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रविवार, 17 मार्च 2013

दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में सम्प्रेषण माध्यमों की प्रासंगिकता



            सीखो अथवा नष्ट हो जाओप्रख्यात शिक्षाविद ए.जे. टोयनबी का यह कथन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में और अधिक प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि द्रुतगामी  विकास और प्रतिस्पर्धा के युग में यदि नागरिक वर्तमान चुनौतियों और माँग के सन्दर्भ में स्वयं को सूचनायुक्त, सजग और दक्ष नहीं बनाते हैं तो वे विकास की मुख्य धारा से वंचित हो जाते हैं। यदि किसी राष्ट्र में यह स्थिति लम्बे समय तक बनी रहती है तो सम्पूर्ण सभ्यता ही नष्ट हो जाती है। अतः निरन्तर सीखते रहने की जिज्ञासा और प्रवृत्ति को मानव की प्रगति और अस्तित्व के लिये अपरिहार्य माना गया है। निरन्तर सीखने और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिये शिक्षा आवश्यक है। शिक्षा मनुष्य को स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने और निर्णय लेने के योग्य बनाती है। इसीलिये कहा गया है ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ शिक्षा मनुष्य के ज्ञान, अभिवृत्ति और व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन करती है और उसको समाजोपयोगी अंतर्दृष्टि प्रदान कर लक्ष्य के प्रति क्रियाशील बनाये रखती है। डा. एस. राधाकृष्णन ने कहा है कि - ‘‘शिक्षा को मनुष्य और समाज का कल्याण करना चाहिये। इस कार्य को किए   बिना शिक्षा अनुर्वर और अपूर्ण है। ’’[1]
            शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। यह विकास का मूलाधार है।  किसी भी राष्ट्र का विकास शिक्षा के अभाव में असम्भव है चाहे वह राष्ट्र कितने ही प्राकृतिक संसाधनों से आच्छादित क्यों न हो। आज के बदलते परिवेश में परिवर्तन की धारा ने शिक्षा को विशेष रूप से प्रभावित किया है। जहाँ एक ओर मानवीय सम्बन्धों में बदलाव आया है, वहीं विज्ञान के बढ़ते चरण ने शिक्षा की दशा व दिशा दोनों ही परिवर्तित किये है। वैज्ञानिक आविष्कारों से प्रत्येक क्षेत्र में युगान्तकारी परिवर्तन हुए है। मनुष्य ने तकनीकी उन्नति के माध्यम से स्वयं का जीवन उन्नत किया है। ‘’दूर शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा की आधुनिक प्रणाली हैं । इसमें संस्थान, शिक्षक तथा छात्र का सम्पर्क बहुत कम या नही के बराबर होता हैं । यह पत्राचार, सम्पर्क कार्यक्रमों, जन संचार के साधनों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती हैं । दूर शिक्षा में पत्राचार ग्रह-अध्ययन, मुक्त अध्यन, परिसर मुक्त अध्यन आदि सम्मिलित हैं दूर शिक्षा शब्द का प्रयोग सन् १९८२ से शुरू हुवा । जब चार दशक पुरानी इन्टर नेशनल कौन्सिल फॉर कोरस्पोन्डेन्स एजुकेशन(ICCE) ने अपना नाम बदल कर इन्टरनेशनल कौन्सिल फॉर डिस्टेन्स एजुकेशन(ICDE) रख लिया। दूर शिक्षा मूलतः एसे बालकों/बालिकाओं तथा प्रौढों के किए हैं जो विभिन्न कारणों से नियमित रूप से औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकें और वर्तमान दशा में समयाभाव और अधिक आयु हो जाने के कारण नही कर सकते हैं । [2]
