शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों का एक वैचारिक मंच

अभिव्यक्ति के इस स्वछंद वैचारिक मंच पर सभी लेखनी महारत महानुभावों एवं स्वतंत्र ज्ञानग्राही सज्जनों का स्वागत है।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मैं विधा नहीं जानता के अंतर्गत...

गरीबी
गरीबी इंसान को शैतान बना देती है,
गरीबी इंसान में तूफान समां देती है।
गरीबी वेश्या के घर दरबान बना देती है,
गरीबी को इतना न उतार चित्रों में,
गरीबी महल को शमशान बना देती है।
गरीबी से न जाने कितने अपराध हो गए,
गरीबी में न जाने कितने बर्बाद हो गए।
अरे इस गरीबी ने न समझा पीर किसी की,
गरीबी में न जाने कितने अरमान बिक गए।
गरीबी के बल पर भरते हैं जेबें जो रोज रोज,
गरीबी में उनके बचे खुचे ईमान बिक गए।
गरीबी के नाम पर सदन में मचाते हल्ला,
गरीबी की रकम से बनाते हैं कई तल्ले तल्ला।
गरीबी तो खुद को मजबूर कर देती है जीने को
हलक की प्यास मजबूर नहीं करती नाली का पानी पीने को।
गरीबों के सिसकते हैं कंठ तो इनके दिखावे के पानी से,
अपने प्रति इनके लगाव से और इनकी बेमानी से।
बंद करना होगा तुम्हें अपने मगरमच्छी आंसुओं को,
वरना न जाने कब लग जाए दीमक तुम्हारी इन आँखों में,
और बंद हो जाएँ तुम्हारे ये वादे, गरीबी और तुम।   
                                                             - रामशंकर 'विद्यार्थी'


रविवार, 7 दिसंबर 2014

किसके सामाजिक मूल्य

किसके सामाजिक मूल्य

लेखक - रामशंकर 
जब किसी समाज में बच्चे के आगमन की किलकारियाँ पूरे समाज रूपी आँगन में गूंजतीं हैंतो धरा रूपी माता अपनी प्रसव के उन तमाम कष्टों को भूलकर मन ही मन आनंदित हो जाती है। लेकिन उसे क्या पता कि यही (लड़का) कल को किसी न किसी रूप (भाईपतिपिता. . .) में उस पर अपना अधिकार चाहेगा। तब वह भूल जाता है कि वह उस जननी पर अधिकार की बात करता हैजिसने उसे इस धरती पर जीने के लायक बनाया है।
          आज कल तमाम राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में बदलते सामाजिक मूल्यों की बात की जाती है। संगोष्ठी में शिरकत करने वाले तथाकथित प्रबुद्धजन गिरते सामाजिक मूल्यों की चिंता करते हैं। वे ऐसे सामाजिक मूल्य की बात करते हैं जो उनके अनुरूप गढ़े समाज के विपरीत न जाते हों। ऐसे सामाजिक मूल्य जहां लड़की पर ही समाज की इज्जत का दारोमदार केंद्रित हो। ऐसे सामाजिक मूल्य जहां स्त्री के सम्पूर्ण शरीर का आलिंगन कर लेने वाला पतिस्त्री के साथ भोजन करने में अपमान महसूस करता है। ऐसे सामाजिक मूल्य जो अपने अनुरूप स्त्री का विनयभंग करने में तनिक भी संकोच करते हों। यदि इनका यह सामाजिक मूल्य है तो स्त्री का भी अपना मानवीय मूल्य है । मानवीय मूल्य को दरकिनार कर हमें सामाजिक मूल्य गढ़ने का अधिकार किसने दिया ?  ऐसे में स्त्री को अपने अधिकारोंअपने पतन के विभिन्न कारणों तथा उज्जवल भविष्य में स्वयं को तलाशने जैसे महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचारशील अध्ययन के लिए संघर्ष करती दिखाई पड़ती है।

लेखक-परिचय

रामशंकर
जन्म-                             12 जुलाई, 1986    
शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (विज्ञान एवं गणित), स्नातकोत्तर (जनसंचार एवं पत्रकारिता), विद्यानिधि (एम.फिल.) पत्रकारिता एवं जनसंचार, जनसंपर्क एवं विज्ञापन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, विद्यावारिधि (पीएच.डी.) जनसंचार (अध्ययनरत), जनसंचार एवं पत्रकारिता विषय में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (जून, 2014) उत्तीर्ण।   
संप्रति-   संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्रमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में वैकल्पिक मीडिया और भारतीय व्यवस्था परिवर्तन विषय पर शोधरत एवं ICSSR डॉक्टोरल फ़ेलो।
प्रकाशित रचनाएँ- विभिन्न चर्चित शोध जर्नल/पत्रिकाओं (कम्यूनिकेशन टुडे, अंतिम जन, प्रौढ़ शिक्षा, शोध नवनीत, मालती, शोध अनुसंधान समाचार आदि) एवं विभिन्न समाचार पोर्टल्स में शोध-पत्र/आलेख एवं समसामयिक समाचार आलेख प्रकाशित और दो पुस्तकों में शोध-पत्र तथा एक दर्जन से अधिक राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला एवं सेमिनारों में प्रपत्र-वाचन एवं सहभागिता ।
संपर्क-  36, गोरख पांडेय छात्रावासमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
स्थायी पता-        भिटरिया, राम सनेही घाट, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश-225409
संपर्क-सूत्र-           9890631370
Email-             ramshankarbarabanki@gmail.com
लेखकीय वक्तव्य- स्थापित सामाजिक व्यवस्था के विकल्प का अध्ययन एवं लेखन।



शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

मेरे द्वारा ली गईं चंद्रमा की कुछ तस्वीरें

कैमरे की नजर से चाँद के कुछ छायाचित्र हैं जिन्हें मैंने कुछ दिनों में उतारने का प्रयास किया। स्थान- गोरख पांडेय छात्रावास के आसपास  
चतुर्थी का चाँद 

चाँद षष्ठी का 

1. अष्टमी का चाँद 

2 अष्टमी का चाँद 

3 अष्टमी का चाँद 
1. चतुर्दशी का चाँद 

2. चतुर्दशी का चाँद 

3. चतुर्दशी का चाँद 

4. चतुर्दशी का चाँद 

5. चतुर्दशी का चाँद 

6. चतुर्दशी का चाँद 
(चाँद के क्रेटर दिखते हुये कुछ छायाचित्र। ) 

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

नागरिक पत्रकारिता की पहुँच व प्रभाव का अध्ययन











इंसान...

इंसान...
दिन कटता है मांगकर खाने में
रात कटती है कराह कर
दिन में तो अधनंगे कट जाता है
रात कटती है सोने में
दिन में तो रहते हैं भिखारी
रात को हम बन जाते हैं शराबी
पर समान होती हैं ऋतुयें,
गर्मी कटती है हाँफकर
सर्दी कटती है तापकर
वर्षा कटती है भीगकर
विश्वास नहीं होता कि
हम हैं कौन
इंसान या कोई और
और हैं तो क्यों है
यहाँ इस धरा पर
एक बोझ बनकर।  

          ‘रामशंकर

बुधवार, 5 नवंबर 2014

विज्ञान लेखन में प्रदान किए गए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मान

