वारा प्रस्तुत पत्राचार पाठ्यक्रमों सहित) ने लगभग 20 प्रतिशत लोगों को उच्च शिक्षा उपलब्ध करायी। इसके भीतर मुक्त विश्वविद्यालयों ने उच्चतर शिक्षा की मांग में से 10 प्रतिशत की पूर्ति की। 1996 से 2004 तक उच्चतर शिक्षा तथा मुक्त व दूरस्थ शिक्षा के नामांकन में वृद्धि हुई। 2000-01 में उच्चतर शिक्षा की केवल 4 प्रतिशत मांग की पूर्ति मुक्त विश्वविद्यालयों द्वारा की गई, जबकि 2003-04 में इस आशय का अनुपात लगभग 10प्रतिशत था। दूरस्थ शिक्षा का समग्र योगदान लगभग 19 प्रतिशत है।
            “वर्ष
2011 में यू.एन. द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक के अनुसार 187 देशों में भारत का 134 वां स्थान है। वर्तमान (2011) में विश्व के लगभग 80 करोड़ निरक्षरों में लगभग 30 करोड़ निरक्षर भारत में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या 121 करोड़ हो चुकी है। 2001 से 2011 के एक दशक में जनसंख्या में औसत वार्षिक वृद्धि दर 17.64 प्रतिशत रही। प्रतिवर्ष भारत की जनसंख्या में लगभग 1 करोड़ 70 लाख से अधिक की वृद्धि होती है। भारत सरकार वर्तमान (2010-2011) में शिक्षा में प्रतिवर्ष लगभग 52060 करोड़ रू. व्यय कर रही है, जिसमें उच्च शिक्षा में प्रतिवर्ष अरबों रूपया व्यय किया जाता है किन्तु शिक्षा में व्यावहारिकता की कमी के कारण विगत एक दशक (2001-2011) में देश में बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि हुई है। अभी भी (2010-2011) देश में 4.8 मिलियन (18 प्रतिशत) से अधिक स्नातक बेरोजगार हैं।”[4]
            वर्तमान में यह संख्या बढ़ी है। इस स्थिति को कदापि सन्तोषजनक नहीं माना जा सकता है। ऐसे में सर्वत्र यह आवश्यकता अनुभव की गई कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली की सीमाओं को समझते हुए तथा विफलताओं को स्वीकार कर शिक्षा में नये प्रतिमानों की खोज की जाये। विशेषरूप से 1 अरब से अधिक जनसंख्या वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिये उच्च शिक्षा की प्राथमिकतायें निर्धारित कर उसे जनकेन्द्रित और समाजोपयोगी बनाने के लिये अधिक व्यापक व व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया जाये, जिससे कि विश्वविद्यालय और महाविद्यालय विश्व के सन्दर्भ में सोचें और गाँव के आँगन में अमल करें जिससे की  महात्मा गांधी की  संकल्पना को साकार कर सकें और राष्ट्रीय समस्याओं के निराकरण में प्रभावी भूमिका का निर्वाहन कर सकें।
            उच्च शिक्षण संस्थाओं को अपने परम्परागत स्वरूप व भूमिका में परिवर्तन करना होगा तथा उसे अधिक व्यापक बनाना होगा। जूलियस नयरेर ने 1966 में जेनेवा में आयोजित सिम्पोजिया, ‘तृतीय विश्व के विकास में विश्वविद्यालय की भूमिकाके उद्घाटन भाषण में कहा था वास्तव में एक विकासशील समाज में विश्वविद्यालय को अपने कार्यों में राष्ट्र के नागरिकों की तात्कालिक समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए लोगों और मानवीय उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिये।सन् 1971 में एडगर फोर (पूर्व प्रधानमंत्री एवं शिक्षा मंत्री, फ्रांस) की अध्यक्षता में यूनेस्कोकी सामान्य परिषद द्वारा विश्व शिक्षा आयोग की स्थापना की गई थी। सात सदस्यीय शिक्षा आयोग ने 22 विकासशील एवं विकसित राष्ट्रों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन कर अपनी संस्तुतियाँ प्रस्तुत की, जिसमें कहा गया था कि उच्च शिक्षा का विस्तार होना चाहिये और उसमें व्यक्ति और समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के योग्य विविधता लानी चाहिये। विश्वविद्यालयों के प्रति परम्परागत दृष्टि बदलनी चाहिये।”[5] इन्ही सब विसंगतियों के कारण पाउलो फ्रेरे, इवान इलिच, एवरेट रीमर, गुडमैन, जानहाल्ट तथा वकमैन जैसे शिक्षा शास्त्रियों द्वारा वर्तमान शिक्षा एवं विद्यालय प्रणाली की असफलताओं को लेकर जो असन्तोष व प्रतिकार प्रकट किया गया उसके फलस्वरूप वैकल्पिक अनौपचारिक  शिक्षा को वर्तमान शिक्षा के साथ एक अंग के रूप में जोड़ने के प्रयास प्रारम्भ हुए। दूरस्थ शिक्षा के  अन्तर्गत सामाजिक शिक्षा, अंशकालिक शिक्षा, रिफ्रेशर कोर्सेस, प्रौढ़ शिक्षा, सतत् शिक्षा, जीवन पर्यन्त शिक्षा, किसानों के लिये कार्यात्मक साक्षरता, आदि गति विधियों को रखा गया।
            मई 1986 में अधिक से अधिक विश्वविद्यालयी छात्र-छात्राओं तथा राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवियों को प्रसार गतिविधियों से जोड़ने के उद्देश्य से कार्यात्मक साक्षरता जन अभियान प्रारम्भ किया गया। 1988 में प्रकाशित विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की निर्देशिका में भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रसार को शिक्षण और शोध के समकक्ष महत्व प्रदान करते हुए इसे इस प्रकार उद्धत किया गया है, ‘यदि विश्वविद्यालयीय व्यवस्था को समस्त शिक्षा व्यवस्था और सम्पूर्ण समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का समुचित रूप से निर्वहन करना है तो उसे प्रसार को उच्च शिक्षा के तृतीय आयाम के रूप में सुनिश्चित कर उसे शिक्षण और शोध के समतुल्य मान्यता प्रदान करनी चाहिये। यह एक अत्यन्त नवीन और महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसे सर्वोच्य प्राथमिकता के आधार पर विकसित किया जाना चाहिये।
            प्रसार के महत्व को समझते हुए आठवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत देश के 103 विश्वविद्यालयों में प्रौढ़ सतत् शिक्षा एवं प्रसार (विस्तार) विभाग/केन्द्रों की स्थापना की गई और लगभग 2600 से अधिक महाविद्यालयों में इनकी ईकाइयां प्रारम्भ की गई। प्रारम्भ में प्रसार का प्रयोग कृषि क्षेत्रों में हुआ। तत्पश्चात् सभी क्षेत्रों में प्रसार के महत्व को स्वीकारते हुए उसे प्रसार शिक्षा और प्रसार कार्यों के रूप में अपनाया जाने लगा। सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र में राजस्थान सरकार ने सेवा मन्दिर व राजस्थान विद्यापीठ में सहायता प्रदान कर प्रसार का रास्ता दिखलाया। कालान्तर में भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में प्रसार को तृतीय आयाम के रूप में मान्यता प्राप्त हुई जिसके अन्तर्गत उच्च शिक्षण संस्थायें प्रौढ़ सतत् शिक्षा एवं प्रसार विभाग, जीवन पर्यन्त शिक्षा विभाग तथा अन्य विभागों के माध्यम से साक्षरता, उत्तरसाक्षरता, जनसंख्या शिक्षा, पर्यावरणीय शिक्षा, विधिक साक्षरता, महिला सशक्तीकरण एवं विकास शिक्षा, ग्रामीण विकास शिक्षा, मानव अधिकार शिक्षा, जनसामान्य के लिये विज्ञान, कॅरियर काउन्सिलिंग एवं प्लेसमेन्ट सेवा तथा विभिन्न व्यावसायिक व कौशल विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों का संचालन कर रही हैं।