            महात्मा गाँधी के अनुसार ‘‘शिक्षा से अभिप्राय मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम  अंश की अभिव्यक्ति है’’। अतः किसी भी राष्ट्र के लिये नागरिकों को शिक्षित बनाना उसके लिए एक प्रकार से दीर्घकालिक निवेश की प्रक्रिया है। शिक्षित नागरिक कुशल मानव संसाधन के रूप में राष्ट्र के सामाजिक आर्थिक विकास में अधिकतम योगदान कर सकते हैं। समाज को उच्च शिक्षण संस्थाओं से अधिक अपेक्षायें हैं। 1986 की नई शिक्षा नीति के अनुसार ‘‘उच्चशिक्षा लोगों को जटिल सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं को मानवीय रूप में सामने रखने का अवसर प्रदान करती है। यह विशिष्ट ज्ञान एवं प्रशिक्षण द्वारा राष्ट्रीय विकास में योगदान देती है। अतः हमारे लिये आवश्यक तत्व है।’’ किन्तु इसी से सम्बद्ध यह पहलू भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि लम्बे समय तक उच्च शिक्षण संस्थायें अनौपचारिक व अन्य प्रसार कार्यक्रमों के माध्यम से अपने चारो ओर के समुदाय के विकास के लिये सचेत और सक्रिय नहीं रहीं हैं।
उच्च शिक्षा के  प्रसार में दूर शिक्षा  का महत्व
            भारतीय परिपे्रक्ष्य में शिक्षा को व्यापक स्तर पर लाने हेतु दूरस्थ शिक्षा अग्रणी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि बिखरी हुई जनसंख्या का वृहत क्षेत्र शिक्षा से अहूता है। जन-जन तक शिक्षा की ज्योति पहुँचाने हेतु प्रौद्योगिकी की अग्रणी भूमिका है। दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में सूचना सम्प्रेषण तकनीक के अनेक माध्यम है, जो प्रयोग में लाये जाते हैं। जैसे- रेडियो प्रसारण, दूरदर्शन, श्रृव्य-दृश्य कैसटेस, इलेक्ट्रांनिक डाक, कम्प्यूटर नेटवर्क, फैक्स, टेलिकान्फ्रेंसिंग  आदि। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के प्रतिवेदन में लिखा है कि दूरस्थ शिक्षा के प्रसार के लिए प्रौद्योगिकी (आईसीटी) आधारिक-तंत्र अवश्य स्थापित किया जाना चाहिए। इस संबंध में हम यह सिफारिश करते हैं कि एनकेसी द्वारा प्रस्तावित डिजिटल ब्राडबैंड ज्ञान नेटवर्क में प्रमुख ओडीई संस्थानों को तथा पहले चरण में ही उनके अध्ययन केन्द्रों को परस्पर जोड़ने के लिए प्रावधान होना चाहिए। अंततः 2 एमबीपीएस की न्यूनतम संयोज्यता का विस्तार सभी ओडीई संस्थानों के अध्ययन केन्द्रों तक किया जाना जरूरी है। एक राष्ट्रीय आईसीटी अवलंब, ओडीई में सुलभता और ई-अभिशासन का संवर्द्धन करेगा और सभी विधियों के बीच अर्थात मुद्रित, श्रृव्य-दृश्य और इंटरनेट-आधारित मल्टीमीडिया में ज्ञान का प्रसार करा सकेगा । ”[3]
            मुक्त विश्वविद्यालयों में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका स्वतः स्पष्ट होती है क्योंकि रेडियो व टेलीविज़न  द्वारा भी इसका क्रियान्वयन होता है। 1995 में इण्टरनेट के  भारत में आगमन  के बाद  इसके माध्यम से छात्रों को शिक्षण प्रशिक्षण के कार्यक्रम आसानी से सुलभ हो जाने लगे है। ज्ञानदर्शन व ज्ञानवाणी जैसे शैक्षिक चैनल भी इसमें सहायता करते है। ज्ञानवाणी 7 नवम्बर 2001 से शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहा है। इसी प्रकार ज्ञानदर्शन भी जनवरी 2000 से शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करता है। अनेक शिक्षाविद् व विषय विशेषज्ञ इन कार्यक्रमों की गुणवत्ता को संवर्धित करते है तथा समस्याओं का समाधान भी इसी माध्यम से किया जाता है । भारतीय उपग्रह इन्सेट के माध्यम से दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में रेडियो, टीवी का भरपूर `उपयोग किया जाने लगा है । 27 अक्टूबर 2009 को इग्नू ने तीसरी पीढी  की मोबाइल फोन प्रौद्योगिकी के जरिए आन लाइन शिक्षा प्रदान करने के लिए स्वीडन की दूर संचार कम्पनी एरिक्सन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये है ।  