विज्ञान लेखन में प्रदान किए गए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मान
विज्ञान लेखन और पत्रकारिता के महत्व को मान्यता देने में सरकार की एक संख्या एक गैर सरकारी संगठनों बाहर पर पुरस्कार विज्ञान लेखन खड़े या रिपोर्टिंग का गठन किया है. लंबे यूनेस्को के लिए अंग्रेजी में विज्ञान लेखन के लिए एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार दे दिया गया है. पत्रकारिता में उत्कृष्टता, सहित विज्ञान के लिए, कलिंग फाउंडेशन कलिंग पुरस्कार दे दिया गया है. खाद्य और संयुक्त राष्ट्र संघ के कृषि संगठन (एफएओ), अंतरराष्ट्रीय खाद्य दिवस के अवसर पर हर वर्ष भारतीय भाषाओं में, एक निर्धारित विषय पर आकाश वाणी या दरवाजा दर्शन पर अच्छा कार्यक्रमों को पुरस्कृत किया गया है. लोकप्रिय विज्ञान लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए, सीएसआईआर योजना जारी नहीं कर सका कैसे 1973 के कुछ में पुरस्कार की पुरस्कार शुरू किया था. देश के सभी पत्रिकाओं में पुरस्कृत अच्छा लेखन के लिए - एक और योजना 'मुक्ता लोक प्रिया विज्ञान लेखन पुरस्कार सरिता' था.
हाल के दिनों में उल्लेखनीय प्रगति इस दिशा में किया गया है. हिंदी में विज्ञान लेखन को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से, 1986 के बाद से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग हिंदी में लोकप्रिय विज्ञान पर अच्छी पुस्तकों के लिए पुरस्कार देने शुरू कर दिया गया है. पुरस्कार वानिकी से संबंधित विषयों पर मूल काम करता है, वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून द्वारा हर साल सम्मानित किया जा रहा है. भाभा पुरस्कार बाहर हिंदी में लेखन खड़े करने के लिए, परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा स्थापित किया है. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) परमाणु ऊर्जा से संबंधित विषयों पर हिंदी लेखन के लिए विक्रम साराभाई पुरस्कार शुरू कर दिया है. पर्यावरण विभाग भी पर्यावरण से संबंधित विषयों पर हिंदी लेखकों को पुरस्कार देता है. सीएसआईआर भी हिन्दी में विज्ञान लेखन के लिए अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को पुरस्कृत करने की योजना है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कृषि विज्ञान पर लोकप्रिय लेखन के लिए डॉ राजेंद्र प्रसाद पुरस्कार देता है. यह भी पत्रिका 'खेती' में अच्छे लेख के लिए पुरस्कार देता है.
डॉ गोरख प्रसाद पुरस्कार पत्रिका विज्ञान में दिखने अच्छे लेख के लिए विज्ञान परिषद, प्रयाग द्वारा दिया जाता है. अन्यथा भी इस परिषद हिन्दी में पुरस्कृत अच्छा विज्ञान लेखकों की गई है. इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग इलेक्ट्रॉनिक्स पर हिंदी पुस्तक लेखन के लिए वित्तीय सहायता देता है. यह भी हिन्दी में इलेक्ट्रॉनिक्स पर अच्छा लेखन के लिए पुरस्कार देता है. 1983 में तीसरे अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में प्रमुख हिन्दी लेखकों को पुरस्कृत किया गया, और उनके साथ दो हिंदी विज्ञान लेखकों, डॉ सत्य प्रकाश और प्रोफेसर फूल देव सहाय वर्मा भी पुरस्कृत किया गया. यह अच्छी परंपरा की शुरुआत के रूप में स्वागत किया गया है.
नेशनल काउंसिल ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी कम्युनिकेशन के लिए, पुरस्कार की तीन तरह शुरू कर दिया है. सबसे पहले, रुपए की पुरस्कार विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए एक लाख; दूसरे, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की बड़े पैमाने पर मीडिया में सबसे अच्छा कवरेज के लिए, रूपये 50 हजार का पुरस्कार दिया जाएगा; और अंत में, बच्चों के बीच विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए, रूपये 50 हजार का पुरस्कार दिया जाएगा. ये पुरस्कार विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य के साथ शुरूआत की, और जनता के बीच एक वैज्ञानिक स्वभाव engendering के लिए, और भी लोकप्रिय विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए सबसे अच्छा प्रयास को मान्यता देने के लिए किया गया है. स्वाभाविक रूप से, यह लोकप्रिय विज्ञान लेखन, प्रकाशन और प्रसारण या प्रसारण के सभी प्रकार में शामिल हैं.
'अखिल भारतीय हिन्दी विज्ञान लेखन प्रतियोगिता' के नाम से एक प्रतियोगिता 'हिंदी विज्ञान साहित्य परिषद, मुंबई' द्वारा हर वर्ष आयोजित किया जाता है. केन्द्रीय सचिवालय हिंदी परिषद भी इस तरह के एक परंपरा शुरू कर दिया है. हाल ही में विज्ञान परिषद, प्रयाग विज्ञान के इतिहास पर लिखे गए लेखों के लिए Whitekkar पुरस्कार शुरू कर दिया है. महासागर विकास विभाग समुद्र विज्ञान पर हिन्दी पुस्तकों पर पुरस्कार देने के लिए एक योजना शुरू की है.

ऐसे सभी कदम हिन्दी में लेखन और विज्ञान साहित्य के प्रकाशन के लिए एक अच्छा वातावरण का निर्माण कर रहे हैं. लेकिन फिर भी लेखकों की संख्या इस क्षेत्र छोटा है की ओर आकर्षित किया जा रहा है. यह क्षमता के साथ हिंदी विज्ञान लेखकों और दूसरों के लेखन की इस शैली के लिए उनके योगदान करना होगा कि आशा की जाती है.

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

आंतरिक एवं बाह्य स्वच्छता का अंतरसंबंध


लेखक- रामशंकर 
बहुत पुरानी कहावत है- जैसा खाओ अन्न वैसा रहे मन यहां हम एक बात और जोडना चाहेंगे स्वच्छ साफ रहेगा तन, तो निर्मल पावन रहेगा मन।  अर्थात् यदि आपका शरीर साफ-सुथरा व स्वस्थ है तो उसमें निश्चित रूप से निर्मल व पवित्र विचार रहेंगे और इस प्रकार आपकी आत्मा भी विशुद्ध होती जायेगी। यहां निर्मल व पावन मन से तात्पर्य ऐसे मन से है जिसमें किसी के लिए भी बुरे विचार, स्वार्थ, लोभ, वासना आदि के लिए कोई स्थान ना हो तथा व्यक्ति मन से परोपकार की भावना में आसक्त रहे, तो हमारे इस उद्देश्य वसुधैव कुटुम्बकम् को प्राप्त कर लेंगे। स्वच्छता जीवन का वह गुण है, जो व्यक्ति को अधिक समय तक जीवित रहने, सुखी रहने तथा सर्वोत्तम प्रकार से सेवा करने योग्य बनाता है।

