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बुधवार, 6 मार्च 2013

भ्रष्टाचार और आंदोलित समाज


क़ानून संसद बनाती हैऔर लोगों की इस प्रक्रिया में सीधी कोई भूमिका नहीं है। लेकिन शायद वे भूल गए कि हमारे संविधान का पहला वाक्य है "हम भारत के लोग..."!  इसी संविधान में अधिकारों के साथ-साथ नागरिकों के कर्त्तव्य भी परिभाषित किये गए हैं।  जिनके तहत यदि संसद कोई ऐसा काम करती है, जो लोकतंत्र और संविधान की भावना के अनुरूप न हो तो लोग उसकी खिलाफत कर सकते हैं, विरोध कर सकते हैं और उसे सुधारने का काम कर सकते हैं।
        ड़ा ही सुखद क्षण है जब हम देख रहे हैं कि पहले सरकार लोगों के सामने शर्तें रखती है और दबाव डालती है कि जन समूह वैसे ही आन्दोलन करें जैसा सरकार चाहती है, पर जब आन्दोलन के साथ जन जुड़ जाता है तब लोग सरकार के सामने शर्तें रखते हैं और सरकार को उसके कृत्यों के लिए शर्मसार कर देते हैं। राष्ट्र में भ्रष्टाचार केवल एक आर्थिक मुद्दा नहीं रह गया।  यह केवल जन आन्दोलन का मुद्दा भी नहीं रह गया. भारत में भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने अब एक गैर दलीय राजनीतिक आन्दोलन का रूप ले लिया है। जो कुछ भी घट रहा है, हमें उसे एक व्यापक सन्दर्भ में देखने की ज़रूरत है। ऐसा नहीं था कि अब से दो साल पहले भारत में भ्रष्टाचार नहीं था, या लोग उससे त्रस्त नहीं थे।  मुद्दा तो था पर कमी मात्र इतनी थी कि कोई नेतृत्व नहीं मिल पा रहा था।  अप्रैल २०११ में जब इस जन आन्दोलन का पहला जमावड़ा दिल्ली में हुआ तब किसी को (न सरकार को और न ही टीम अन्ना को) नहीं पता था कि उनका यह प्रयास क्या रूप लेगा ?  पर उस जमावड़े और  अन्ना हजारे के पहले अनशन के बीच देश में उम्मीदों के भरपूर पैदावार हुई और लोग उससे अपने आप ही जुड़ते चले गए।

अब चूँकि बार-बार बहुत से घोटाले उभर कर जनता के सामने आ रहे थे।  कामनवेल्थ खेल और दूरसंचार के भ्रष्टाचार ने तो मानो यू॰ पी॰ ए॰ की  राजनैतिक छवि को पूरा कचरा ही कर दिया था।  ऐसे में भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने लोगों को अपनी मन की उदगार सामने लाने का एक मंच प्रदान किया ।  इस आन्दोलन ने यह भी सिद्ध किया है कि आज देश में एक ऐसा लोकतंत्र है जहाँ लोक को तंत्र के दुष्कर्मों के खिलाफ अपने मन के बात कहने के मंच ही नहीं हैं।  वह न्याय की तलाश में अदालत जाता है।  वहां न्याय तो नहीं मिलता है, बल्कि वह अन्याय के एक नए कुचक्र में फँस जाता है। जिस मीडिया से उम्मीद की जा रही थी, वह खुद दूरसंचार घोटाले का हिस्सा बना नज़र आया।  संगठित होकर अपने हकों को समानता की लहर चलाने की मंशा रखने वालों को राष्ट्रविरोधी कह कर  ऐसा फंसाया  जाने लगा कि लोगों का लोकतंत्र और राज्य दोनों  से विश्वास डगमगाने लगा ।