अगले छः माह के लिए इसे पायलेट परियोजना की तरह चलाया जायेगा। इग्नू ने छः माह बाद पूरे देश में चलाये जा रहे सभी कोर्सो में 3डी  का उपयोग करने की योजना बनाई है। जब हम भारत में उच्चशिक्षा के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि भारत में सर्वप्रथम महाविद्यालयों की स्थापना हुई, तत्पश्चात् विश्वविद्यालय आये। जब 1857 में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई तो उनका प्रमुख उद्देश्य महाविद्यालयों का पर्यवेक्षण करना तथा उनके लिये परीक्षायें सम्पादित करना था। कुछ समय पश्चात् बीसवीं सदी के प्रारम्भ में इस विचार में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। 1947 तक आते-आते उच्चशिक्षा ग्रहण करने वालों की संख्या लगभग 2.5 लाख तक पहुँच गई जो कि 20 विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत थे।
        वर्ष 2004-05 में भारत में उच्चतर शिक्षा में लगभग ग्यारह मिलियन लोग दाखिल थे, जिनमें से मुक्त और दूरस्थ शिक्षा प्रणाली (परम्परागत कालेजों के दूरस्थ शिक्षा संस्थानों (डी00आई0) द्वारा प्रस्तुत पत्राचार पाठ्यक्रमों सहित) ने लगभग 20 प्रतिशत लोगों को उच्च शिक्षा उपलब्ध करायी। इसके भीतर मुक्त विश्वविद्यालयों ने उच्चतर शिक्षा की मांग में से 10 प्रतिशत की पूर्ति की। 1996 से 2004 तक उच्चतर शिक्षा तथा मुक्त व दूरस्थ शिक्षा के नामांकन में वृद्धि हुई। 2000-01 में उच्चतर शिक्षा की केवल 4 प्रतिशत मांग की पूर्ति मुक्त विश्वविद्यालयों द्वारा की गई, जबकि 2003-04 में इस आशय का अनुपात लगभग 10प्रतिशत था। दूरस्थ शिक्षा का समग्र योगदान लगभग 19 प्रतिशत है।
            “वर्ष
2011 में यू.एन. द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक के अनुसार 187 देशों में भारत का 134 वां स्थान है। वर्तमान (2011) में विश्व के लगभग 80 करोड़ निरक्षरों में लगभग 30 करोड़ निरक्षर भारत में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या 121 करोड़ हो चुकी है। 2001 से 2011 के एक दशक में जनसंख्या में औसत वार्षिक वृद्धि दर 17.64 प्रतिशत रही। प्रतिवर्ष भारत की जनसंख्या में लगभग 1 करोड़ 70 लाख से अधिक की वृद्धि होती है। भारत सरकार वर्तमान (2010-2011) में शिक्षा में प्रतिवर्ष लगभग 52060 करोड़ रू. व्यय कर रही है, जिसमें उच्च शिक्षा में प्रतिवर्ष अरबों रूपया व्यय किया जाता है किन्तु शिक्षा में व्यावहारिकता की कमी के कारण विगत एक दशक (2001-2011) में देश में बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि हुई है। अभी भी (2010-2011) देश में 4.8 मिलियन (18 प्रतिशत) से अधिक स्नातक बेरोजगार हैं।”[4]
            वर्तमान में यह संख्या बढ़ी है। इस स्थिति को कदापि सन्तोषजनक नहीं माना जा सकता है। ऐसे में सर्वत्र यह आवश्यकता अनुभव की गई कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली की सीमाओं को समझते हुए तथा विफलताओं को स्वीकार कर शिक्षा में नये प्रतिमानों की खोज की जाये। विशेषरूप से 1 अरब से अधिक जनसंख्या वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिये उच्च शिक्षा की प्राथमिकतायें निर्धारित कर उसे जनकेन्द्रित और समाजोपयोगी बनाने के लिये अधिक व्यापक व व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया जाये, जिससे कि विश्वविद्यालय और महाविद्यालय विश्व के सन्दर्भ में सोचें और गाँव के आँगन में अमल करें जिससे की  महात्मा गांधी की  संकल्पना को साकार कर सकें और राष्ट्रीय समस्याओं के निराकरण में प्रभावी भूमिका का निर्वाहन कर सकें।
