मीडिया/प्रेस लॉ की पाठ्य सामग्री...
संकलन
एवं संपादन : डॉ रामशंकर
कानून की
अवधारणा एवं अर्थ
विधि
(या, कानून)
किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों
(इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त
आवश्यक है।
विधि
मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये
जाते है, जिनका
पालन अनिवर्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देता है। कानूनी प्रणाली
कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है।
विधि
शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि
के विधान' का आशय
'विधाता
द्वारा बनाये हुए कानून' से है।
जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते
है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत
का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया
प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक
जीव कानूनों द्वारा संचालित है।
आज
समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि
का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं
दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक
कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में
भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से
लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम
से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के
समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण
दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व
कायम हो पाता है।
कानून
की अवधारणा
कानून
या विधि का मतलब है मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित और संचालित करने वाले नियमों, हिदायतों, पाबंदियों
और हकों की संहिता। लेकिन यह भूमिका तो नैतिक, धार्मिक और अन्य सामाजिक
संहिताओं की भी होती है। दरअसल, कानून इन संहिताओं से कई
मायनों में अलग है। पहली बात तो यह है कि कानून सरकार द्वारा बनाया जाता है लेकिन
समाज में उसे सभी के ऊपर समान रूप से लागू किया जाता है। दूसरे, ‘राज्य
की इच्छा’ का रूप
ले कर वह अन्य सभी सामाजिक नियमों और मानकों पर प्राथमिकता प्राप्त कर लेता है।
तीसरे, कानून
अनिवार्य होता है अर्थात् नागरिकों को उसके पालन करने के चुनाव की स्वतंत्रता नहीं
होती। पालन न करने वाले के लिए कानून में दण्ड की व्यवस्था होती है। लेकिन, कानून
केवल दण्ड ही नहीं देता। वह व्यक्तियों या पक्षों के बीच अनुबंध करने, विवाह, उत्तराधिकार, लाभों
के वितरण और संस्थाओं को संचालित करने के नियम भी मुहैया कराता है। कानून स्थापित
सामाजिक नैतिकताओं की पुष्टि की भूमिका भी निभाता है। चौथे, कानून
की प्रकृति ‘सार्वजनिक’ होती
है क्योंकि प्रकाशित और मान्यता प्राप्त नियमों की संहिता के रूप में उसकी रचना
औपचारिक विधायी प्रक्रियाओं के ज़रिये की जाती है। अंत में कानून में अपने अनुपालन
की एक नैतिक बाध्यता निहित है जिसके तहत वे लोग भी कानून का पालन करने के लिए
मजबूर होते हैं जिन्हें वह अन्यायपूर्ण लगता है। राजनीतिक व्यवस्था चाहे
लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, उसे कानून की किसी न किसी
संहिता के आधार पर चलना पड़ता है। लेकिन, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं
में बदलते समय के साथ अप्रासंगिक हो गये या न्यायपूर्ण न समझे जाने वाले कानून को
रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है।
कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिए नागरिकों को
शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरुआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून
का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर ज़बरदस्त
बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक
अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र
और विधायी मूल्य-प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
ཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇ
कानून
एवं न्याय
भारतीय
संविधान में सभी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं जीवन की सुरक्षा का आश्वासन दिया
गया है। संविधान में सभी को मौलिक अधिकार प्रदान किये गए हैं ताकि नागरिकों का हित
स्वेच्छ निर्णयों से प्रभावित नहीं हो। इस खंड में कानून,नियमों
एवं अधिनियमों, विधिक
संस्थानों, आयोगों
एवं अधिकरणों के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान की गई है। आप सर्वोच्च न्यायालय, उच्च
न्यायालयों, अधीनस्थ
न्यायालयों, वैकल्पिक
विवाद निपटारे (एडीआर), क़ानूनी
सहायता एवं व्यवसाय इत्यादि से संबंधित जानकारी भी यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं।
आप इसके विभिन्न ऑनलाइन सेवाओं एवं नि:शुल्क विधिक सेवा योजनाओं के बारे में
जानकारी यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं। इस विषय से संबंधित प्रलेख एवं प्रपत्र भी
इस खंड में उपलब्ध हैं।
ཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇ
संविधान और प्रेस
किसी भी लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति
या बोलने की आजादी काफी मायने रखती है क्योंकिं यदि आज़ादी बने रहे तो व्यक्तियों
के बाकी के अधिकार भी बने रहते है। यदि देखा
जाये तो अभिनय,मुद्रित शब्द,बोले गए शब्द और व्यंग्य चित्र आदि के द्वारा मिली अभिव्यक्ति के आज़ादी बाकी
के सभी आज़ादियों का मूल है। इसीलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति का मूल आधार
माना गया है। संविधान में मूल रूप से कुल 7 मौलिक अधिकार वर्णित किये थे जिन्हें
भाग ३ के अनुच्छेद 12 से 35 तक में
विस्तार से बताया गया है।
सन 1976 में 44 वें संविधान संसोधन में
सम्पति के अधिकार को मूल अधिकारों में से हटा दिया गया इस प्रकार अब कुल भारतीय
नागरिक को कुल ६ अधिकार प्राप्त है :-
समता का अधिकार (अनुच्छेद 14 -18)
स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19)
शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद
25-28)
संस्कृति और शिक्षा संबंधी
अधिकार(अनुच्छेद 29 -30)
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद
32-34)
हालाकिं संविधान में प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता का कहीं कोई
सीधा उल्लेख नहीं किया गया है।
लेकिन अनुच्छेद 19 में दिए गए स्वतंत्रता
के मूल अंधिकार को प्रेस की स्वतंत्रता के समकक्ष माना गया है।
प्रेस की आज़ादी
सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर संविधान के
प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए प्रेस की आज़ादी की व्याख्या की है। चूकीं मीडिया ,प्रेस का ही और विस्तारित स्वरुप है इसलिए हम मीडिया की आज़ादी को हम प्रेस की
आज़दी के समरूप मान सकते है।
सार्वजनिक मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से
बहस,चर्चा,परिचर्चा।
किस भी अमेचर का प्रकाशन और मुद्रण।
किसी भी विचार या वैचारिक मत का मुद्रण
और प्रकाशन।
किस भी श्रोत से जनहित की सूचनाएं एवम तथ्य एकत्रित करना।
सरकारी विभागों,सरकारी उपक्रमों सरकारीप्राधिकर्णों और लोकसेवको कार्यों एवम कार्यशैली की
समीक्षा करना,उनकी आलोचना करना।
प्रकाशन या प्रकाशन सामग्री का अधिकार
अर्थात कौन सी खबर प्रकशित या प्रसारित करनी है।
मीडिया माध्यम का मूल्य/शुल्क निर्धारित
करना,माध्यम केप्रचार के लिए नीतितेकरण और
अपनी योजनानुसार,सरकारी दबाव से मुक्त रहकर संबंधी गतिविधि चलाना।
यदि किसी कर के प्रसार पर विपरीत प्रभाव
पड़ता हो टॉस कर से मुक्ति।
प्रेस की स्वतन्त्रता में पुस्तिकाएं,पत्रक और सूचना के अन्य भी सम्मिलित
है।
मीडिया की स्वतंत्रता हमेशा विवाद का
रहा है क्योकिं मीडिया पर न तो पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगाना उचित है और न
ही इसे हर कानून से सकता है। इस तरह फैसले पर पहुचने के लिए न्यायपालिका ,कानून की युक्तियुक्त जाँच करता है। क्योकि संविधान के अनुच्छेद 19(2) में कहा
गया है की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर
केवल युक्तियुक्त प्रतिबन्ध ही लगाए जा सकते है। सर्वोच्च न्यायलय ने
निम्नलिखित मामलों में मीडिया पर
युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने को तर्कसंगत
ठहराया है-
राष्ट्र की प्रभुता और अखंडता
राज्य की सुरक्षा
विदेशी राज्यों के साथ संबंध
सार्वजनिक व्यवस्था
शिष्टाचार/सदाचार
न्यायालय की अवमानना।
मानहानि।
अपराध को उकसाना
ཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇ
संसद के विशेषाधिकार
विधायिका और मीडिया दोनों का ही सरोकार लोकहित
से जुड़े है ,इसीलिए विधायिका और मीडिया का बहुत गहरा अंतरसंबंध है । जब रिपोर्टर विधायिका का रिपोर्टिंग करता है ,तो
उसको संसद के विशेषाधिकार को ध्यान में रखकर रिपोर्टिंग करना चाहिए। अभिप्राय संसद
और विधान सभाओं दोनों से है।
हालांकि
पहले कई देशों में संसदीय कार्यवाही के दौरान रिपोर्टिंग वर्जित था विधायिका
महत्व को समझ लिया है,इसलिए
आज अधिकतर लोकतांत्रिक राष्ट्रों में संसदीयकार्यवाही के प्रकाशन और प्रसारण
संबंधी कोई प्रतिबन्ध नहीं है | भारत में भी सत्र के दौरान संसद में
चलने वाली कार्यवाही का सीधा प्रसारण ,प्रसार भारती के दिल्ली दूरदर्शन
द्वारा किया जाता है
विशेषाधिकार :-
विशेषाधिकार का सीधा सा अर्थ है ,किसी व्यक्ति वर्ग या समुदाय को
सामान्य से अलग कुछ असामान्य अधिकार प्राप्त होना |ऐसे अधिकार विशेषाधिकार के अंतर्गत
आता है क्योकिं ये अधिकार आम लोगों को प्राप्त नहीं होते है |ये
अधिकार कुछ विशेष लोगों को विशेष होने के कारण जो अधिकार मिलते है विशेषाधिकार है |
संसदीय विशेषाधिकार :- आम लोग संसदीय विशेषाधिकार का
अर्थ ,संसद के विशेषाधिकारों से लेते है लेकिन तकनिकी रूप से ऐसा नहीं है ।जैसा की
हम जानते है की संसद में लोक सभा,राज्य सभा के साथ-साथ महामहिम
राष्ट्रपति भी समाहित होते है ।भारतीय संविधान में जिन विशेषाधिकारों को वर्णित
किया गया है वे विशेषाधिकार केवल दोनों सदनों ,उनकी समितियां को और उनके सदस्यों को
ही प्राप्त है ।
भारतीय
संविधान में अनुच्छेद 105 संसद और 194 विधान्मंदलों के विशेषाधिकारों का वर्णन किया गया है।एवं 105(३) में सांसद की शक्तियों 194(3) में विधायकों के शक्तियों
(विशेषाधिकार) को बताया गया है ।
भारतीय
संविधान में यह कहा गया है की जब तक संसद
या विधानमंडल ऐसा कोई कानून नहीं बनाती तब तक सदस्यों की शक्तियों और विशेषाधिकार
के मामले में स्थिति वही रहेगी जो “हाउस ऑफ़ कामंस” की थी |अभी तक कानून बनाकर विशेषाधिकार को प्रभावित नहीं किया गया |जैसा
की हम जानते है की ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है इसलिए २६ जनवरी 1950 को वहां विशेषाधिकार की क्या स्थिति थी ,इसे सहिंता बद्ध या लीपिबद्ध नहीं
किया गया है ।
भारत
के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश और बाद में भारत के उपराष्ट्रपति (सभापति) बने
न्यायमूर्ति एम.हिदायतुल्ला ने संसदीय विशेषाधिकारों के संबंध में निम्नलिखित
निष्कर्ष दिए:-
1.