लेकिन स्वच्छता के वर्तमान पटल पर दृष्टि डालते हैं तो देखते हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश के 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं है। ग्रामीण इलाकों में यह संख्या 69.3 प्रतिशत  है। बदायूं में हाल ही में हुए दोहरे बलात्कार कांड के बारे में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नेशनल ह्यूमन राइट्स कमिशन (एनएचआरसी) ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि अगर देश में ज्यादा शौचालय होंगे तो बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगेगा। कमिशन ने कहा, ‘एनएचआरसी का जोर इस बात पर है कि हर घर में शौचालय हो। खैर शौचालय बन जाएंगे तो ऐसी घटनाएँ रुक जाएंगी यह तो सभी बातें को शौचालय की पूरी उपलब्धता के बाद ही जाना जा सकता है। लेकिन यह बलात्कार, तेजाब हमला या अन्य प्रताड़ना ये घटनाएँ नहीं हैं, ये आंतरिक गंदगियाँ हैं ये परिचायक हैं अस्वच्छता की इनको कैसे हम कम कर सकते हैं इस पर भी विचार की जरूरत है।  इन गंदगियों से निपटने के लिए हमें अपने आप को नहीं अपने को मिले उत्तरदायित्व को समझना है। हम कौन हैं या हमें क्या करना है इसको भी जानना जरूरी है।  
(लेखक संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र के जनसंचार विषय में पीएच.डी. शोधार्थी हैं।)

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

मतदान के बाद उंगली में लगाई जाने वाली स्याही है- सिल्वर नाइट्रेट और भी अन्य...

1. टेलीविजन का आविष्कार किया-जे. एल.बेयर्ड
2. रडार का आविष्कार किया-टेलर एवं यंग
3. गुरूत्वाकर्षण की खोज किसने किया-न्यूटन ने
4. सिरका व अचार में कौन सा अम्ल होता है-एसिटिक अम्ल
5. नींबू एवं नारंगी में कौन सा अम्ल होता है-साइट्रिक अम्ल
6. दूध खट्टा होता है-उसमें उपस्थित लैक्टिकअम्ल के कारण
7. मतदाताओं के हाथ में लगाये जानेवाली स्याही होती है-सिल्वर नाइट्रेट
8. पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है-पश्चिम से पूर्व की ओर
9. प्याज व लहसुन में गंध होती है-उसमें उपस्थित पोटैशियम के कारण
10. x- किरणों की खोज की-रोन्ट्जन ने
11. स्कूटर के आविष्कारक-ब्राडशा
12. रिवाल्वर के आविष्कारक-कोल्ट
13. समुद्र की गहराई नापते हैं-फैदो मीटरद्वारा

14. डी.एन. ए. संरचना का माडल दिया-वाटसन व क्रिक

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

हिंदी सिनेमा और मीडिया शोध : चुनौतियाँ व संभावनाएं

                                     हिंदी सिनेमा और मीडिया शोध : चुनौतियाँ व संभावनाएं
                                                                                अध्येता
प्रभात कुमार
एम. फिल. जन संचार
पूर्व छात्र, महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय,
चित्रकूट, सतना (.प्र.)