            उच्च शिक्षण संस्थाओं को अपने परम्परागत स्वरूप व भूमिका में परिवर्तन करना होगा तथा उसे अधिक व्यापक बनाना होगा। जूलियस नयरेर ने 1966 में जेनेवा में आयोजित सिम्पोजिया, ‘तृतीय विश्व के विकास में विश्वविद्यालय की भूमिकाके उद्घाटन भाषण में कहा था वास्तव में एक विकासशील समाज में विश्वविद्यालय को अपने कार्यों में राष्ट्र के नागरिकों की तात्कालिक समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए लोगों और मानवीय उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिये।सन् 1971 में एडगर फोर (पूर्व प्रधानमंत्री एवं शिक्षा मंत्री, फ्रांस) की अध्यक्षता में यूनेस्कोकी सामान्य परिषद द्वारा विश्व शिक्षा आयोग की स्थापना की गई थी। सात सदस्यीय शिक्षा आयोग ने 22 विकासशील एवं विकसित राष्ट्रों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन कर अपनी संस्तुतियाँ प्रस्तुत की, जिसमें कहा गया था कि उच्च शिक्षा का विस्तार होना चाहिये और उसमें व्यक्ति और समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के योग्य विविधता लानी चाहिये। विश्वविद्यालयों के प्रति परम्परागत दृष्टि बदलनी चाहिये।”[5] इन्ही सब विसंगतियों के कारण पाउलो फ्रेरे, इवान इलिच, एवरेट रीमर, गुडमैन, जानहाल्ट तथा वकमैन जैसे शिक्षा शास्त्रियों द्वारा वर्तमान शिक्षा एवं विद्यालय प्रणाली की असफलताओं को लेकर जो असन्तोष व प्रतिकार प्रकट किया गया उसके फलस्वरूप वैकल्पिक अनौपचारिक  शिक्षा को वर्तमान शिक्षा के साथ एक अंग के रूप में जोड़ने के प्रयास प्रारम्भ हुए। दूरस्थ शिक्षा के  अन्तर्गत सामाजिक शिक्षा, अंशकालिक शिक्षा, रिफ्रेशर कोर्सेस, प्रौढ़ शिक्षा, सतत् शिक्षा, जीवन पर्यन्त शिक्षा, किसानों के लिये कार्यात्मक साक्षरता, आदि गति विधियों को रखा गया।
            मई 1986 में अधिक से अधिक विश्वविद्यालयी छात्र-छात्राओं तथा राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवियों को प्रसार गतिविधियों से जोड़ने के उद्देश्य से कार्यात्मक साक्षरता जन अभियान प्रारम्भ किया गया। 1988 में प्रकाशित विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की निर्देशिका में भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रसार को शिक्षण और शोध के समकक्ष महत्व प्रदान करते हुए इसे इस प्रकार उद्धत किया गया है, ‘यदि विश्वविद्यालयीय व्यवस्था को समस्त शिक्षा व्यवस्था और सम्पूर्ण समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का समुचित रूप से निर्वहन करना है तो उसे प्रसार को उच्च शिक्षा के तृतीय आयाम के रूप में सुनिश्चित कर उसे शिक्षण और शोध के समतुल्य मान्यता प्रदान करनी चाहिये। यह एक अत्यन्त नवीन और महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसे सर्वोच्य प्राथमिकता के आधार पर विकसित किया जाना चाहिये।
            प्रसार के महत्व को समझते हुए आठवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत देश के 103 विश्वविद्यालयों में प्रौढ़ सतत् शिक्षा एवं प्रसार (विस्तार) विभाग/केन्द्रों की स्थापना की गई और लगभग 2600 से अधिक महाविद्यालयों में इनकी ईकाइयां प्रारम्भ की गई। प्रारम्भ में प्रसार का प्रयोग कृषि क्षेत्रों में हुआ। तत्पश्चात् सभी क्षेत्रों में प्रसार के महत्व को स्वीकारते हुए उसे प्रसार शिक्षा और प्रसार कार्यों के रूप में अपनाया जाने लगा। सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र में राजस्थान सरकार ने सेवा मन्दिर