संसद को अपने विशेषाधिकारों का निर्णय करने का पूर्ण अधिकार है |
2. विशेषाधिकारों का विस्तार क्या हो और
इनका प्रयोग सदन के भीतर कब किया जाये ,इस बारे में भी अंतिम निर्णय संसद का
ही होगा |
3. अपनी अवमानना के लिए दोषी व्यक्ति को
सजा देने का अधिकार भी संसद को ही है |संसद ही यह फैसला कर सकती है की
अवमानना क्या है |
4. संसद को जुर्माना लगाने का अधिकार है |
5. संसद,सत्र के दौरान किसी व्यक्ति को
नजरबन्द तो कर सकती है लेकिन सत्रावसान के
तुरंत बाद नजरबंद व्यक्ति को छोड़ना होगा |
6. संसद या विधानमंडल न्यायलयों द्वारा
भेजे गए सम्मनों को स्वीकार करेंगे और आवश्यकता पड़ने पर सुनवाई के दौरान अपने
प्रतिनिधि भेजेंगे|
7.
सदन के माननीय सदस्यों को सत्र के दौरान किसी दीवानी मामलों में गिरफ्तार नहीं
किया जा सकता लेकिन अन्य प्रकार के मामलों में उन्हें सत्र के दौरान भी गिरफ्तार
किया जा सकता है |
संविधान प्रदत्त संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां
Ø संविधान के अनुच्छेद 105 के अंतर्गत संसद सदस्य को और अनुच्छेद 194 के अंतर्गत राज्यों की विधान सभा के सदस्यों को एक समान संसदीय विशेषाधिकार
प्राप्त हैं।
Ø अनुच्छेद 105(1) एवं 194(1) के अनुसार, प्रत्येक सदस्य को संसद में वाक्
स्वातंत्र्य प्राप्त होगा किंतु यह स्वतंत्रता इस संविधान के प्रावधानों तथा संसद की
प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों और आदेशों के अधीन होगी।
Ø सदन में किसी सदस्य के द्वारा कही गई
किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई
कार्यवाही नहीं की जाएगी और सदन के प्राधिकार के अधीन प्रकाशित किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में भी कोई कार्यवाही नहीं की
जाएगी।
Ø अनुच्छेद 105(3) एवं 194(3) के अनुसार, अन्य मामलों में सभी विशेषाधिकार औेर
उन्मुक्तियां वही होंगी जो संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 के पूर्व थीं, किंतु पूर्व में इस विषय पर कोई लिपिबद्ध संहिता नहीं है। अतः शेष विशेषाधिकार
परंपरानुसार नियत होते हैं।
Ø सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 135 क (1.2.1977 से लागू) के अनुसार, सदन के चालू रहने के दौरान या किसी अधिवेशन या बैठक या सम्मेलन के 40 दिन पूर्व या पश्चात किसी सदस्य को किसी सिविल आदेशिका के अधीन गिरफ्तार या
निरुद्ध नहीं किया जा सकता है।
ཇཇཇཇཇཇ ཇཇཇཇཇ
ཇཇཇཇཇ ཇཇཇཇཇ
ཇཇཇཇཇ ཇཇཇཇཇ
ཇཇཇཇཇ ཇཇཇཇཇ
ཇཇཇཇཇ
प्रेस एवं पुस्तक रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1867
समाचार
पत्रों, पत्रिकाओं, पुस्तक आदि के प्रकाशन में प्रेस यानि प्रिटिंग मशीन की प्रमुख भूमिका है।
इसके साथ ही समाचार पत्र आदि के प्रकाशन में संपादक, प्रकाशक व मुद्रक की महत्वपूर्ण
भूमिका है। यदि किसी पत्र पत्रिका में कोर्इ अवांछित सामग्री प्रकाशित हो जाती है
तो ऐसे में प्रेस एवं पुस्तक रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1867 के तहत सम्बन्धित पत्र-पत्रिका के विरूद्ध कार्यवाही की जा सकती है प्रकाशित
सामग्री के प्रकाशन की जिम्मेदारी किसकी है और वह जिम्मेदार व्यक्ति कौन हो यह तय
करने के लिए किसी भी पुस्तक, पत्र-पत्रिका आदि में उसमें प्रकाशित
सामग्री के लिये जिम्मेदार व्यक्तियों के नाम का उल्लेख किया जाता है। प्रेस एवं
पुस्तक रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1867 ऐसे मामलों में कानून की सहायता करता
है। प्रेस एवं पुस्तक रजिस्ट्रीकरण अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि हर पत्र
पत्रिका में मुद्रक, प्रकाशक, संपादक का नाम व प्रकाशन स्थल की जानकारी दी जाय। इसी अधिनियम में भारत में
समाचार पत्रों के पंजीयक (Registrar of Newspapers in India) के अधिकार व भूमिका व समाचार पत्र, पुस्तक, संपादक, मुद्रक, प्रकाशक आदि को परिभाषित भी किया गया है। इनमें कानून का उल्लंघन किये जाने पर
दी जाने वाली सजा का भी वर्णन किया गया है।
अधिनियम
के तहत प्रत्येक पुस्तक तथा समाचार पत्र में मुद्रक का नाम व मुद्रण स्थल, प्रकाशक का नाम व प्रकाशन स्थल का नाम छापा जाना अनिवार्य है जिससे यह
सुनिश्चित हो सके कि पत्र-पत्रिका या पुस्तक के मुद्रण व प्रकाशन का जिम्मेदार कौन
व्यक्ति है। इसी प्रकार संपादक का नाम छापा जाना भी अनिवार्य है। समाचार पत्र में
प्रकाशित सामग्री के आपत्तिजनक पाए जाने पर फौजदारी कानून की धारा 124 (अ) के अन्तर्गत राजद्रोह (Treason), धारा 292 के अन्तर्गत अश्लील सामग्री प्रकाशित करने तथा धारा 499 व 500 के अन्तर्गत संपादक पर मानहानि की कार्रवार्इ की जा सकती
है।
इस
अधिनियम के तहत यह व्यवस्था की गर्इ है कि देश भर में किसी भी भाषा में एक ही नाम
के दो समाचार पत्र नहीं हो सकते तथा किसी राज्य में एक नाम के दो समाचार पत्र नहीं
हो सकते भले ही वे अलग-अलग भाषाओं में ही क्यों न हो लेकिन अलग-अलग राज्यों में व
अलग भाषाओं में एक ही नाम का समाचार पत्र हो सकता है।
इस
अधिनियम के तहत प्रमुख प्रावधान निम्न हैं:
1.
प्रत्येक समाचार पत्र में मुद्रक, प्रकाशक व संपादक का नाम, मुद्रण व प्रकाशन स्थल के नाम का उल्लेख होना चाहिए।
2. मुद्रण के लिये जिलाधिकारी की अनुमति
आवश्यक है।
3. समाचार पत्र के मालिक व संपादक का नाम
प्रत्येक अंक में प्रकाशित होना चाहिए।
4. समाचार पत्र के नाम, प्रकाशन की भाषा, अवधि, संपादक, प्रकाशक आदि के नाम में परिवर्तन होने पर उसकी सूचना सम्बन्धित अधिकारियों को
दी जानी आवश्यक है।
5. एक वर्ष तक समाचार पत्र का प्रकाशन न हो
पाने की दशा में जानकारी सम्बन्धी घोषणा पत्र रद्द हो जाएगा।
6. प्रत्येक प्रकाशित समाचार पत्र की एक
प्रति रजिस्ट्रार आफ न्यूज पेपर्स इन इंडिया को तथा दो प्रतियाँ सम्बन्धित राज्य
सरकार को निशुल्क उपलब्ध करार्इ जानी चाहिए।
7.