 इन परिस्थितियों में इस आन्दोलन ने उन बिखरी हुई उम्मीदों को समेटने का काम किया. और यूपीए की सरकार को बताया गया कि अब यह कोई एन॰ जी॰ ओ॰ कार्यक्रम नहीं रह गया है। अब जन यानी नागरिक इससे जुड़ रहे हैं।  सरकार कभी इस बात के लिए गंभीर नहीं रही कि भ्रष्टाचार देश के लिए एक गंभीर चुनौती है।  उसके लिए तकलीफदेय बात मामला यह था कि उसके आलाकमान (मंत्री ,सांसद अफसरशाह आदि) द्वारा की गयी करतूतें सामने आ रही थीं।  स्विस बैंक में जमा धन के बारे में कयास लगाए जाते रहे कि वहां अरबों हजार डालर के बराबर का कालाधन जमा है।  इस पर सरकार मौन रही तो सर्वोच्च न्यायालय ने कदम उठाना शुरू कर दिए और विशेष जांच टीम बना दी।  जब सरकार फँसी, तब यह तय हुआ की नगर समुदाय जिसे सिविल सोसायटी के नाम से परिभाषित किया जाता रहा।  सरकार के नुमाइन्दो के साथ मिलकर लोकपाल की ऐसी कानूनी व्यवस्था के लिए क़ानून का एक प्रारूप बनायेंगे, जो भ्रष्टाचार पर लगाम लगाए और जो लोग या पद अभी तक मौजूदा क़ानून के लचरपन के कारण बचते रहे, उन्हें सजा दी जा सके।  पर सरकार के नुमायिंदे लोकपाल की  व्यवस्था के दायरे से प्रधानमन्त्री और निचले अधिकारियों-कर्मचारियों को स्वतंत्र रखने चाहते थे।  उन्होंने ऐसा ही किया और अपनी तानाशाही का परिचय देते हुए अन्ना हजारे के नेतृत्व वाली सिविल सोसायटी की मूल मांगों को नकार दिया।  सरकार ने अपने प्रस्तावित क़ानून में भ्रष्टाचार करने वाले के लिए कम और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले के लिए ज्यादा सजा का प्रावधान भी किया। मंत्रियों के इस समूह ने शुरू की ताकत और मुद्दों से ध्यान बटाने की राजनीति।  कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम, प्रणव मुखर्जी  ने मोर्चा संभाला और यह कहा कि सिविल सोसाइटी संविधान से ऊपर नहीं है।
 क़ानून संसद बनाती हैऔर लोगों की इस प्रक्रिया में सीधी कोई भूमिका नहीं है। लेकिन शायद वे भूल गए कि हमारे संविधान का पहला वाक्य है "हम भारत के लोग..."!  इसी संविधान में अधिकारों के साथ-साथ नागरिकों के कर्त्तव्य भी परिभाषित किये गए हैं।  जिनके तहत यदि संसद कोई ऐसा काम करती है, जो लोकतंत्र और संविधान की भावना के अनुरूप न हो तो लोग उसकी खिलाफत कर सकते हैं, विरोध कर सकते हैं और उसे सुधारने का काम कर सकते हैं।  इस तरह कपिल सिब्बल सहित कुछ लोगों के  द्वारा दिए गए इस तरह के बयान के कोई मायने नहीं रह जाते कि अन्ना और उनके साथियों को चुनाव लड़ कर संसद में आकर अपनी मर्ज़ी का क़ानून बनवाना चाहिए। यही एक मात्र रास्ता है।  जो बात सरकार कह रही है, उससे तो यही परिलक्षित होता है कि संसद और सरकार यदि कुछ गलत करे भी तो किसी को उसका विरोध करने का कोई हक़ नहीं होता है ।  और जो विरोध  करेगा, उसे बंदी बना लिया जाएगा।  यह तो लोकतंत्र की मूल भावना नहीं है। केंद्र सरकार ने अन्ना के अनशन और आन्दोलन को रोकने की जो भी कोशिशें की वे बेहद कमज़ोर समझ, अपरिपक्व नज़रिए और बचकाना हरकतों की परिचायक हैं।  इससे यह भी सिद्ध हुआ कि कांग्रेस और  केंद्र सरकार के बीच सही तालमेल नहीं है। उनके रणनीतिकार जनमानस को महसूस करने की क्षमता खो चुके हैं।