            वर्तमान युग में सिनेमा का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि जैसे-जैसे विज्ञान और तकनीकी का विकास हुआ है, मानव-जीवन जटिल होता चला गया है। इस यांत्रिकी युग में मनुष्य के स्वयं को सभ्य बनाने और समाज में प्रतिस्थापित करने के प्रयास में जीवन का आधार-तत्त्व आनन्दकहीं पीछे छूट गया है और मनुष्य मानसिक रुग्णता का शिकार होता जा रहा है। परन्तु अपनी बौधिक क्षमताओं के आधार पर मनुष्य ने इसका समाधान भी यांत्रिकी में ही खोज लिया है। सहस्राब्दियों पूर्व मनोरंजन के लिये विकसित नट-मंडलियों का रूप आज सिनेमा ने ले लिया है। सिनेमा आज हमारे समाज में घुल-मिल गया है।
जीवन की व्यस्तताओं के चलते आज़ मानव साहित्य, शिल्प, कला, रंगमंच, संगीत, नृत्य आदि आनन्द-प्रदाता गतिविधियों को नियमित समय नहीं दे पा रहा है। इस समस्या के समाधान में सिनेमा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। डॉo स्मित मिश्रके शब्दों में, “दरअसल फिल्म जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है। किंतु यह अन्य कलाओं से भिन्न है। इस कला-माध्यम में अन्य तमाम कलाओं का सन्निवेश होता है- लेखन, अभिनय, नाट्य,संगीत,नृत्य,शिल्प।”1
            भारत देश के समाज की अंतर्धारा का उत्स कला और धर्म है। खेल और सिनेमा इसी अंतर्धारा की अभिव्यक्तियां हैं। इस देश की राजनीति और अकादमिक बौध्दिकता पर अंग्रेजी राज का प्रभाव अब भी है लेकिन इसके समाज,खेल,सिनेमा एवं उद्यमशीलता पर उपनिवेशवादी प्रभाव का क्षरण हो चुका है। इसमें भारत के स्वतंत्रता संग्राम (1857 से 1947) की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1913 से ही भारतीय सिनेमा इस आंदोलन का सांस्कृतिक आयाम रहा है। फिर हॉकी और क्रिकेट में भी राष्ट्रवादी रूझान सामने आया। गाँवों और छोटे शहरों की अंतर्धारा अंग्रेजी राज में भी अक्षुण्ण बनी हुई थी। अंग्रेजों का सबसे ज्यादा प्रभाव अंग्रेजी पढ़े मध्यमवर्ग और महानगरों के निवासियों पर रहा है। इन महानगरों का विकास भी  अंग्रेजी राज में ही हुआ था। कुल मिलाकर उपनिवेशवादी विरासत का अंतिम खंडहर इस देश की राज्य व्यवस्था और राजनीति द्वारा पोषित संस्थाओं में अब भी कायम है। यह तो इस देश का सौभाग्य है कि यह अपने अंतर्विरोधों के बावजूद सत्ता और सरकार से निरपेक्ष होकर आनंद में रहता है। प्रकृति ने भारत को अपने में आनंद से रत्त स्वायत्त ईकाई बनाया था जिसमें तीन तरफ से समुद्र और एक तरफ से पहाड़ था।
            व्यावसायिक दृष्टि से भी सिनेमा का क्षेत्र महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सिनेमा-निर्माण के साथ ही सिने-मीडिया के क्षेत्र में भी व्यवसाय के असीम अवसरों के साथ-साथ कला से सीधे जुड़े रहने का अवसर रहता है। परन्तु स्थिति इसके विपरीत है। आज़ भी भारतीय हिन्दी-सिनेमा और सिने-मीडिया में साहित्यकारों का बहुत अभाव है। फिल्म-साहित्य की विडम्बनानिबन्ध में विजय अग्रवाललिखते हैं, “दुर्भाग्यवश हमारा समाज सिनेमा के प्रभाव को स्वीकारने के बावजूद उसकी उपेक्षा करता है। उसने इसे कभी गंभीर माध्यम के रूप में लिया ही नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण फिल्म लेखन, नायक-नायिका के जीवन-प्रसंगों के इर्द-गिर्द घूमने लगा। फिल्म पत्रिकाओं की स्थिति पौष्टिक भोजन की जगह चना जोर गरमवाली होती चली गई, और आज तो यह चटपटापन केवल दिमाग को ही नहीं, बल्कि आँखों को भी खुले आम सुलभ है।”2 साहित्यकार और समीक्षक वर्ग को इसका उत्तरदायी ठहराते हुए वे पुनः लिखते हैं,“यदि गिने-चुने कामों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश फिल्म समीक्षकों एवं लेखकों ने भी फिल्म-लेखन को अपनी रचना-धर्मिता के सह- उत्पाद(बाइप्रोडक्ट) के रूप में ही लिया है।”3 इसका कारण देते हुए भी वे फिल्म-लेखन (फिल्म-समीक्षा-लेखन) से जुड़े समीक्षक वर्ग को ही कटघरे में खींच लाते हैं,“वस्तुतः विज्ञापन की बैशाखी पर खड़ी फिल्म-जगत की सफलता ने फिल्म-लेखन को अपनी गिरफ्त में लेकर फिल्म-साहित्य का सबसे अहित किया है। लेकिन इसके लिए फिल्म निर्माण से जुड़े लोग इतने दोषी नहीं हैं, जितने फिल्म-लेखन से जुड़े लोग हैं।”4 साहित्यकार और समीक्षक वर्ग द्वारा एक दीर्घ कालावधि तक उपेक्षा का शिकार रहा हिन्दी सिनेमा अपनी आधिकारिक स्थिति तक नहीं पहुंच पाया।