            जहाँ एक ओर उच्च शिक्षण संस्थाओं को सामुदायिक विकास के प्रति उत्तरदायी बनाना, सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु नियोजित विकास में नेतृत्व प्रदान करना तथा उच्चशिक्षा के ज्ञान, मानवशक्ति तथा भौतिक संसाधनों का व्यापक उपयोग करने का मन्तव्य रहा है, वहीं दूसरी ओर स्वयंम् विश्वविद्यालयों को भी समाज के मध्य घनिष्ट अन्तःक्रिया व व्यावहारिक अनुभवों द्वारा उनमें शिक्षण और शोध कार्यों को अधिक संसाधन युक्त व सम्पन्न बनाना रहा है। इन उद्देश्यों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने हेतु देश के 102 विश्वविद्यालयों में प्रौढ़ सतत् शिक्षा एवं प्रसार विभागों/केन्द्रों तथा 13 नोडल एजेन्सियों की स्थापना प्रसारआयाम के अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों में की गई जिससे कि वे प्रसार कार्यों के सम्पादन हेतु मार्गदर्शन, संसाधन और अन्य सुविधायें दे सकें।
            “वर्तमान में कई विश्वविद्यालयों द्वारा सामुदायिक स्तर पर प्रसार गति- विधियों के साथ-साथ प्रौढ़ शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा, प्रसार शिक्षा, जनसंख्या शिक्षा व सतत् शिक्षा, ग्रामीण एवं सामुदायिक विकास में स्नातक अथवा स्नातकोत्तर स्तर पर डिग्री व डिप्लोमा कोर्स भी संचालित किये जा रहे हैं”[6]। आवश्यकता इस बात की है कि तीव्रता से बदलते परिवेश में तथा प्रतिस्पर्धा के इस युग में उच्चशिक्षा में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं को भावी चुनौतियों के सन्दर्भ में सक्षम बनाने के लिये प्रसारआयाम को सम्पन्न और प्रभावी बनाने के प्रयास किये जायें। उच्च शिक्षा में अन्तरविद्यावर्ती उपागम के चलते यह अत्यधिक प्रासंगिंक भी है, किन्तु विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में पूर्व से संचालित परम्परागत व औपचारिक पाठ्यक्रमों के साथ प्रसार आयाम को स्थापित करने और सफल बनाने के लिये अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष –
       वर्तमान में  भारत में उच्चतर शिक्षा में दाखिल लगभग 1/5 छात्र दूरस्थ पद्धति से अर्थात मुक्त विश्वविद्यालयों के माध्यम से अथवा परपरागत विश्वविद्यालयों के पत्राचार पाठ्यक्रमों के जरिए शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। भारत में उच्चतर शिक्षा में जिस त्वरित विस्तार की अपेक्षा की जाती है, उसे ध्यान में रखते हुए उच्चतर शिक्षा के लिए बढ़ी हुई मांग की पूर्ति करने में मुक्त और दूरस्थ शिक्षा एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है। इसके अलावा विशेष रूप से मुक्त कोर्सवेयर के रूप में प्रौद्योगिकी को लेकर अभूतपूर्व अवसर मौजूद हैं।