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने सत्ता के इस दंभ को तोडा है कि वही सर्वोपरि है. उन्होंने बता दिया है कि हमारी व्यवस्था में लोक तंत्र से बड़ा और ताकतवर है, उसकी बात सुनना पड़ेगी. सरकार के रणनीतिकारों का आंकलन था कि यह समूह देश को केवल यह बताना चाहता है कि हम सरकार के साथ एक दस्तावेज बनाने की प्रक्रिया में जुड़े हैं।  वे मान रहे थे कि बस एक दस्तावेज बन जाएगा तो यह आन्दोलन भी ख़त्म हो जाएगा, पर उनका यह आंकलन फिर गलत साबित हूँ ।  अन्ना ने कह दिया कि यदि हमा––री बातें इसमें शामिल नहीं हुई और  विधेयक संसद में पेश नहीं किया गया तो आन्दोलन फिर से होगा। कपिल सिब्बल कहने लगे कि ठीक है विधेयक पेश कर देंगे, पारित कब होगा यह तो संसद ही तय करेगी।  यानि उनका मन साफ़ नहीं था, वे कुटिल चालें चल रहे थे और सन्देश देने की कोशिश कर रहे थे कि सरकार की ताकत के सामने लोग कुछ नहीं हैं। 
इसी दौरान टीम अन्ना के सदस्यों पर व्यक्तिगत रूप से कीचड उछालना शुरू कर दिया गया। अंत में कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने १४ अगस्त २०११ तो उस वक्त हद कर दी जब उन्होंने यह आरोप लगाया कि तुम (अन्ना) खुद गले तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन चलाते हैं ।  ४ घंटे बाद उसी दिन जो करारा  जवाब अन्ना ने कांग्रेस को दिया उससे कांग्रेस की साँसें फूल गयी।  अन्ना ने कहा कि जब तक आप मेरे ऊपर लगाए गए आरोपों पर कार्यवाही करके सिद्ध नहीं करते तब तक मेरा अनशन जारी रहेगा।  अन्ना हजारे अब एक ऐसी शख्सियत बन चुके हैं, जो गाँधी के उस मूल वाक्य का पालन करते हैं - जो बदलाव तुम लाना चाहते हो, उसके परिचायक तुम खुद बनों।  इसीलिए केंद्र सरकार और कांग्रेस के हर आक्रमण को उन्होंने निस्तेज कर दिया।  वे जिस अंदाज़ में १५ अगस्त को महात्मा गांधी की समाधि पर २ घंटे ध्यान में बैठे, उस छवि ने लोगों के मानस में एक गहरी छाप छोड़ी।  और फिर वे लगातार आह्वान करते रहे कि आन्दोलन अहिंसक होगा।  यह कहकर उन्होंने पी चिदंबरम को सोचने पर मजबूर कर दिया , जो जन आन्दोलनों को क़ानून और शस्त्रों से दबाने में विश्वास रखते हैं।
यह बात साफ़ है कि सरकार को यह समझ ही  नहीं पड़ा कि वह करे क्या? ऐसे में उसने १६ अगस्त को अन्ना और उनके साथियों को गिरफ्तार करके बड़ा संकट मोल ले लिया पिछले साढ़े चार महीनों में सरकार के गुप्तचर सूत्रों ने हमेशा उन्हें  बताया कि यह जन आन्दोलन है, पर राजनैतिक रूप से कांग्रेस इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हुई और अन्ना को अपना व्यक्तिगत दुश्मन मान कर काम करने लगा।  उनका हर  विश्लेषण गलत साबित हुआ और उन्हें अपने हर निर्णय को पलटने के लिए मजबूर होना पड़ा।  १६ अगस्त को अन्ना को गिरफ्तार करना तो सरकार के हाथ में था, पर रात ९ बजे अन्ना ने बता दिया कि अब रिहा करना सरकार के हाथ में नहीं है ।  पहले सरकार उन पर अनशन करने से जुडी शर्तें थोप रही थी, जब जनदबाव बढ़ता गया तब  सरकार ने उन्हें रिहा करने का निर्णय लिया तो अन्ना ने रिहा होने के लिए शर्तें रख दी।
गांधी की कांग्रेस तो अब अन्ना सिखा रहे थे कि गांधीवादी सत्याग्रह कैसे किया जाता है। एक नेतृत्व को खड़ा करना और उसे स्थापित करना, इस आन्दोलन की एक बड़ी खासियत रही है।  यदि ऐसा नहीं होता तो यह आन्दोलन भी बिखर गया होता। कभी यह २२ लोगों का केन्द्रीय समूह होता है, तो कभी ५ लोगों का, पर केंद्र एक ही है - अन्ना हजारे। यहाँ हम केन्द्रीयकरण की वकालत नहीं कर सकते, पर यह सीखने की बात है कि नेतृत्व के  केन्द्रीय होने का मतलब है नैतिक, वैचारिक, चारित्रिक, और राजनीतिक समझ के साथ परिपक्व होना।
