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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मैं विधा नहीं जानता के अंतर्गत...

गरीबी
गरीबी इंसान को शैतान बना देती है,
गरीबी इंसान में तूफान समां देती है।
गरीबी वेश्या के घर दरबान बना देती है,
गरीबी को इतना न उतार चित्रों में,
गरीबी महल को शमशान बना देती है।
गरीबी से न जाने कितने अपराध हो गए,
गरीबी में न जाने कितने बर्बाद हो गए।
अरे इस गरीबी ने न समझा पीर किसी की,
गरीबी में न जाने कितने अरमान बिक गए।
गरीबी के बल पर भरते हैं जेबें जो रोज रोज,
गरीबी में उनके बचे खुचे ईमान बिक गए।
गरीबी के नाम पर सदन में मचाते हल्ला,
गरीबी की रकम से बनाते हैं कई तल्ले तल्ला।
गरीबी तो खुद को मजबूर कर देती है जीने को
हलक की प्यास मजबूर नहीं करती नाली का पानी पीने को।
गरीबों के सिसकते हैं कंठ तो इनके दिखावे के पानी से,
अपने प्रति इनके लगाव से और इनकी बेमानी से।
बंद करना होगा तुम्हें अपने मगरमच्छी आंसुओं को,
वरना न जाने कब लग जाए दीमक तुम्हारी इन आँखों में,
और बंद हो जाएँ तुम्हारे ये वादे, गरीबी और तुम।   
                                                             - रामशंकर 'विद्यार्थी'


रविवार, 7 दिसंबर 2014

किसके सामाजिक मूल्य

किसके सामाजिक मूल्य

लेखक - रामशंकर 
जब किसी समाज में बच्चे के आगमन की किलकारियाँ पूरे समाज रूपी आँगन में गूंजतीं हैंतो धरा रूपी माता अपनी प्रसव के उन तमाम कष्टों को भूलकर मन ही मन आनंदित हो जाती है। लेकिन उसे क्या पता कि यही (लड़का) कल को किसी न किसी रूप (भाईपतिपिता. . .) में उस पर अपना अधिकार चाहेगा। तब वह भूल जाता है कि वह उस जननी पर अधिकार की बात करता हैजिसने उसे इस धरती पर जीने के लायक बनाया है।
          आज कल तमाम राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में बदलते सामाजिक मूल्यों की बात की जाती है। संगोष्ठी में शिरकत करने वाले तथाकथित प्रबुद्धजन गिरते सामाजिक मूल्यों की चिंता करते हैं। वे ऐसे सामाजिक मूल्य की बात करते हैं जो उनके अनुरूप गढ़े समाज के विपरीत न जाते हों। ऐसे सामाजिक मूल्य जहां लड़की पर ही समाज की इज्जत का दारोमदार केंद्रित हो। ऐसे सामाजिक मूल्य जहां स्त्री के सम्पूर्ण शरीर का आलिंगन कर लेने वाला पतिस्त्री के साथ भोजन करने में अपमान महसूस करता है। ऐसे सामाजिक मूल्य जो अपने अनुरूप स्त्री का विनयभंग करने में तनिक भी संकोच करते हों। यदि इनका यह सामाजिक मूल्य है तो स्त्री का भी अपना मानवीय मूल्य है । मानवीय मूल्य को दरकिनार कर हमें सामाजिक मूल्य गढ़ने का अधिकार किसने दिया ?  ऐसे में स्त्री को अपने अधिकारोंअपने पतन के विभिन्न कारणों तथा उज्जवल भविष्य में स्वयं को तलाशने जैसे महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचारशील अध्ययन के लिए संघर्ष करती दिखाई पड़ती है।

लेखक-परिचय

रामशंकर
जन्म-                             12 जुलाई, 1986    
शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (विज्ञान एवं गणित), स्नातकोत्तर (जनसंचार एवं पत्रकारिता), विद्यानिधि (एम.फिल.) पत्रकारिता एवं जनसंचार, जनसंपर्क एवं विज्ञापन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, विद्यावारिधि (पीएच.डी.) जनसंचार (अध्ययनरत), जनसंचार एवं पत्रकारिता विषय में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (जून, 2014) उत्तीर्ण।   
संप्रति-   संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्रमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में वैकल्पिक मीडिया और भारतीय व्यवस्था परिवर्तन विषय पर शोधरत एवं ICSSR डॉक्टोरल फ़ेलो।
प्रकाशित रचनाएँ- विभिन्न चर्चित शोध जर्नल/पत्रिकाओं (कम्यूनिकेशन टुडे, अंतिम जन, प्रौढ़ शिक्षा, शोध नवनीत, मालती, शोध अनुसंधान समाचार आदि) एवं विभिन्न समाचार पोर्टल्स में शोध-पत्र/आलेख एवं समसामयिक समाचार आलेख प्रकाशित और दो पुस्तकों में शोध-पत्र तथा एक दर्जन से अधिक राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला एवं सेमिनारों में प्रपत्र-वाचन एवं सहभागिता ।
संपर्क-  36, गोरख पांडेय छात्रावासमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
स्थायी पता-        भिटरिया, राम सनेही घाट, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश-225409
संपर्क-सूत्र-           9890631370
Email-             ramshankarbarabanki@gmail.com
लेखकीय वक्तव्य- स्थापित सामाजिक व्यवस्था के विकल्प का अध्ययन एवं लेखन।



शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

मेरे द्वारा ली गईं चंद्रमा की कुछ तस्वीरें

कैमरे की नजर से चाँद के कुछ छायाचित्र हैं जिन्हें मैंने कुछ दिनों में उतारने का प्रयास किया। स्थान- गोरख पांडेय छात्रावास के आसपास  
चतुर्थी का चाँद 

चाँद षष्ठी का 

1. अष्टमी का चाँद 

2 अष्टमी का चाँद 

3 अष्टमी का चाँद 
1. चतुर्दशी का चाँद 

2. चतुर्दशी का चाँद 

3. चतुर्दशी का चाँद 

4. चतुर्दशी का चाँद 

5. चतुर्दशी का चाँद 

6. चतुर्दशी का चाँद 
(चाँद के क्रेटर दिखते हुये कुछ छायाचित्र। ) 

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

नागरिक पत्रकारिता की पहुँच व प्रभाव का अध्ययन











इंसान...

इंसान...
दिन कटता है मांगकर खाने में
रात कटती है कराह कर
दिन में तो अधनंगे कट जाता है
रात कटती है सोने में
दिन में तो रहते हैं भिखारी
रात को हम बन जाते हैं शराबी
पर समान होती हैं ऋतुयें,
गर्मी कटती है हाँफकर
सर्दी कटती है तापकर
वर्षा कटती है भीगकर
विश्वास नहीं होता कि
हम हैं कौन
इंसान या कोई और
और हैं तो क्यों है
यहाँ इस धरा पर
एक बोझ बनकर।  

          ‘रामशंकर