रजिस्ट्रार आफ न्यूज पेपर्स इन इंडिया को वर्ष में एक बार समाचार पत्र का पूरा
विवरण प्रेषित किया जाय व इसे पत्र में भी प्रकाशित किया जाय।
इसके
अतिरिक्त अनेक अन्य प्रावधान भी इस अधिनियम में किये गए हैं जिनसे समाचार पत्रों व
पुस्तकों सम्बन्धी जानकारी का रिकार्ड रखा जा सके।
ཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇཇ
शासकीय
गुप्त बात अधिनियम 1923
इस अधिनियम की
विभिन्न धाराओं में महत्वपूर्ण परिभाषाओं तथा अन्य प्रावधानों का उल्लेख है। इसकी
परिभाषाओं के अनुसार ‘संसूचित’ करने से अभिप्राय है किसी बात को रेखाचित्र, रेखांक, प्रतिमान, चीज, टिप्पणी (नोट), दस्तावेज आदि के माध्यम से सूचना प्रसारित करना। इसी प्रकार ‘प्रतिषिद्ध स्थान’ से अर्थ है किसी
रक्षा संस्थान, आयुधशाला, नौसैनिक, सेना अथवा वायु सेना
का संस्थापन, सुरंग क्षेत्र, सिविल पोत का वायुयान आदि। गुप्त दस्तावेजों को रखे जाने का स्थान, रेल, सड़क, जलमार्ग, पुल आदि भी प्रतिषिद्ध स्थान के दायरे में आते हैं। अधिनियम की धारा 3 जासूसी या गुप्तचरी
से सम्बन्धित निषेधात्मक कायोर्ं का वर्णन करती है। इसके तहत देश की सुरक्षा तथा
राष्ट्रहित के विरूद्ध कार्य के उद्देश्य से निम्न कार्य किया
जाना दण्डनीय माना गया है-
1. किसी
प्रतिषिद्ध स्थान में प्रवेश करना, उसके निकट जाना, उसका
निरीक्षण करना, उसका
ऐसा रेखाचित्र, प्लान, माडल
या नोट बनाना जो शत्रु के लिये उपयोगी हो।
2. ऐसी
कोर्इ सूचना प्रकाशित करना या किसी व्यक्ति को संकेत, कूटभाषा, माडल, प्लान, नोट, लेख
अथवा दस्तावेज के माध्यम से कोर्इ ऐसी सूचना देना जो किसी रूप में शत्रु के लिये
उपयोगी हों अथवा जिनके प्रकटीकरण से देश की सार्वभौमिकता व एकता, सुरक्षा
अथवा अन्य राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों पर विपरीत प्रभाव पड़े।
ऐसा कोर्इ अपराध
करने के दोषी व्यक्ति को इस अधिनियम के तहत 14 वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है। इस
अधिनियम की धारा 5 में उन जानकारियों
का उल्लेख है जिन्हें सरकार गुप्त मानती हो। यहां उल्लेखनीय है कि यद्यपि यह धारा
सीधे तौर पर प्रेस के विरूद्ध नहीं है लेकिन प्रेस इससे बहुत ज्यादा प्रभावित
अवश्य होती है। इसका दायरा बहुत व्यापक होने के कारण सरकार को विभिन्न मामलों में
इसका उपयोग करने का अधिकार है।
इसके
अतिरिक्त यदि कोर्इ व्यक्ति अपने अधिकार क्षेत्र की जानकारी किसी विदेशी के लाभ के
लिये उपयोग करे, देश की सुरक्षा के खिलाफ प्रयोग करे, ऐसे रेखाचित्र, लेख, दस्तावेज, माडल आदि अपने अधिपत्य में रखे जिन्हें रखने का वह अधिकारी न हो अथवा अपने
अधिकार क्षेत्र के ऐसे दस्तावेजों की सावधानीपूर्वक रक्षा न करे जिससे उनके शत्रु
के हाथ पड़ जाने का खतरा हो तो वह इस धारा के तहत तीन वर्ष की कैद या जुर्माने
अथवा दोनों का भागी होगा।
इसी
प्रकार यदि किसी व्यक्ति के पास से कोड, संकेत, स्केच, माडल, लेख आदि के रूप में कोर्इ ऐसी जानकारी
प्राप्त हो जो किसी प्रतिबंधित क्षेत्र से सम्बन्धित हो, जिसका सम्बन्ध ऐसी वस्तु या स्थान से हो जिसके प्रकटीकरण से किसी रूप में
शत्रु को मदद मिले या देश की एकता व अखण्डता आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े, जो इस अधिनियम का उल्लंघन करके हासिल की गर्इ हो या किसी वर्तमान अथवा पूर्व
सरकारी अधिकारी या अपने मातहत किसी वर्तमान अथवा पूर्व कर्मचारी से हासिल की गर्इ
हो तो वह व्यक्ति जिसके पास से ऐसी निषिद्ध जानकारी प्राप्त होती है तीन वर्ष के
कारावास, जुर्माने अथवा दोनों से दण्डित किया जा सकता है।
इस
अधिनियम की धारा 6 भी बहुत महत्वपूर्ण है तथा इसके तहत निम्न कायोर्ं को निषिद्ध माना गया है:
1. किसी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी
(सेना, नौसेना, वायु सेना, पुलिस आदि) की यूनिफार्म अथवा उससे मिलती-जुलती यूनिफार्म इस उद्देश्य से
पहनना कि लोग उससे धोखा खा जाएं।
2. किसी दस्तावेज, घोषणापत्र, आवेदन पत्र इत्यादि में कोर्इ झूठी जानकारी देना अथवा किसी महत्वपूर्ण जानकारी
को छुपाना।
3. छद्म रूप से स्वयं को सरकारी पद पर
दर्शाना।
4. सरकारी प्रयोग की मुहर आदि का गलत
उपयोग, अनाधिकृत निर्माण या विक्रय अथवा व्यापार करना अथवा अनाधिकृत व्यक्ति को
सौंपना।
5. पासपोर्ट, सरकारी दस्तावेज या प्रमाणपत्र, लार्इसेंस आदि की नकल करना अथवा उनमें
कोर्इ हेराफेरी अथवा परिवर्तन करना।
6. विदेशी एजेंटों से सम्पर्क करना जिससे
देश के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़े।
7. इस प्रकार के अपराध करने वालों को
आश्रय या संश्रय देना।
इन
अपराधों के लिये भी इस अधिनियम के तहत तीन वर्ष के कारावास, जुर्माने अथवा दोनों से दण्डित किये जाने का प्राविधान है।
…………………………………………………………………………………………………
मानहानि: प्रकार और क़ानूनी प्रावधान
मानहानि की परिभाषा ( 1963) :
किसी
व्यक्ति, व्यापार, उत्पाद, समूह, सरकार, धर्म या राष्ट्र के प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाला असत्य कथन मानहानि (Defamation) कहलाता है। अधिकांश न्यायप्रणालियों में मानहानि के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही
के प्रावधान हैं ताकि लोग विभिन्न प्रकार की मानहानियाँ तथा आधारहीन आलोचना अच्ची
तरह सोच विचार कर ही करें।
मानहानि
असल में वो प्रभाव है जो किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति की आधारहीन आलोचना
करने उसके बारे में गलत धारणा बिना किसी पुख्ता आधार के समाज में पेश करना से
व्यक्ति की छवि पर पड़ता है और इसके लिए जिस व्यक्ति के बारे में भ्रामक बातें कही
जा रही है वो व्यक्ति न्यायालय में अपने खिलाफ हो रहे दुष्प्रचार के खिलाड़ उसकी
छवि को जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई के लिए मुकदमा कर सकता है |
परिचय :
मानहानि
दो रूपों में हो सकती है- लिखित रूप में या मौखिक रूप में। यदि किसी के विरुद्ध
प्रकाशितरूप में या लिखितरूप में झूठा आरोप लगाया जाता है या उसका अपमान किया जाता
है तो यह “अपलेख” कहलाता है। जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई अपमानजनक कथन या भाषण किया जाता
है। जिसे सुनकर लोगों के मन में व्यक्ति विशेष के प्रति घृणा या अपमान उत्पन्न हो
तो वह “अपवचन” कहलाता है।
मानहानि
करने वाले व्यक्ति पर दीवानी और फौजदारी मुकदमें चलाए जा सकते हैं। जिसमें दो वर्ष
की साधारण कैद अथवा जुर्माना या दोनों सजाएँ हो सकती हैं।
सार्वजनिक
हित के अतिरिक्त न्यायालय की कार्यवाही की मूल सत्य-प्रतिलिपि मानहानि नही मानी
जाती। न्यायाधीशों के निर्णय व गुण-दोष दोनों पर अथवा किसी गवाह या गुमास्ते आदि
के मामले में सदभावनापूर्वक विचार प्रकट करना मानहानि नही कहलाती है। लेकिन इसके
साथ ही यह आवश्यक है कि इस प्रकार की टिप्पणियाँ या राय न्यायालय का निर्णय होने
के बाद ही दिये जाने चाहिएँ।
सार्वजनिक
हित में संस्था या व्यक्ति पर टिप्पणी भी की जा सकती है या किसी भी बात का प्रकाशन
किया जा सकता है। लेकिन यह ध्यान रखा जाये कि अवसर पड़ने पर बात की पुष्टि की जा
सके। कानून का यह वर्तमानरूप ही पत्रकारों के लिए आतंक का विषय है।
अधिकांश
मामलों में बचाव इस प्रकार हो सकता है-
1-
कथन की सत्यता का प्रमाण।
2-
विशेषाधिकार तथा
3-
निष्पक्ष टिप्पणी तथा आलोचना।
यदि
किये गये कथनों का प्रमाण हो हो तो अच्छा बचाव होता है। विशेषाधिकार सदैव
अनुबन्धित और सीमित होता है। समाचारपत्रों का यह विशेषाधिकार विधायकों आर
न्यायालयों को भी प्राप्त होता है। अतः कहने का तात्पर्य यह है कि आलोचना का विषय
सार्वजनिक हित का होना चाहिएऔर स्पष्टरूप से कहे गये तथ्यों का बुद्धिवादी
मूल्यांकन होने के साथ-साथ यह पूर्वाग्रह से भी परे होना चाहिए।
मानहानि की दशा में सजा के प्रावधान :
इसके
लिए भारतीय कानून के अनुसार दो धाराएँ है जो इसे समझाती है और वो है IPC यानि इंडियन पेनेल कोड (Indian Penal Code) के अनुसार धारा 499 और धारा 500 के
अनुसार मानहानि के अपराध में दोषी पाये जाने पर दोषी को दो साल तक की सजा हो सकती
है
उदाहरण:
हालाँकि
भारतीय परिवेश में सामान्य तौर पर यह एक कम ही सामने आने वाला मुद्दा है क्योंकि
इस तरह की शिकायतों को स्थानीय लोग अपने स्तर पर सुधार लेते है और अगर ऐसा होता भी
है कि कोई व्यक्ति मानहानि का दावा करता है तो विशेष परिस्थिति को छोड़कर सामान्यत
यह साबित करने में बहुत वक़्त जाया होता है कि टिप्पणी करने वाला सही है या उसके
पीछे कोई आधार भी है लेकिन आप अगर भारतीय राजनीती की बात करे तो कई तरह के ऐसे
मामले है जो चर्चित रहे है | उसमे से एक है – मशहूर राजनीतिज्ञ सुभ्रमन्यम स्वामी के खिलाफ तमिलनाडु की सरकार ने मानहानि के
पांच मामले कोर्ट में दायर किये थे जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने बाद में रोक लगा दी थी
और उन पर आरोप ये था कि उन्होंने मुख्यमंत्री के खिलाफ सोशल साइट्स पर अपमानजनक
टिप्पणियाँ की थी |
.....................................................................................................................