        जब अप्रैल में अन्ना का अनशन-आन्दोलन हुआ था तब सोनिया गांधी नेपथ्य से सूत्रधार की भूमिका निभा रही थी। उन्होंने मामले तो राजनैतिक नज़रिए से भांपा था।  इसीलिए सरकार और अन्ना समूह एक मंच पर आया। पर अभी वे बीमार है और इलाज़ कराने के लिए विदेश गयी हुई हैं। उनकी बीमारी कांग्रेस को भारी पड़ गयी।  उनकी अनुपस्थिति में १६ अगस्त के दिन को सरकारी नज़रिए से गुज़ारने की कोशिश हुई, राजनैतिक नजरिया गायब हो गया।  और हड़बड़ी में गड़बड़ी होती रही।  यह सिद्ध हो गया कि यदि गांधी परिवार का सदस्य न हो तो कांग्रेस की और से कोई राजनैतिक दबाव         सरकार के ऊपर नहीं होता है।  जब १५ अगस्त को राहुल गांधी भारत वापस आये, तब इस मसले को राजनैतिक नज़रिए से देखने की कोशिश हुई। 
वास्तव में मनमोहन सिंह का राजनैतिक व्यक्तित्व बेहद कमज़ोर व्यक्तित्व साबित हुआ।  फिर १७ अगस्त को संसद में जिस तरह का बयान प्रधानमंत्री ने दिया, उसमे वही सब कुछ कहा जो कपिल सिब्बल, अम्बिका सोनी और पी चि कुछ लोग १२१ करोड़ लोगों को दे सकें। जिन्दा लोकतंत्र  में तो संसद के गलत कदम को भी चुनौती ही  मिलेगी, जो यह सरकारें नहीं चाहती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात में सम्प्रदाय के नाम पर लोकतंत्र की हत्या हुई है।  उत्तर-पूर्व में पहचान और स्वायत्तता  को सीमित करने के नाम पर और काश्मीर में कश्मीर के नाम पर लोकतंत्र को बार-बार मारा गया है।  वहां प्रधानमन्त्री, कांग्रेस और अब अन्ना के साथ होने का दावा करने वाले राजनैतिक दलों को संसद की गरिमा और संविधान का स्मरण क्यों नहीं आता? पिछले १० वर्षों से अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए अनशन कर रही इरोम शर्मीला का समरण क्यों नहीं आता है।  आप इस बात को मत भूलिए कि ये सभी राजनैतिक सवाल हैं और यदि हम इनके जवाब खोजना चाहते हैं तो भ्रष्टाचार के इस आन्दोलन को एक राजनीतिक आन्दोलन का रूप देना ही होगा।  
         मीडिया बहुत सक्रिय है, इस सक्रियता का अध्ययन जरूर होना चाहिए।  मुझे लगता है कि इस मामले में मीडिया और जनसमुदाय ने एक-दूसरे को सहारा दिया है।  और शायद सरकार के मानस को बनाने में  गुप्तचर व्यवस्था से ज्यादा मीडिया ने धारदार भूमिका निभाई है।  अभी यह मानना बहुत जल्दबाजी होगी कि क्या मीडिया जनपक्षीय भूमिका निभाने लगा है या जिस तरह मीडिया की प्रतिबद्धता पर भी सवाल खड़े हो चुके हैं, वह उनसे पाक साफ़ निकलने के लिए २४ में १८ घंटे अन्ना के आन्दोलन के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है।   