            साहित्यकार और समीक्षक वर्ग की इसी उपेक्षा को चित्रित करते हुए विनोद भारद्वाजसाहित्यकार के उत्तरदायित्व को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, “किसी भी भाषा में किसी विषय से जुड़ी पत्रकारिता या समीक्षात्मक लेखन तभी आगे आ सकता है, जब साहित्य और भाषा से जुड़े लोग उसमें दिलचस्पी दिखाएँ तथा उस विषय के तकनीकी पक्ष और तंत्र के निकट सम्बन्ध बनाने का माहौल है। हिन्दी में इन्हीं बातों की कमी रही है। एक लम्बे समय तक हिन्दी साहित्यकार फिल्म को दूसरे दर्जे की विधा के रूप में देखते रहे। फिल्म से उनका सम्बन्ध रहा भी तो व्यावसायिक किस्म का।”5 हिन्दी साहित्यकार वर्ग द्वारा सिनेमा की उपेक्षा के विषय में वृंदावन लाल वर्माकहते हैं, “हिन्दी भाषा के लेखक हिन्दी सिनेमा के कलात्मक चरित्र के विकसित होने में अपना अमूल्य कलाबोध निवेशित नहीं कर पाए।”6 साहित्यकार वर्ग की उपेक्षा के साथ-साथ ही सिनेमा को समीक्षक वर्ग की उदासीनता का भी सामना करना पड़ा है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने सिनेमा की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास तो किया, परन्तु उनका समीक्षात्मक दृष्टिकोण संकीर्णता से ग्रसित रहा। अपने समीक्षात्मक लेखों में इन्होंने सिनेमा की चामत्कारिकता का चित्रण तो किया, परन्तु कला पक्ष पर अधिक नहीं लिख पाए। इसका सबसे बड़ा कारण है कि वे सिनेमा की प्रस्तुतियों को घटनाओं के रूप में ही देख पाए। कोई समीक्षक किसी फिल्म को एक बार देख कर ही उसकी समीक्षा लिखने बैठ जाए तो यह कैसे सम्भव हो सकता कि वह अपनी समीक्षा के प्रति पूर्ण न्याय कर पाएगा। ऐसा कर, समीक्षकों ने सिनेमा के कलात्मक रूप को आत्मसात न करते हुए उसके विकृत रूप को ही प्रस्तुत किया, जिससे सिनेमा के हित की अपेक्षा अहित ही हुआ है। सिनेमा और समीक्षकों के आधार पर चर्चा करते हुए फिरोज रंगूनवालालिखते हैं, “सन् 1951 में स्क्रीनके प्रकाशन के साथ फिल्म पत्रिका के ऊँचे मानदण्ड स्थापित हुए। फिल्मफेयरने इस परम्परा को कुछ समय तक बरकरार रखा, लेकिन बाद में अपनी विश्वनीयता खो देने के बाद यह पत्रिका न इधर की रही न उधर की। इन उत्कृष्ट फिल्म पत्रिकाओं के साथ कुछ सैकेण्डलबाज पत्रिकाएं भी पनपती रही, जिन्होंने आज कलाकारों और लेखकों के बीच विद्वेषपूर्ण स्थिति पैदा कर दी है।”7 सिनेमा और साहित्यकारों के मध्य दूरी का एक और कारण सिनेमा का व्यावसायिक रूप भी रहा है। फिल्म-निर्माण में अत्यधिक लागत आती है। ऐसे में फिल्मकारों को बाज़ार का पूरा ध्यान रखना पड़ रहा है। सिनेमा को अब तक साहित्य से इतर अलग-थलग विधा के रूप में देखा जाता रहा है। परिणाम स्वरूप साहित्यकार पठकथा लेखन और सिने-निर्माण कला से अपरिचित हैं और उनको सिने निर्माता या निर्देशक के अनुरूप लेखन करना पड़ता है। अपने पास उपयुक्त सुझाव होने पर भी वे उसे सिनेमाई भाषा में व्यक्त करने में असमर्थ होते है। इस प्रकार लेखक की मौलिकता का हनन ही साहित्यकारों को सिनेमा से दूर करता है।