...........................
भारतीय प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम, 1957
परिचय :
कापीराइट
का अर्थ है किसी कृति के संबंध में किसी एक व्यक्ति, व्यक्तियों या संस्था का निश्चित अवधि
के लिये अधिकार। मुद्रणकला का प्रचार होने के पूर्व किसी रचना या कलाकृति से किसी
के आर्थिक लाभ उठाने का कोई प्रश्न नहीं था। इसलिये कापीराइट की बात उसके बाद ही
उठी है। कापीराइट का उद्देश्य यह है कि रचनाकार, या कलाकार या वह व्यक्ति अथवा संस्था
जिसे कलाकार या रचनाकार ने अधिकार प्रदान किया हो उस कलाकृति और रचना से निर्धारित
अवधि तक आर्थिक लाभ उठा सके तथा दूसरा कोई इस बीच उससे उस रूप में लाभ न उठा पाए।
भारत
में इस समय कापीराइट (प्रतिलिप्यधिकार या कृतिस्वाम्य) की जो व्यवस्था है वह 1957
के प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम और उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों द्वारा परिचालित होती
है। इसके पूर्व भारत में 1914 में जो कापीराइट ऐक्ट बना था वह बहुत कुछ ब्रिटेन के
‘इंपीरियल कापीराइट ऐक्ट (1911)’ पर आधारित था। ब्रिटेन का यह कानून और
उसके नियम, जो भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के अनुच्छेद 18 (3) के अनुसार अनुकूलित कर लिए गए
थे, 1957 तक चलते रहे। 1957 में नया कानून बनने पर पुराना कानून निरस्त हो गया।
भारतीय प्रतिलिप्याधिकार अधिनियम, 1957
हमारे
देश में इस समय जो प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम 1957 से लागू है उसके अनुसार यह
व्यवस्था है कि अधिनियम के अमल में आने के बाद से एक प्रतिलिप्यधिकार कार्यालय
स्थापित किया गया है जो इसी कार्य के लिये नियुक्त एक रजिस्ट्रार के अधीन है। इस
रजिस्ट्रार को केंद्रीय सरकार के नियंत्रण और निर्देशन में काम करना पड़ता है तथा
उसके कई सहायक हैं। इस कार्यालय का मुख्य काम यह है कि वह एक रजिस्टर रखे जिसमें
लेखक या रचनाकार के अनुरोध पर रचना का नाम, रचनाकार या रचनाकारों के नाम, पते और कापीराइट जिसे हो उसके नाम, पते दर्ज किए जाएँ।
इसके
साथ ही एक प्रतिलिप्यधिकार मंडल (कापीराइट बोर्ड) की स्थापना की गई जिसका कार्यालय
प्रधान भी रजिस्ट्रार ही होता है। इस मंडल को किन्हीं मामलों में दीवानी अदालतों
के अधिकार प्राप्त हैं। रजिस्ट्रार के आदेशों के विरोध में इस मंडल में अपील भी की
जा सकती है।
मंडल
का अध्यक्ष उच्च न्यायालय का जज, या सेवानिवृत्त जज हो सकता है तथा
उसको सहायता के लिये नियुक्त तीनों व्यक्तियों के लिये यह आवश्यक है कि वे साहित्य
और कलाओं के जानकार हों। इसके आदेशों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा
सकती है।
यहां प्रयुक्त कार्यों का अर्थ हैं :-
साहित्यिक
रचना :- इसमें कम्प्यूटर कार्यक्रम, सारणियां, संकलन और कम्प्यूटर डाटाबेस शामिल हैं।
नाट्य
रचना :- इसमें गायन, नृत्य रचना या किसी प्रदर्शन में मनोरंजन का कोई रूप, नाट्य प्रबंध या अभिनय जिसका रूप लिखित या किसी अन्य रूप में तय हो, शामिल हैं।
संगीत
रचना :- इसमें संगीत रचनाएं शामिल हैं, ऐसी रचनाओं का ग्राफीय रूप शामिल है
लेकिन इसमें संगीत के साथ गाए, बोले या अभिनीत किए जाने वाले शब्द
या अंगविक्षेप शामिल नहीं हैं।
कलात्मक
रचना :- इसका अर्थ है चित्र, मूर्ति, आलेख (जिसमें आरेख, मानचित्र, चार्ट या प्लान भी शामिल है), उत्कीर्णन, या फोटोग्राफ, भले ही उनमें कलात्मक गुण हों या न हों। इसमें स्थापत्य रचनाएं और कलात्मक
कारीगरी की कोई अन्य रचनाएं भी शामिल हो सकती हैं।
चलचित्र
रचना :- इसका अर्थ है किसी ऐसी प्रक्रिया में जरिए, जिससे किसी भी तरह चलती-फिरती छवि
निर्मित की जा सकती है, बनाए गए किसी माध्यम पर दृश्य रिकार्डिंग की कोई रचना।
ध्वनि
रिकार्डिंग :- इसका अर्थ है ध्वनियों की रिकार्डिंग जिससे ध्वनियां निर्मित की
जा सकती हैं, उस माध्यम पर ध्यान दिए बिना, जिससे ध्वनियां निर्मित की गई हो।
यहां
‘संबंधित अधिकार या निकटवर्ती अधिकार’ है कलाकारों (उदाहरणार्थ अभिनेताओं,गायकों
और संगीतकारों), फोनोग्राम (ध्वनि रिकार्डिंग) के निर्माताओं और प्रसारण संगठनों के अधिकार।
सन
1984 में किए गए संशोधन
विडियो
फ़िल्में भी सिनेमा फिल्मों की भांति होती है |
साहित्यिक
कृति में संकलन ,कंप्यूटर डिस्क तथा सूचनाओं को संग्रहित करने वाले कंप्यूटर उपकरण भी शामील होंगे|
प्रत्येक
रिकॉर्ड तथा विडियो के पैक पर ऐसी घोषणा छापना आवश्यक है कि-उनमें किसी
प्रतिलिप्यधिकार का उल्लंघन नहीं किया गया और विडियो फ़िल्में के प्रदर्शन के लिए
आवश्यक प्रमाणीकरण करा लिया गया है |
कानून
का उल्लंघन करने पर एक वर्ष के स्थान पर न्यूनतम 6 मास और अधिकतम 3 वर्ष के
कारागार अथवा जुर्माने या दोनों की सजा दी जा सकती है |
दोबारा
अपराध करने पर दंड दुगुना भी किया जा सकता है |
................................................................................................................................................
श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मी अधिनियम ,1955
परिचय:
पत्रकारों के लिए सन 1955 में संसद ने पत्रकारों की चिरकालीन
मांग को मूर्त रूप देते हुए श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,1955
पारित किया.इसका उद्देश्य समाचारपत्रों और संवाद समितियों में काम करनेवाले
श्रमजीवी पत्रकारों तथा अन्य व्यक्तियों के लिए कतिपय सेवा-शर्तें निर्धारित व
विनियमित करना था.इससे पहले अखबारी कर्मचारियों को श्रेणीबद्ध करने,कार्य
के अधिकतम निर्धारित घंटों, छुट्टी,मजदूरी की दरों के निर्धारण और पुनरीक्षण करने,भविष्य-निधि और ग्रेच्युटी आदि के
बारे में कोई निश्चित व्यवस्था नहीं थी.पत्रकारों को कानूनी तौर पर कोई आर्थिक व
सेवारत सुरक्षा प्राप्त नहीं थी.