        अब हमें कुछ और बातें समझ आती हैं।  भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगी हुई है।  आन्दोलन एक मुकाम पर पहुँच चुका है । अब सचेत रहना होगा कि यह भ्रष्ट लोगों के हाथ ना जाने पाए। मैं फिर कहना चाहता हूँ कि केवल यूपीए ही कीचड से सनी हुई नहीं है।  हाँ  वह तुलनात्मक रूप से ज्यादा भ्रष्ट है, क्यूंकि उसने ज्यादा समय तक शासन किया हाँ  और उदारीकरण- निजीकरण में उसकी ज्यादा रूचि इसीलिए रही है क्यूंकि उसमे पूँजी का प्रवाह ज्यादा तरलता के साथ होता है।  एक तरफ तो अच्छा है कि राजनैतिक दल भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के साथ आ रहे (मजबूरी में) हैं। पर उनके मंतव्य क्या है? कांग्रेस तो अपना किया भोग ही रही है, पर ऐसे में हमें एआईएडीएम्के, आरजेडी, समाजवादी पार्टी और बीजेपी को नहीं भूल जाना चाहिए, क्यूंकि इस आन्दोलन में झंडा थाम कर अब ये गंगा स्नान करने चले हैं।  कुल मिला कर हमारे जनप्रतिनिधियों ने ही हमें अपना उपनिवेश बना लिया, क्यूंकि अपने स्वभाव के अनिसार हम यान लोग मौन रहे।  एक बार बोले तो राजनीति के पुराधाओं की लुटिया डूबने लगी।  अभी यह बात साफ़ होने में थोडा समय लगेगा कि लोग सरकार के खिलाफ हैं या व्यवस्था के खिलाफ, पर राजनैतिक दलों के माथे पर चिंता की लकीरें उभारना स्वाभाविक है क्यूंकि जनता अब केवल मतदाता के रूप में सामने नहीं है, वह सवाल पूछने लगी है।
पिछले ४ दिनों में बार-बार इस आन्दोलन की तुलना १९९७४-७५ के जेपी की आन्दोलन से की गयी है । इसमें कोई शक नहीं कि अब यह आन्दोलन बड़ा रूप ले चुका है, पर यह उत्तरोत्तर सही दिशा में बढेगा, इस पर विमर्श कम ही हो रहा है।  मुझे लगता है कि शायद सरकार छोटी-छोटी गलतियाँ इसलिए कर रही है ताकि सबका ध्यान उस और लगा रहे। सरकार शायद अनशन की अनुमति ना देकर और अन्ना को गिरफ्तार करके मामले को भावनात्मक बना रही है ताकि लोग उत्तेजित हो। राज्य ऐसा कर सकता है, यह विश्लेषण सामने आना चाहिए।  इस आन्दोलन से देश का माध्यम वर्ग जुडा है, जो अपनी जरूरतों के आगे सोचता नहीं है, उसे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मसलों पर बहस करना समय की बर्बादी लगता है।  वह केवल इतना मानता है कि भ्रष्टाचार से उसके जीवन की शैली महंगी हो जाती है और उसे ज्यादा खर्च करना पड़ता है उसे इस बात से कोई इत्तेफाक नहीं है कि बिना भ्रष्टाचार  के भी नीतियां बनाकर सरकार पिछले 8 सालों में २२ लाख करोड़ रूपए की रियायत कारपोरेट सेक्टर को दे चुकी है।  वह यह नहीं सोचना चाहता कि जो नीतियां लागू की गयी हैं वे हमारे भविष्य को एक दबड़े में सीमित कर देंगी और हमारे सारे संसाधनों को पूंजीवादियों के सुपुर्द कर दिया जाएगा। 
इस नज़रिए पर अगर युवाओं और माध्यम वर्ग का शिक्षण प्रशिक्षण नहीं होता है, तो लोगों का यह गुबार कुछ दिनों में निकल जाएगा और लोग अपने काम  धंधों पर लौट जायेंगे।  आज एक अवसर है जब छात्र, किसान, माध्यम वर्ग, मजदूर, ऑटोवाले सरीखे अलग-अलग वर्ग एक साथ हैं, क्या यह साथ एक गठबंधन का रूप ले सकता है? यदि ऐसा हो सके तो हम वास्तव में एक जनवादी और समतामूलक समाज के निर्माण की दिशा में व्यवस्था परिवर्तन के सपने को साकार कर पायेंगे।
                                                                        रामशंकर विद्यार्थी
                                                                   पीएच॰डी॰ जनसंचार (शोधार्थी)
                                    

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