            भारत में उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में बहुत गहरा संकट है। उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली हमारी 18-24 वर्ष के आयु वर्ग की आबादी का अनुपात लगभग 7  है, जो एशिया के औसत का सिर्फ आधा है। विश्वविद्यालयों में उपलब्ध स्थानों की संख्या के दृष्टि से उच्चतर शिक्षा के लिए मौजूदा अवसर हमारी आवश्यकता के हिसाब से बिल्कुल पर्याप्त नही है। इतना ही नही उच्चतर शिक्षा के स्तर में जबरदस्त सुधार की आवश्यकता है। भारत जैसे देशों में प्रति व्यक्ति आय कम है, अशिक्षा का स्तर भी अधिक है । यहाँ भाषा, जीवन शैली व संस्कृति का बहुतायत है। इस स्तर पर सूचना प्रौद्योगिक एक उत्प्रेरक की भूमिका का निर्वहन कर सकती है। शिक्षा के क्षेत्र में इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान हो सकता है। भारत सूचना प्रौद्योगिकी के शिक्षा व विकास के क्षेत्र में क्षमता विस्तार के बारे में पूरी तरह सजग है। मानव संसाधन विकास मंत्री ने अपने मंत्रालय के 100 दिनों का एजेण्डा प्रस्तुत करते हुए शिक्षा विस्तार, निवेश और गुणवत्ता को मूलमंत्र बताया। इनका विचार है कि पूरी दूनिया में उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण के कारण आए बदलाव को देखते हुए शिक्षा के लक्ष्य और उसकी जरूरतों में परिवर्तन आ गया है।
            केन्द्र सरकार का जोर इस बात पर है कि शिक्षा को सूचना, संचार तथा प्रौद्योगिकी से जोड़ा जाए और आनलाइन शिक्षा प्रदान की जाय। वर्चुअल विश्वविद्यालय बनाने की भी कल्पना है, जिसके तहत कोई भी छात्र घर बैठे कम्प्यूटर व इण्टरनेट के द्वारा पढ़ाई पूरी कर सके। वित्त मंत्री ने भी इस वजट में सूचना एवं प्रौद्योगिकी के जरिए शिक्षा प्राप्त करने के वास्ते अधिक धन का आवंटन किया है। भारतीय परिपे्रक्ष्य में शिक्षा को व्यापक स्तर पर लाने हेतु दूरस्थ शिक्षा अग्रणी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि बिखरी हुई जनसंख्या का वृहत क्षेत्र शिक्षा से अहूता है। जन-जन तक शिक्षा की ज्योति पहुँचाने हेतु प्रौद्योगिकी की अग्रणी भूमिका है। दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में सूचना सम्प्रेषण तकनीक के अनेक माध्यम है, जो प्रयोग में लाये जाते हैं।


संदर्भ स्रोत -
1.    जार्ज,एम.के.,सूर्यमूर्ति,आर.,1987,एक्सटेंशन इन हायर एजुकेशन: इवाल्विंग न्यू माइल्स,विकास पब्लिकेशन,नईदिल्ली
2.   राष्ट्रीय ज्ञान आयोग-राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन 2007
3.    संलग्नक -1:बेसलाइन,राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन-2007  मुक्त और दूरस्थ शिक्षा
4.   http://hi.wikipedia.org/wiki/दूर शिक्षा
5.   रावत, एस.एस. उच्च शिक्षा में प्रसार का महत्व  नवसंदेश,रोटरी क्लब, श्रीनगर गढ़वाल,2006
6.   शर्मा,राधेश्याम विकास पत्रकारिता हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला 




[1] जार्ज,एम.के.,सूर्यमूर्ति,आर.,1987,एक्सटेंशन इन हायर एजुकेशन: इवाल्विंग न्यू माइल्स,विकास पब्लिकेशन,नईदिल्ली,पृष्ठ-2       
[3] राष्ट्रीय ज्ञान आयोग-राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन 2007 पृष्ठ-46
[4] रावत,एस.एस.,शोध लेख उच्च शिक्षा के तृतीय आयाम के प्रसार का महत्व पत्रिका- प्रौढ़ शिक्षा दिसंबर 2011
[5] रावत,एस.एस.,शोध लेख उच्च शिक्षा के तृतीय आयाम के प्रसार का महत्व पत्रिका- प्रौढ़ शिक्षा दिसंबर 2011  पृष्ठ संख्या-7
[6]संलग्नक -1:बेसलाइन,राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन-2007   मुक्त और दूरस्थ शिक्षा