श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मी अधिनियम ,1955
पत्रकारों
को कानूनी तौर पर कोई आर्थिक व सेवारत सुरक्षा प्राप्त नहीं थी.इस कानून में समाज
में पत्रकार के विशिष्ट कार्य और स्थान तथा उसकी गरिमा को मान्यता देते हुए संपादक
और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों के हित में कुछ विशेष प्रावधान किए गए हैं.इनके आधार
पर उन्हें सामान्य श्रमिकों से,जो औद्योगिक सम्बन्ध अधिनियम,1947
से विनियमित होते हैं,कुछ अधिक लाभ मिलते हैं.पहले यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं था
पर 1970 में इसका विस्तार वहां भी कर दिया गया.अतः अब यह सारे देश के पत्रकारों व
अन्य समाचारपत्र-कर्मियों के सिलसिले में लागू है
परिभाषा
श्रमजीवी
पत्रकार की कानूनी परिभाषा पहली बार इस अधिनियम से ही की गई.इसके अनुसार श्रमजीवी
पत्रकार वह है जिसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता हो और वह किसी समाचारपत्र स्थापन
में या उसके सम्बन्ध में पत्रकार की हैसियत से नौकरी करता हो.इसके अन्तर्गत संपादक,अग्रलेख- लेखक, समाचार-संपादक,समाचार
संवाददाता उप-संपादक, फीचर लेखक,प्रकाशन-विवेचक (कॉपी,टेस्टर),रिपोर्टर,संवाददाता (कौरेसपोंडेंट),व्यंग्य-चित्रकार (कार्टूनिस्ट),संचार
फोटोग्राफर और प्रूफरीडर आते हैं.अदालतों के निर्णयों के अनुसार पत्रों में काल
करनेवाले उर्दू-फारसी के कातिब,रेखा-चित्रकार और सन्दर्भ-सहायक भी
श्रमजीवी पत्रकार हैं.कई पत्रों के लिए तथा अंशकालिक कार्य करनेवाला पत्रकार भी
श्रमजीवी पत्रकार है यदि उसकी आजीविका का मुख्य साधन अर्थात उसका मुख्य व्यवसाय
पत्रकारिता है.किन्तु,ऐसा कोई व्यक्ति जो मुख्य रूप से प्रबंध या प्रशासन का कार्य करता है या
पर्यवेक्षकीय हैसियत से नियोजित होते हुए या तो अपने पद से जुड़े कार्यों की प्रकृति
के कारण या अपने में निहित शक्तियों के कारण ऐसे कृत्यों का पालन करता है जो
मुख्यतः प्रशासकीय प्रकृति के हैं,तो वह श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा
में नहीं आता है.इस तरह एक संपादक श्रमजीवी पत्रकार है यदि वह मुख्यतः प्रशासकीय
प्रकृति के हैं,तो वह श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा में नहीं आता है.इस तरह एक संपादक श्रमजीवी
पत्रकार है यदि वह मुख्यतः सम्पादकीय कार्य करता है और संपादक के रूप में नियोजित
है.पर यदि वह सम्पादकीय कार्य कम और मुख्य रूप से प्रबंधकीय या प्रशासकीय कार्य
करता है तो वह श्रमजीवी पत्रकार नहीं रह जाता है
अधिनियम
की धारा 3 (1) से श्रमजीवी पत्रकारों के सम्बन्ध में वे सब उपबंध लागू किये गए हैं
जो औद्योगिक विकास अधिनियम,1947 में कर्मकारों (वर्कमैन)पर लागू होते हैं |
छंटनी का नियम:
धारा
3 (2) के जरिये पत्रकारों की छंटनी के विषय में यह सुधार कर दिया गया है कि छंटनी
के लिए संपादक को छह मास की और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों को तीन मास की सूचना देनी
होगी.संपादकों और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों को इस सुधार के साथ-साथ वह सभी अधिकार
और विशेषाधिकार प्राप्त है जो औद्योगिक विकास कानून के अन्तर्गत अन्य कर्मकारों को
सुलभ है |
तनख्वाह के संबंध में:
धारा
8 (1) में उपबंधित किया गया है कि केंद्रीय सरकार एक निर्धारित रीति से श्रमजीवी
पत्रकारों और अन्य समाचारपत्र-कर्मचारियों के लिए मजदूरी की दरें नियत कर सकेगी और
धारा 8 (2) के तहत मजदूरी कि दरों को वह ऐसे अंतरालों पर, जैसा वह ठीक समझे, समय-समय पर पुनरीक्षित कर सकेगी। दरों का निर्धारण और पुनरीक्षण कालानुपाती
(टाइम वर्क) और मात्रानुपाती (पीस वर्क) दोनों प्रकार के कामों के लिए किया जा
सकेगा। इसलिए धारा 9 में एक मजदूरी बोर्ड के गठन का प्रावधान किया गया है। वर्तमान
में मजीठिया वेतन बोर्ड लागू है और मजदूरी दरें वेतन बोर्ड की दरों से किसी तरह कम
नहीं होगी नहीं तो धारा 13 के तहत अधिनियम का उल्लंघन करने के आरोप में 500 रूपए
का जुर्माना अदा करना पड़ेगा
काम का समय:
धारा
6 के तहत काम के समय का प्रावधान है। चार सप्ताहों में 144 घंटों से ज्यादा काम
नहीं लिया जा
सकता।
सात दिन में एक दिन (24 घंटे) का विश्राम। दो प्रकार की छुट्टियां हैं पहली
उपार्जित छुट्टी और
चिकित्सा
छुट्टी। उपार्जित छुट्टी काम पर व्यतीत अवधि की 1/11 से कम नहीं होगी और यह पूरी
तनख्वाह पर मिलेगी। चिकित्सा प्रमाण-पत्र पर चिकित्सा छुट्टियाँ कार्य पर व्यतीत
अवधि की 1/18 से कम नहीं होंगी। यह आधी तनख्वाह पर दिया जाएंगा। मतलब एक माह की
उपार्जित छुट्टी व चार सप्ताह की मेडिकल छुट्टी (आधे वेतन पर)। वैसे धारा 7 के तहत
काम के घंटों का प्रावधान संपादक पर लागू नहीं होता। लेकिन श्रमजीवी पत्रकारों से
दिन की पारी में 6 घंटे से ज्यादा व रात्रि की पारी में साढ़े पांच घंटे से ज्यादा
काम नहीं लिया जा सकता। दिन में चार घंटे में एक घंटे का विश्राम व रात्रि में तीन
घंटे में आधे घंटे का विश्राम दिया जायेगा। एक पत्रकार वर्ष में 10 सामान्य
छुट्टियों का अधिकारी है। लेकिन यदि किसी कारणवश छुट्टी के दिन भी कार्य करना
पड़ता है तो मालिक व पत्रकार की सहमति से किसी अन्य दिन छुट्टी ले सकता है। 11 माह
में एक माह की उपार्जित छुट्टी दी जाएगी।
किन्तु
90 उपार्जित छुट्टियां एकत्र हो जाने के बाद और छुट्टियां उपार्जित नहीं मानी
जायेंगी। सामान्य छुट्टियों, आकस्मिक छुट्टियों और टीका छुट्टी की
अवधि को काम पर व्यतीत अवधि माना जाएगा। प्रत्येक 18 मास की अवधि में एक मास की
छुट्टी चिकित्सक के प्रमाण-पत्र पर दी जाएगी। यह छुट्टी आधे वेतन पर होगी। ऐसी
महिला श्रमजीवी पत्रकारों को, जिनकी सेवा एक वर्ष से अधिक की हो, तीन मास तक की प्रसूति छुट्टी दी जाएगी। यह छुट्टी गर्भपात होने पर भी सुलभ की
जाएगी। इसके अलावा नियोजक की इच्छा पर वर्ष में 15 दिन की आकस्मिक छुट्टी दी
जाएगी।
...........................................................................................................................................