             सिनेमा में साहित्यकारों की इसी निजता और मौलिकता के हनन पर चर्चा करते हुए कमलेश्वरलिखते हैं, “अधिकांशतः फिल्मों में व्यावसायिक रूप से लेखन की परम्परा रही है। अर्ध-स्वतंत्र और अर्ध-परतंत्र लेखन की परम्परा भी रही है, जिसने कथा, पटकथा और संवाद लेखक के हो सकते हैं-परन्तु उनका विषयगत भरा व व्यावसायिक दृष्टि से होता है।”8 साहित्कारों के अभाव में भाषा भी सिनेमा से मुँह मोड़ रही है। हिन्दी सिनेमा के व्यावसायिक पक्ष और भाषा एंव पत्रकारिता पर चर्चा करते हुए विनोद भारद्वाजलिखते हैं, "तथाकथित हिन्दी सिनेमा, सचमुच हिन्दी का सिनेमा बहुत कम हो पाया है। हिन्दी में फिल्में इसलिए बनती रही कि सारे देश में बाजार आसानी से मिल जाता है।”9  इसके कारणों पर चर्चा करते हुए वे पुनः लिखते हैं, ‘‘एक तो हिन्दी फिल्में मुख्यतः बंबई (वर्तमान मुम्बई) में बनती हैं, दूसरे व्यावसायिक सिनेमा का इतना जबरदस्त आतंक रहा है कि सिनेमाघरों की कमी के कारण, अच्छी या गंभीर कही जाने वाली फिल्मों को बनने के बाद डिब्बे में ही बंद रहना पड़ा है। कोई फिल्म बन भी जाए तो उसे दिखाया कैसे जाए। इन बातों का फिल्म-पत्रकारिता पर गहरा असर पड़ता है। अच्छी फिल्म पत्रकारिता का विकास अच्छी फिल्मों से जुड़ा है। जब अच्छी फिल्में ही नहीं हैं, तो अच्छी फिल्म पत्रकारिता कैसे जन्म लेगी।”10
            हिन्दी सिनेमा जहाँ साहित्यकारों और समीक्षकों की उपेक्षा के कारण विकसित नहीं हो पाया वहीं पाश्चात्य सिनेमा के विकास में वहाँ के साहित्यकारों और समीक्षकों का बहुत योगदान रहा। पाश्चात्य समीक्षकों ने सिनेमा की शक्ति को पहचाना और अपनी कलम के माध्यम  से उसके उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। अनुपम औझाहिन्दी-सिनेमा में साहित्यकारों की भूमिका के संदर्भ में लिखते हैं, “फिल्म लेखन के इस क्षेत्र में हिन्दी के आगा हश्र कश्मीरी, प्रेमचंद, सुदर्शन, उपेन्द्रनाथ अश्क, राधाकृष्ण, अमृतलाल वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, सत्येन्द्र शरत्, मनोहर श्याम जोशी, नीरज, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, डॉo धर्मबीर भारती, विष्णु प्रभाकर, फणीश्वरनाथ रेणू आदि भी आए, पर वे एक क्षणिक गरिमा लेकर आए। लेखकों ने फिल्मों से वापस जाने का रास्ता खोला।”11 इसके विपरीत अंग्रेजी सिनेमा के विकास में साहित्यकारों और समीक्षकों के योगदान पर चर्चा करते हुए वे लिखते हैं,“अंग्रेजी सिनेमा को ग्राहम ग्रीन, जार्ज वर्नार्ड शो, हेमिंग्वे, विलियम फाकनर, आर्सन वेल्स, सामरसेट माम जैसे दिग्गजों ने एक दर्जा देकर, और फिल्म-लेखन में सम्मिलित होकर, रचनात्मक प्रोफेशनल लेखकों की एक संस्कारशील जमात खड़ी कर दी, जिसने पश्चिमी सिनेमा के सांस्कृतिक कथ्य और सार्थक प्रतिवाद का माध्यम बना दिया।”12 हिन्दी सिनेमा और साहित्यकारों के विरोधाभास को चित्रित करते हुए वे पुनः लिखते हैं,“एक तो हिन्दी प्रदेश का अपना कोई सिनेमा कहीं नहीं रहा, फिर हिन्दी के लेखक के अपने स्वभाव जन्य शुद्धतावादी नजरिए ने भी सिनेमा के साथ छुआछूत वाले रिश्तों को ही तरजीह दी।”13
निष्कर्ष-
            हिंदी फिल्मों ने हमें सिर्फ इन्टरटेन ही नहीं किया है । आम आदमी की ज़िन्दगी से जुड़े मुद्दों को भी फिल्मों में खूब दिखाया है । समाज  में बदलाव  तभी आ सकता है । जब हम सब अपने अधिकारों  के बारे में जानते हों । फिल्मों के जरिये कोई भी बात बहुत जल्दी और दूर तक पहुंचाई जा सकती है । यही वज़ह है कि फिल्मों में गानों में यह विषय काफी दिखा तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ये कोई साहित्यिक पंक्ति नहीं बल्कि एक हिंदी फिल्म का गाना है एक और बानगी देखिये हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेगे एक खेत नहीं एक बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेगे , इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा , "ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है "। ऐसे एक नहीं सैकडों उदाहरण  मिल जायेंगे जिससे पता चलता है कि हमारा फिल्म मीडिया जागरूक और सज़ग है वैसे ह्युमन राईट्स का युनिवर्सल दिक्लारेसन (Universal declaration) बहुत बाद में आया लेकिन हमारी फिल्मों में मानवाधिकार से जुड़े कथानक हमेशा से प्रभावी भूमिका निभाते रहे ।1932  में बनी चंडीदास और अछूत कन्या में छुवाछूत जैसे विषय को कहानी का मुख्य आधार बनाया गया. 