व राजस्थान विद्यापीठ में सहायता प्रदान कर प्रसार का रास्ता दिखलाया। कालान्तर में भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में प्रसार को तृतीय आयाम के रूप में मान्यता प्राप्त हुई जिसके अन्तर्गत उच्च शिक्षण संस्थायें प्रौढ़ सतत् शिक्षा एवं प्रसार विभाग, जीवन पर्यन्त शिक्षा विभाग तथा अन्य विभागों के माध्यम से साक्षरता, उत्तरसाक्षरता, जनसंख्या शिक्षा, पर्यावरणीय शिक्षा, विधिक साक्षरता, महिला सशक्तीकरण एवं विकास शिक्षा, ग्रामीण विकास शिक्षा, मानव अधिकार शिक्षा, जनसामान्य के लिये विज्ञान, कॅरियर काउन्सिलिंग एवं प्लेसमेन्ट सेवा तथा विभिन्न व्यावसायिक व कौशल विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों का संचालन कर रही हैं।
            जहाँ एक ओर उच्च शिक्षण संस्थाओं को सामुदायिक विकास के प्रति उत्तरदायी बनाना, सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु नियोजित विकास में नेतृत्व प्रदान करना तथा उच्चशिक्षा के ज्ञान, मानवशक्ति तथा भौतिक संसाधनों का व्यापक उपयोग करने का मन्तव्य रहा है, वहीं दूसरी ओर स्वयंम् विश्वविद्यालयों को भी समाज के मध्य घनिष्ट अन्तःक्रिया व व्यावहारिक अनुभवों द्वारा उनमें शिक्षण और शोध कार्यों को अधिक संसाधन युक्त व सम्पन्न बनाना रहा है। इन उद्देश्यों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने हेतु देश के 102 विश्वविद्यालयों में प्रौढ़ सतत् शिक्षा एवं प्रसार विभागों/केन्द्रों तथा 13 नोडल एजेन्सियों की स्थापना प्रसारआयाम के अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों में की गई जिससे कि वे प्रसार कार्यों के सम्पादन हेतु मार्गदर्शन, संसाधन और अन्य सुविधायें दे सकें।
            “वर्तमान में कई विश्वविद्यालयों द्वारा सामुदायिक स्तर पर प्रसार गति- विधियों के साथ-साथ प्रौढ़ शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा, प्रसार शिक्षा, जनसंख्या शिक्षा व सतत् शिक्षा, ग्रामीण एवं सामुदायिक विकास में स्नातक अथवा स्नातकोत्तर स्तर पर डिग्री व डिप्लोमा कोर्स भी संचालित किये जा रहे हैं”[6]। आवश्यकता इस बात की है कि तीव्रता से बदलते परिवेश में तथा प्रतिस्पर्धा के इस युग में उच्चशिक्षा में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं को भावी चुनौतियों के सन्दर्भ में सक्षम बनाने के लिये प्रसारआयाम को सम्पन्न और प्रभावी बनाने के प्रयास किये जायें। उच्च शिक्षा में अन्तरविद्यावर्ती उपागम के चलते यह अत्यधिक प्रासंगिंक भी है, किन्तु विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में पूर्व से संचालित परम्परागत व औपचारिक पाठ्यक्रमों के साथ प्रसार आयाम को स्थापित करने और सफल बनाने के लिये अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष –
       वर्तमान में  भारत में उच्चतर शिक्षा में दाखिल लगभग 1/5 छात्र दूरस्थ पद्धति से अर्थात मुक्त विश्वविद्यालयों के माध्यम से अथवा परपरागत विश्वविद्यालयों के पत्राचार पाठ्यक्रमों के जरिए शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। भारत में उच्चतर शिक्षा में जिस त्वरित विस्तार की अपेक्षा की जाती है, उसे ध्यान में रखते हुए उच्चतर शिक्षा के लिए बढ़ी हुई मांग की पूर्ति करने में मुक्त और दूरस्थ शिक्षा एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है। इसके अलावा विशेष रूप से मुक्त कोर्सवेयर के रूप में प्रौद्योगिकी को लेकर अभूतपूर्व अवसर मौजूद हैं।