सूचना का अधिकार विधेयक, 2005
परिचय
मैग्सैसे
अवार्ड विजेता श्रीमती अरूणा रॉय के नेतृत्व में व मजदूर किसान शक्ति संगठन के
बैनर तले सूचना का अधिकार के लिए वर्ष 1992 में राजस्थान से आंदोलन शुरू हुआ था।
इसी क्रम में अप्रेल 1996 में सूचना के अधिकार की मांग को लेकर चालीस दिन का धरना
दिया गया। राजस्थान सरकार पर दबाब बढ़ने पर तत्कालीन मुख्य मंत्री अशोक गहलोत
ने वर्ष 2000 में राज्य स्तर पर सूचना का अधिकार कानून अस्तित्व में लाया। इसके
बाद देखते ही देखते नौ राज्यों दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, राजस्थान, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, असम, गोवा व मध्यप्रदेश में सूचना का अधिकार कानून लागू हो गया। कॉमन मिनियम
प्रोग्राम में सूचना के अधिकार अधिनियम को लोकसभा में पारित करने का संकल्प लिया
गया था तथा नेशनल एडवायजरी कॉन्सिल के सतत् प्रयास से यह कानून देश में लागू हो
गया है।
वर्ष
2002 में केन्द्र की राजग सरकार ने सूचना की स्वतंत्रता विधेयक पारित कराया, लेकिन वह राजपत्र में प्रकाशित नहीं होने से कानून का रूप नहीं ले सका। इस
विधेयक में सिर्फ सूचना लेने की स्वतंत्रता दी, सूचना देना या नहीं देना अधिकारी की
मर्जी पर छोड दिया।
वर्ष
2004 में प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के नेतृत्व वाली केन्द्र की संप्रग सरकार ने
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया, जिसने अगस्त 2004 में केन्द्र सरकार
को सूचना का स्वतंत्रता अधिनियम में संशोधन सुझाए और उसी वर्ष यह विधेयक संसद में
पेश हो गया। 11 मई 2005 को विधेयक को लोकसभा ने और 12 मई 2005 को राज्यसभा ने
मंजूरी दे दी। 15 जून 2005 को इस पर राष्ट्रपति की सहमति मिलते ही सूचना का
अधिकार अधिनियम, 2005 पूरे देश में प्रभावशील हो गया। उक्त अधिनियम की धारा 4 की उपधारा (1)
एवं धारा 12, 13,15, 16, 24, 27, 28 की उपधाराएं (1) एवं (2) तत्काल प्रभाव में आ गई और शेष प्रावधान अधिनियम
बनने की तिथि से 120 वें दिन अर्थात् 12 अक्टूबर 2005 से लागू किया गया। प्रत्येक
राज्य में आयोग का गठन करने का प्रावधान रखा गया।
सूचना का तात्पर्यः
रिकार्ड, दस्तावेज, ज्ञापन, ईःमेल, विचार, सलाह, प्रेस विज्ञप्तियाँ, परिपत्र, आदेश, लांग पुस्तिका, ठेके सहित कोई भी उपलब्ध सामग्री, निजी निकायो से सम्बन्धित तथा किसी
लोक प्राधिकरण द्वारा उस समय के प्रचलित कानून के अन्तर्गत प्राप्त किया जा सकता
है।
सूचना का अधिकार-सांविधानिक प्रावधान:
सूचना
के अधिकार का दर्ज़ा उपयोगिता और इस बात से सिद्ध होता है कि संविधान में इसे
मूलभूत अधिकार का दर्ज़ा दिया गया है। आरटीआई का अर्थ है सूचना का अधिकार और इसे
संविधान की धारा 19 (1) के तहत एक मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया गया है। धारा 19
(1),जिसके तहत प्रत्येक नागरिक को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है
और उसे यह जानने का अधिकार है कि सरकार कैसे कार्य करती है, इसकी क्या भूमिका है, इसके क्या कार्य हैं आदि।सूचना का अधिकार अधिनियम प्रत्येक नागरिक को सरकार
से प्रश्न पूछने का अधिकार देता है और इसमें टिप्पणियां, सारांश अथवा दस्तावेजों या अभिलेखों की प्रमाणित प्रतियों या सामग्री के
प्रमाणित नमूनों की मांग की जा सकती है।
आरटीआई
अधिनियम पूरे भारत में लागू है (जम्मू और कश्मीर राज्य के अलावा) जिसमें सरकार
की अधिसूचना के तहत आने वाले सभी निकाय शामिल हैं जिसमें ऐसे गैर सरकारी संगठन भी
शामिल है जिनका स्वामित्व, नियंत्रण अथवा आंशिक निधिकरण सरकार
द्वारा किया जाता है |
सूचना प्राप्ति की प्रक्रिया
आप
सूचना के अधिकार अधिनियम- 2005 के अंतर्गत किसी लोक प्राधिकरण (सरकारी संगठन या
सरकारी सहायता प्राप्त गैर सरकारी संगठनों) से सूचना प्राप्त कर सकते हैं।
आवेदन
हस्तलिखित या टाइप किया होना चाहिए। आवेदन प्रपत्र भारत विकास प्रवेशद्वार पोर्टल
से भी डाउनलोड किया जा सकता है। आवेदन प्रपत्र डाउनलोड संदर्भित राज्य की वेबसाईट
से प्राप्त करें
आवेदन
अँग्रेजी, हिन्दी या अन्य प्रादेशिक भाषाओं में तैयार होना चाहिए।
अपने
आवेदन में निम्न सूचनाएँ दें:
Ø सहायक लोक सूचना अधिकारी/लोक सूचना अधिकारी का नाम व उसका कार्यालय पता,
Ø विषय: सूचना का अधिकार अधिनियम- 2005 की धारा 6(1) के अंतर्गत आवेदन
Ø सूचना का ब्यौरा, जिसे आप लोक प्राधिकरण से प्राप्त करना चाहते हैं,
Ø आवेदनकर्त्ता का नाम,
Ø पिता/पति का नाम,
Ø वर्ग- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ी जाति
Ø आवेदन शुल्क
Ø क्या आप गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) परिवार से आते हैं- हाँ/नहीं,
Ø मोबाइल नंबर व ई-मेल पता (मोबाइल तथा ई-मेल पता देना अनिवार्य नहीं)
Ø पत्राचार हेतु डाक पता
Ø स्थान तथा तिथि
Ø आवेदनकर्त्ता के हस्ताक्षर
Ø संलग्नकों की सूची
आवेदन
जमा करने से पहले लोक सूचना अधिकारी का नाम, शुल्क, उसके भुगतान की प्रक्रिया आदि के बारे
में जानकारी प्राप्त कर लें।
सूचना
के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सूचना प्राप्त करने हेतु आवेदन पत्र के साथ शुल्क
भुगतान का भी प्रावधान है। परन्तु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति या गरीबी रेखा से
नीचे के परिवार के सदस्यों को शुल्क नहीं जमा करने की छूट प्राप्त है।
जो
व्यक्ति शुल्क में छूट पाना चाहते हों उन्हें अनुसूचित जाति/अनुसूचित
जनजाति/बीपीएल प्रमाणपत्र की छायाप्रति जमा करनी होगी।
आवेदन
हाथो-हाथ, डाक द्वारा या ई-मेल के माध्यम से भेजा जा सकता है।
यदि
आप आवेदन डाक द्वारा भेज रहे हैं तो उसके लिए केवल पंजीकृत (रजिस्टर्ड) डाक सेवा
का ही इस्तेमाल करें। कूरियर सेवा का प्रयोग कभी न करें।
आवेदन
ई-मेल से भेजने की स्थिति में जरूरी दस्तावेज का स्कैन कॉपी अटैच कर भेज सकते हैं।
लेकिन शुल्क जमा करने के लिए आपको संबंधित लोक प्राधिकारी के कार्यालय जाना
पड़ेगा। ऐसी स्थिति में शुल्क भुगतान करने की तिथि से ही सूचना आपूर्ति के समय की
गणना की जाती है।
आगे
उपयोग के लिए आवेदन पत्र (अर्थात् मुख्य आवेदन प्रपत्र, आवेदन शुल्क का प्रमाण,स्वयं या डाक द्वारा जमा किये गये आवेदन की पावती) की 2 फोटोप्रति बनाएं और
उसे सुरक्षित रखें।
यदि
अपना आवेदन स्वयं लोक प्राधिकारी के कार्यालय जाकर जमा कर रहे हों, तो कार्यालय से पावती पत्र अवश्य प्राप्त करें जिसपर प्राप्ति की तिथि तथा
मुहर स्पष्ट रूप से अंकित हों। यदि आवेदन रजिस्टर्ड डाक द्वारा भेज रहे हों तो
पोस्ट ऑफिस से प्राप्त रसीद अवश्य प्राप्त करें और उसे संभाल कर रखें।
सूचना
आपूर्ति के समय की गणना लोक सूचना अधिकारी द्वारा प्राप्त आवेदन की तिथि से आरंभ
होता है।
शिकायत कब करें
इस
अधिनियम के प्रावधान 18 (1) के तहत यह केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग
का कर्तव्य है, जैसा भी मामला हो, कि वे एक व्यक्ति से शिकायत प्राप्त करें और पूछताछ करें।
जो
केन्द्रीय सूचना लोक अधिकारी या राज्य सूचना लोक अधिकारी के पास अपना अनुरोध जमा
करने में सफल नहीं होते, जैसा भी मामला हो, इसका कारण कुछ भी हो सकता है कि उक्त अधिकारी या केन्द्रीय सहायक लोक सूचना
अधिकारी या राज्य सहायक लोक सूचना अधिकारी, इस अधिनियम के तहत नियुक्त न किया
गया हो जैसा भी मामला हो, ने इस अधिनियम के तहत अग्रेषित करने के लिए कोई सूचना या अपील के लिए उसके आवेदन को स्वीकार करने से
मना कर दिया हो जिसे वह केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी
धारा 19 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट राज्य लोक सूचना अधिकारी के पास न भेजे या
केन्द्रीय सूचना या आयोग अथवा राज्य सूचना आयोग में अग्रेषित न करें,जैसा
भी मामला हो।
जिसे
इस अधिनियम के तहत कोई जानकारी तक पहुंच देने से मना कर दिया गया हो। ऐसा व्यक्ति
जिसे इस अधिनियम के तहत निर्दिष्ट समय सीमा के अंदर सूचना के लिए अनुरोध या सूचना
तक पहुंच के अनुरोध का उत्तर नहीं दिया गया हो।
जिसे
शुल्क भुगतान करने की आवश्यकता हो, जिसे वह अनुपयुक्त मानता / मानती है।
जिसे
विश्वास है कि उसे इस अधिनियम के तहत अपूर्ण, भ्रामक या झूठी जानकारी दी गई है।
इस
अधिनियम के तहत अभिलेख तक पहुंच प्राप्त करने या अनुरोध करने से संबंधित किसी
मामले के विषय में।
.........................................................................................................................................