1936  में जे बी एच वाडिया द्वारा हिन्दू मुस्लिम एकता पर सबसे पहली फिल्म जय भारत का निर्माण किया गया 1936  में प्रभात कंपनी ने दुनिया न माने फिल्म बनाई जिसका विषय बेमेल विवाह था । 1938  में वी शांताराम ने पड़ोसी बनाई जो सांप्रदायिक सदभाव जैसे संवेदनशील विषय पर बनी थी .आज़ादी के बाद फिल्मों में प्रयोग तो हुए लेकिन इनकी संख्या कम ही रही इसके लिए फिल्मकारों की सोच से ज्यादा बाज़ार का अर्थशास्त्र और और दर्शकों की मानसिकता भी कम जिम्मेदार नहीं थी .मानवाधिकारों को फिल्म का विषय बनाने में बिमल रॉय का प्रगतिशील नजरिया पचास के दशक को ख़ास बनाता है जिनमे दो बीघा जमीन , नौकर , सुजाता , परख और बिराज बहू जैसी फ़िल्में शामिल हैं । मदर इंडिया , दो आँखें बारह हाथ और गरम कोट जैसी फ़िल्में आज भी हमारे फिल्मकारों को प्रेरणा देती हैं सस्ती तकनीक , इन्टरनेट और शिक्षा का फैलाव इन सब ने मिलकर नब्बे के दशक में एक ऐसा कोकटेल तैयार किये जिससे फ़िल्में थोड़ी और ज्यादा वास्तविकता के करीब आयीं मल्टी प्लेक्स कल्चर के बढ़ने से निर्माता रिस्क ज्यादा ले सकते हैं जिससे ज्यादा एक्स्परीमेंटल फ़िल्में बन रही हैं । सस्ती तकनीक , इन्टरनेट और शिक्षा का फैलाव इन सब ने मिलकर नब्बे के दशक में एक ऐसा कोकटेल तैयार किये जिससे फ़िल्में थोड़ी और ज्यादा वास्तविकता के करीब आयीं मल्टी प्लेक्स कल्चर के बढ़ने से निर्माता रिस्क ज्यादा ले सकते हैं जिससे ज्यादा एक्स्परीमेंटल फ़िल्में बन रही हैं कामर्शियल सिनेमा की अफरा तफरी के बीच आज भी सोशल इस्सुअस पर बेस फ़िल्में भी खूब बन रही है । साहित्य मीडिया लेखकों और सिनेमा की दूरियों साहित्यकारों एवं मीडिया लेखकों के प्रति अरुचि के संदर्भ में कमलेश्वर लिखते हैं,“भारतीय सिनेमा की इस स्थिति के लिए अपने समकालीन लेखकों को दोषी मानता हूँ- खासतौर से हिंदी लेखकों को दोषी मानता हूँ। क्षेत्रीय सिनेमा के पास अपने साहित्यिक लेखक हैं, पर हिन्दी सिनेमा में हिन्दी लेखकों का अकाल है।”14 उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी सिनेमों में साहित्यकारों और समीक्षकों का सदा अभाव रहा है और यह अभाव सिनेमा को साहित्य और समीक्षा; दोनों विधाओं से विलग किए हुए है। साहित्यकार और समीक्षक वर्ग सिनेमा की शक्ति को पहचानने के बावज़ूद भी साहित्यिक अहंकार और संकुचित सोच के कारण, इस नए माध्यम को आत्मसात करने से घबरा रहा है। यह वर्ग यह भूल जाता है कि सम्यक् सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए शक्तिशाली कलामाध्यमों का इस्तेमाल जरूरी है। अतः जब तक साहित्यकारों और मीडिया समीक्षकों का ध्यान इस क्षेत्र की और नहीं जाएगा, तब तक सिनेमा की वास्तविक शक्ति से हम अपरिचित रहेंगें और सिनेमा के विकास के साथ-साथ साहित्य और मीडिया को भी समान लाभ मिलेगा।
 संदर्भ सूची
1.       डॉo स्मित मिश्र; भारतीय मीडिया :अंतरग पहचान; पृ॰172, भारत पुस्तक भंडार, दिल्ली-94, सं॰2008
2.       विजय अगग्रवाल; फिल्म साहित्य की विडंबना; सिनेमा की संवेदना; पृ॰104 प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली-02, सं॰ 1995
3.       वही; पृ॰104
4.       वही; पृ॰ 104
5.       विनोद भारद्वाज; नया सिनेमा; सिनेमाः एक समझ; पृ॰16; मध्यप्रदेश फिल्मनिगम, भोपाल; सं॰1993
6.       वृंदावन लाल वर्मा; सिनेमा को काली मैया उठा ले जाएँ; समकालीन सृजन अंक17, पृ॰13
7.       फिरोज रंगूनवाला; फिल्म पत्रकारिता विवाद ही विवाद; पटकथा; फिल्म-वार्षिकी-1993; पृ॰187
8.       कमलेश्वर, उसके बाद(पटकथा); पृ॰56; राजपाल एंड संस, दिल्ली,सं॰ 1986
9.       विनोद भारद्धाज; नया सिनेमा; सिनेमाः एकसमझ; पृ॰16; मध्य प्रदेश फिल्म निगम, भोपाल; सं॰1993
10.   वही; पृ॰16
11.   अनुपम औझा; भारतीय सिने-सिद्धांत; पृ॰196; राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा॰लि॰, दिल्ली-51; सं॰2002
12.   वही; पृ॰196
13.   वही; पृ॰ 197
14.   कमलेश्वर; उसके बाद(पटकथा), पृ॰5 राजपाल एंड संस, दिल्ली, सं॰ 1986