            भारत में उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में बहुत गहरा संकट है। उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली हमारी 18-24 वर्ष के आयु वर्ग की आबादी का अनुपात लगभग 7  है, जो एशिया के औसत का सिर्फ आधा है। विश्वविद्यालयों में उपलब्ध स्थानों की संख्या के दृष्टि से उच्चतर शिक्षा के लिए मौजूदा अवसर हमारी आवश्यकता के हिसाब से बिल्कुल पर्याप्त नही है। इतना ही नही उच्चतर शिक्षा के स्तर में जबरदस्त सुधार की आवश्यकता है। भारत जैसे देशों में प्रति व्यक्ति आय कम है, अशिक्षा का स्तर भी अधिक है । यहाँ भाषा, जीवन शैली व संस्कृति का बहुतायत है। इस स्तर पर सूचना प्रौद्योगिक एक उत्प्रेरक की भूमिका का निर्वहन कर सकती है। शिक्षा के क्षेत्र में इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान हो सकता है। भारत सूचना प्रौद्योगिकी के शिक्षा व विकास के क्षेत्र में क्षमता विस्तार के बारे में पूरी तरह सजग है। मानव संसाधन विकास मंत्री ने अपने मंत्रालय के 100 दिनों का एजेण्डा प्रस्तुत करते हुए शिक्षा विस्तार, निवेश और गुणवत्ता को मूलमंत्र बताया। इनका विचार है कि पूरी दूनिया में उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण के कारण आए बदलाव को देखते हुए शिक्षा के लक्ष्य और उसकी जरूरतों में परिवर्तन आ गया है।
            केन्द्र सरकार का जोर इस बात पर है कि शिक्षा को सूचना, संचार तथा प्रौद्योगिकी से जोड़ा जाए और आनलाइन शिक्षा प्रदान की जाय। वर्चुअल विश्वविद्यालय बनाने की भी कल्पना है, जिसके तहत कोई भी छात्र घर बैठे कम्प्यूटर व इण्टरनेट के द्वारा पढ़ाई पूरी कर सके। वित्त मंत्री ने भी इस वजट में सूचना एवं प्रौद्योगिकी के जरिए शिक्षा प्राप्त करने के वास्ते अधिक धन का आवंटन किया है। भारतीय परिपे्रक्ष्य में शिक्षा को व्यापक स्तर पर लाने हेतु दूरस्थ शिक्षा अग्रणी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि बिखरी हुई जनसंख्या का वृहत क्षेत्र शिक्षा से अहूता है। जन-जन तक शिक्षा की ज्योति पहुँचाने हेतु प्रौद्योगिकी की अग्रणी भूमिका है। दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में सूचना सम्प्रेषण तकनीक के अनेक माध्यम है, जो प्रयोग में लाये जाते हैं।


संदर्भ स्रोत -
1.    जार्ज,एम.के.,सूर्यमूर्ति,आर.,1987,एक्सटेंशन इन हायर एजुकेशन: इवाल्विंग न्यू माइल्स,विकास पब्लिकेशन,नईदिल्ली
2.   राष्ट्रीय ज्ञान आयोग-राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन 2007
3.    संलग्नक -1:बेसलाइन,राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन-2007  मुक्त और दूरस्थ शिक्षा
4.   http://hi.wikipedia.org/wiki/दूर शिक्षा
5.   रावत, एस.एस. उच्च शिक्षा में प्रसार का महत्व  नवसंदेश,रोटरी क्लब, श्रीनगर गढ़वाल,2006
6.   शर्मा,राधेश्याम विकास पत्रकारिता हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला 




[1] जार्ज,एम.के.,सूर्यमूर्ति,आर.,1987,एक्सटेंशन इन हायर एजुकेशन: इवाल्विंग न्यू माइल्स,विकास पब्लिकेशन,नईदिल्ली,पृष्ठ-2       
[3] राष्ट्रीय ज्ञान आयोग-राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन 2007 पृष्ठ-46
[4] रावत,एस.एस.,शोध लेख उच्च शिक्षा के तृतीय आयाम के प्रसार का महत्व पत्रिका- प्रौढ़ शिक्षा दिसंबर 2011
[5] रावत,एस.एस.,शोध लेख उच्च शिक्षा के तृतीय आयाम के प्रसार का महत्व पत्रिका- प्रौढ़ शिक्षा दिसंबर 2011  पृष्ठ संख्या-7
[6]संलग्नक -1:बेसलाइन,राष्ट्र के नाम प्रतिवेदन-2007   मुक्त और दूरस्थ शिक्षा