प्रसार भारती और संबंधित अधिनियम
परिचय :
प्रसार
भारती (ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया के नाम से भी जानते हैं) भारत की एक
सार्वजनिक प्रसारण संस्था है। इसमें मुख्य रूप से दूरदर्शन एवं आकाशवाणी शामिल
हैं।
प्रसार
भारती का गठन 23 नवंबर, 1997 प्रसारण संबंधी मुद्दों पर सरकारी प्रसारण संस्थाओं को स्वायत्तता देने के
मुद्दे पर संसद में काफी बहस के बाद किया गया था। संसद ने इस संबंध में 1990 में
एक अधिनियम पारित किया लेकिन इसे अंततः 15 सितंबर 1997 में लागू किया गया।
प्रसार भारती कानून
रेडियो
और दूरदर्शन को स्वायत्त देने वाले वर्तमान प्रसार भारती कानून का मूल नाम प्रसार
भारती (भारती प्रसारण निगम) विधान 1990 था। इसमें कुल चार अध्याय थे जो कुल 35
धाराओं – उपधाराओं में बंटे थे। अधिनियम के अनुसार रेडियो – दूरदर्शन का प्रबंधन एक निगम द्वारा किया जायेगा और यह निगम एक 15 सदस्यीय
बोर्ड (परिषद) द्वारा संचालित होगा। परिषद में एक अध्यक्ष, एक कार्यकारी सदस्य, एक कार्मिक सदस्य, छह अंशकालिक सदस्य, एक –एक पदेन महानिदेशक (आकाशवाणी और दूरदर्शन), सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक
प्रतिनिधि और कर्मचारियों के दो प्रतिनिधियों का प्रावधान था। अध्यक्ष व अन्य
सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी।
प्रावधानों
के अनुसार यह प्रसार भारती बोर्ड सीधे संसद के प्रति उत्तरदायी होगा और साल में एक
बार यह अपनी वार्षिक रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत करेगा। अधिनियम में प्रसार
भारती बोर्ड की स्वायत्ता के लिये दो समितियों का भी प्रावधान था – संसद समिति और प्रसार परिषद। संसदीय
समिति में लोक सभा के 15 और राज्य सभा के 7 सदस्य होंगे जबकि प्रसार भारती परिषद
में 11 सदस्य होंगे जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेंगे।
अधिनियम के अनुसार प्रसार भारती के निम्न उद्देश्य
देश
की एकता और अखंडता तथा संविधान में वर्णित लोकतंत्रात्मक मुल्यों को बनाये रखना।
सार्वजनिक
हित के सभी मामलों की सत्य व निष्पक्ष जानकारी,उचित तथा संतुलित रुप में जनता को
देना।
शिक्षा
तथा साक्षरता की भावना का प्रचार–प्रसार करना।
विभिन्न
भारतीय संस्कृतियों व भाषाओं के पर्याप्त समाचार प्रसारित करना।
स्पर्धा
बढ़ाने के लिये खेल–कूद के समाचारों को भी पर्याप्त स्थान देना।
महिलाओं
की वास्तविक स्थिति तथा समस्याओं को उजागर करना।
युवा
वर्ग की आवश्यकताओं पर ध्यान देना।
छुआछूत–असमानता
तथा शोषण जैसी सामाजिक बुराईयों का विरोध करना और सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन
देना।
श्रमिकों
के अधिकार की रक्षा करना।
बच्चों
के अधिकारों की रक्षा करना।
...............................................................................................................................................
केबल टेलीविजन नेटवर्क का परिचालन
अधिनियम 1995
भारत
सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय नई दिल्ली के निर्देशों के अन्तर्गत केबल
टेलीबिजन नेटवर्क का परिचालन अधिनिमय के अनुसार करने की सुविधा प्रदान की गई है।
केबल टेलीविजन
नेटवर्क (विनियम) अधिनियम 1995 की धारा 11 के अन्तर्गत स्थानीय केबल चैनल/केबल टेलीविजन नेटवर्क का नवीन परिचालन
प्रारंभ करने के लिए डाकघर में पंजीकरण आवश्यक है। अगर कोई भी केबल टेलीविजन
नेटवर्क का संचालक बिना डाकघर में पंजीकरण करता है, तब उसे बंद कराने की कार्यवाही प्राधिकृत अधिकारी, अनुविभागीय दण्डाधिकारी द्वारा सुनिश्चित की जाएगी। साथ ही
केबल टेलीविजन नेटवर्क के परिचालन के लिए प्रयुक्त उपकरण को कब्जे में लेने का
अधिकार भी एसडीएम को होगा।
अधिनियम की धारा 19 के अन्तर्गत प्राधिकृत अधिकारी को यह भी अधिकार प्राप्त है कि वह जनहित
में कुछ ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण निषिद्व कर दे। जो कार्यक्रम या चैनल धारा 5 में संदर्भित कार्यक्रम कोड तथा अधिनियम की धारा 6 में संदर्भित विज्ञापन कोड के अनुरूप चलाया नहीं जाता है अथवा जो
कार्यक्रम किसी धर्म, प्रजाति, भाषा, जाति या समुदाय या किसी अन्य आधार पर
भिन्न-भिन्न धार्मिक प्रजातीय, भाषागत या क्षेत्रीय दलों या जातियों या
समुदाय के बीच असमरसता या सत्रुता, घृणा की भावना या दुर्भावना फैलाता हो
अथवा जो भी सार्वजनिक शांति को भंग करने पर धारा 16 के अन्तर्गत दण्ड का
पात्र होगा।
स्थानीय डाकघर में
पंजीकरण करवाए बिना केबल टेलीविजन नेटवर्क का परिचालन करना (धारा 3), अनिवार्य कैस (सीएएस) के लिए अधिसूचित क्षेत्रों जैसे कि
चैनई, दिल्ली, मुंबई और कोलकाता के कुछ भागों में
सैटटाप वाक्सों (संबोधनीय प्रणाली) के बिना केबल टेलीविजन पर सशुल्क चैनलों का
प्रसारण करना (धारा 4 ए), फ्री-टू-एअर चैनलों तथा मैडेटरी चैनलों
का प्रसारण नहीं किया जाना (धारा 4 ए (2) धारा 8), कैसे क्षेत्रों में ट्राई द्वारा
निर्धारित शुल्क से अधिक शुल्क लेने पर (धारा 4 ए (4) तथा कार्यक्रम और विज्ञापन कोडों का उल्लंघन करने पर (धारा 5 और 6) के अन्तर्गत कार्यवाही किए जाने का प्रावधान है।
इस अधिनियम के अन्तर्गत
अवैध रूप से प्रचालित अथवा अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत कार्यक्रमों का
प्रसारण करने वाले केबल टेलीविजन नेटवर्क की जानकारी प्रशासन को देने के लिए अपने
क्षेत्र में मुनादी कराने की सुविधा उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया है। साथ ही
ऐसे केबल टेलीविजन नेटवर्क के आपरेटरों की जानकारी प्राप्त की जाए, जो अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत परिचालन कर रहे है।
जिससे संबंधितों के विरूद्ध कार्यवाही प्रस्तावित की जा सके। अगर कोई संचालक
अधिनियम का उल्लंघन करता है। उसके विरूद्ध वैधानिक कार्यवाही एवं सचेत करने की हिदायत
दी जा सकती है।
केबल टेलीविजन
नेटवर्क (विनियम) अधिनियम 1995 की धारा 11 के अन्तर्गत अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले केबल आपरेटरों के
विरूद्ध कार्यवाही सुनिश्चित करने का प्रावधान किया गया है। इसीप्रकार ऐसे केबल आपरेटर बिना पंजीकरण कराए केबल सेवा का परिचालन करते
है। साथ ही अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत स्थानीय स्तर पर भी कार्यक्रमों का
प्रसारण कर रहे है। उनका प्रसारण प्राधिकृत अधिकारी एसडीएम के द्वारा रोकने की
व्यवस्था दी गई है।
जिला स्तरीय
मॉनीटरिंग समिति के मतानुसार प्रथम दृष्टया अधिनियम के नियम 7 (10) का उल्लंघन केबल नेटवर्क संचालको द्वारा किया जाता है, तब संबंधित को एसडीएम के माध्यम से नेटवर्क को बंद कराने से
पूर्व नोटिस देने की सुविधा भी अधिनियम में दी गई है।
जिला स्तरीय निगरानी समिति का कार्यक्षेत्र
जिला स्तरीय निगरानी
समिति केबल टीवी पर दिखाई जाने वाली सामग्री के संबंध में जनता अपनी शिकायत दर्ज
कर सकती है और उसमें दी गई निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार उन शिकायतों पर
कार्यवाही करने का अधिकार समिति को होगा। केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 के प्रवर्तन के लिए प्राधिकृत अधिकारियों द्वारा दी गई कार्रवाई की
समीक्षा की जावेगी। यदि किसी कार्यक्रम से सार्वजनिक व्यवस्था पर कोई कुप्रभाव
पडता हो अथवा किसी समुदाय में व्यापक आक्रोश फैलता हो तो राज्य और केन्द्र सरकार
के तत्काल ध्यान में लाने की व्यवस्था सुनिश्चित की जावेगी।
स्थानीय स्तर पर
केबल टेलीविजन चैनलों द्वारा प्रसारित सामग्री पर नजर रखना तथा प्राधिकृत
अधिकारियों द्वारा यह सुनिश्चित करना कि कोई गैर प्राधिकृत अथवा पाइरेटिड चैनल
चलाई न जा रही हो और यदि केबल टेलविजन ऑपरेटरों द्वारा स्थानीय समाचार प्रसारित
किए जा रहे हो, तो यह केबल स्थानीय घटनाओं के बारे में
सूचना देने तक ही सीमित हो तथा इस तरीके से प्रस्तुत किए जाए, जो संतुलित हो, निष्पक्ष हो तथा किसी भी समुदाय को नाराज
करने अथवा भडकाए जाने वाले नहीं होना चाहिए। इसीप्रकार समिति केबल नेटवर्क पर
फ्री-टू-एअर चैनलों तथा अनिवार्य प्रसारण के लिए अधिसूचित चैनलों की उपलब्धता पर
निगरानी रख सकती है।
केबल टेलीविजन नेटवर्क का परिचालन
अधिनियम 1995
भारत
सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय नई दिल्ली के निर्देशों के अन्तर्गत केबल
टेलीबिजन नेटवर्क का परिचालन अधिनिमय के अनुसार करने की सुविधा प्रदान की गई है।
केबल टेलीविजन
नेटवर्क (विनियम) अधिनियम 1995 की धारा 11 के अन्तर्गत स्थानीय केबल चैनल/केबल टेलीविजन नेटवर्क का नवीन परिचालन
प्रारंभ करने के लिए डाकघर में पंजीकरण आवश्यक है। अगर कोई भी केबल टेलीविजन
नेटवर्क का संचालक बिना डाकघर में पंजीकरण करता है, तब उसे बंद कराने की कार्यवाही प्राधिकृत अधिकारी, अनुविभागीय दण्डाधिकारी द्वारा सुनिश्चित की जाएगी। साथ ही
केबल टेलीविजन नेटवर्क के परिचालन के लिए प्रयुक्त उपकरण को कब्जे में लेने का
अधिकार भी एसडीएम को होगा।
अधिनियम की धारा 19 के अन्तर्गत प्राधिकृत अधिकारी को यह भी अधिकार प्राप्त है कि वह जनहित
में कुछ ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण निषिद्व कर दे। जो कार्यक्रम या चैनल धारा 5 में संदर्भित कार्यक्रम कोड तथा अधिनियम की धारा 6 में संदर्भित विज्ञापन कोड के अनुरूप चलाया नहीं जाता है अथवा जो कार्यक्रम
किसी धर्म, प्रजाति, भाषा, जाति या समुदाय या किसी अन्य आधार पर
भिन्न-भिन्न धार्मिक प्रजातीय, भाषागत या क्षेत्रीय दलों या जातियों या
समुदाय के बीच असमरसता या सत्रुता, घृणा की भावना या दुर्भावना फैलाता हो
अथवा जो भी सार्वजनिक शांति को भंग करने पर धारा 16 के अन्तर्गत दण्ड का
पात्र होगा।
स्थानीय डाकघर में
पंजीकरण करवाए बिना केबल टेलीविजन नेटवर्क का परिचालन करना (धारा 3), अनिवार्य कैस (सीएएस) के लिए अधिसूचित क्षेत्रों जैसे कि
चैनई, दिल्ली, मुंबई और कोलकाता के कुछ भागों में
सैटटाप वाक्सों (संबोधनीय प्रणाली) के बिना केबल टेलीविजन पर सशुल्क चैनलों का
प्रसारण करना (धारा 4 ए), फ्री-टू-एअर चैनलों तथा मैडेटरी चैनलों
का प्रसारण नहीं किया जाना (धारा 4 ए (2) धारा 8), कैसे क्षेत्रों में ट्राई द्वारा
निर्धारित शुल्क से अधिक शुल्क लेने पर (धारा 4 ए (4) तथा कार्यक्रम और विज्ञापन कोडों का उल्लंघन करने पर (धारा 5 और 6) के अन्तर्गत कार्यवाही किए जाने का प्रावधान है।
इस अधिनियम के
अन्तर्गत अवैध रूप से प्रचालित अथवा अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत कार्यक्रमों
का प्रसारण करने वाले केबल टेलीविजन नेटवर्क की जानकारी प्रशासन को देने के लिए
अपने क्षेत्र में मुनादी कराने की सुविधा उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया है।
साथ ही ऐसे केबल टेलीविजन नेटवर्क के आपरेटरों की जानकारी प्राप्त की जाए, जो अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत परिचालन कर रहे है।
जिससे संबंधितों के विरूद्ध कार्यवाही प्रस्तावित की जा सके। अगर कोई संचालक
अधिनियम का उल्लंघन करता है। उसके विरूद्ध वैधानिक कार्यवाही एवं सचेत करने की
हिदायत दी जा सकती है।
केबल टेलीविजन
नेटवर्क (विनियम) अधिनियम 1995 की धारा 11 के अन्तर्गत अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले केबल आपरेटरों के
विरूद्ध कार्यवाही सुनिश्चित करने का प्रावधान किया गया है। इसीप्रकार ऐसे केबल आपरेटर बिना पंजीकरण कराए केबल सेवा का परिचालन करते
है। साथ ही अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत स्थानीय स्तर पर भी कार्यक्रमों का
प्रसारण कर रहे है। उनका प्रसारण प्राधिकृत अधिकारी एसडीएम के द्वारा रोकने की
व्यवस्था दी गई है।
जिला स्तरीय
मॉनीटरिंग समिति के मतानुसार प्रथम दृष्टया अधिनियम के नियम 7 (10) का उल्लंघन केबल नेटवर्क संचालको द्वारा किया जाता है, तब संबंधित को एसडीएम के माध्यम से नेटवर्क को बंद कराने से
पूर्व नोटिस देने की सुविधा भी अधिनियम में दी गई है।
जिला स्तरीय निगरानी समिति का
कार्यक्षेत्र
जिला स्तरीय निगरानी
समिति केबल टीवी पर दिखाई जाने वाली सामग्री के संबंध में जनता अपनी शिकायत दर्ज
कर सकती है और उसमें दी गई निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार उन शिकायतों पर
कार्यवाही करने का अधिकार समिति को होगा। केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 के प्रवर्तन के लिए प्राधिकृत अधिकारियों द्वारा दी गई कार्रवाई की
समीक्षा की जावेगी। यदि किसी कार्यक्रम से सार्वजनिक व्यवस्था पर कोई कुप्रभाव
पडता हो अथवा किसी समुदाय में व्यापक आक्रोश फैलता हो तो राज्य और केन्द्र सरकार
के तत्काल ध्यान में लाने की व्यवस्था सुनिश्चित की जावेगी।
स्थानीय स्तर पर
केबल टेलीविजन चैनलों द्वारा प्रसारित सामग्री पर नजर रखना तथा प्राधिकृत
अधिकारियों द्वारा यह सुनिश्चित करना कि कोई गैर प्राधिकृत अथवा पाइरेटिड चैनल
चलाई न जा रही हो और यदि केबल टेलविजन ऑपरेटरों द्वारा स्थानीय समाचार प्रसारित
किए जा रहे हो, तो यह केबल स्थानीय घटनाओं के बारे में
सूचना देने तक ही सीमित हो तथा इस तरीके से प्रस्तुत किए जाए, जो संतुलित हो, निष्पक्ष हो तथा किसी भी समुदाय को नाराज
करने अथवा भडकाए जाने वाले नहीं होना चाहिए। इसीप्रकार समिति केबल नेटवर्क पर
फ्री-टू-एअर चैनलों तथा अनिवार्य प्रसारण के लिए अधिसूचित चैनलों की उपलब्धता पर
निगरानी रख सकती है।
...................................................................................................................................................
चलचित्र अधिनियम, 1952 के अधीन पैनल गठित
सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय ने प्रमाणीकरण के मुद्दों पर विचार करने के लिए चलचित्र
अधिनियम, 1952 के अधीन एक पैनल का गठन किया है। यह पैनल पंजाब और हरियाणा उच्चि
न्याियालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्या।याधीश श्री मुकुल मुद्गल की अध्य क्षता
में गठित किया गया है। समिति इस प्रकार है –
1.
श्री मुकुल मुद्गल, अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश, पंजाब और हरियाणा उच्चए
न्या्यालय-अध्यक्ष 2. श्री ललित भसीन, अध्यक्ष एफसीएटी
3.
सुश्री शर्मिला टैगोर, पूर्व अध्यक्ष, सीबीएफसी
4.
श्री जावेद अख्तक, प्रतिष्ठित संगीतकार, लेखक एवं गीतकार
5.
सुश्री लीला सैमसन, अध्यक्ष, सीबीएफसी
6.
श्री एल सुरेश, सचिव, साउथ इंडियन फिल्म. चेम्बलर आफ कामर्स एवं भारतीय फिल्म संघ के पूर्व अध्यक्ष
7.
सुश्री रमीजा हकीम, अधिवक्ता , सर्वोच्च न्या्यालय
8.
श्री राघवेन्द्रं सिंह, संयुक्त सचिव (फिल्म ), सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय-सदस्य-संयोजक
समिति
सेंसर बोर्ड के कार्यकलापों और कानूनी अधिकारों की समीक्षा करेगी और आवश्यफक
कानूनी बदलावों की सिफारिश करेगी। इसके अलावा सिनेमा हालों में फिल्मों की नकल
उतारने और उनकी अवैधानिक प्रतियां बनाने की संदर्भ में अधिनियम के अंतर्गत की जाने
वाली कानूनी कार्रवाई का जायजा भी समिति लेगी। इसके संबंध में प्रभावी कानूनी
उपायों की सिफारिश भी करेगी। समिति अन्या मुद्दों, जिन्हेंप वह जरूरी समझती है, पर भी विचार कर सकती है। सिनेमा के प्रमाणीकरण संबंधी मुद्दों पर भी यह समिति
विचार करेगी।
अपने
गठन की तारीख से दो महीने के अंदर समिति अपनी रिपोर्ट दे सकती है।
चलचित्र
अधिनियम 1952 चलचित्र (प्रमाणन) नियम 1983 तथा 5(ख)के तहत केंद्र सरकार द्वारा
जारी किए गए मार्गदर्शिका का अनुसरण करते हुए प्रमाणन की कार्यवाही की जाती है।
फिल्मों
को चार वर्गों के अंतर्गत प्रमाणित करते हैं।
1. अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्शन
2. वयस्क दर्शकों के लिए निर्बन्धित
3. अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए
किन्तु 12 वर्ष से कम आयु के बालक/बालिका को माता-पिता के मार्गदर्शन के साथ फिल्म
देखने की चेतावनी के साथ
4. किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों के लिए
निर्बन्धित
उद्देश्य
चलचित्र
अधिनियम 1952 और चलचित्र प्रमाणन नियम 1983 के उपबन्धों का अनुसरण करते हुए स्वच्छ
व स्वस्थ मनोरंजन सुनिश्चित करना है।
परिकल्पना
1. लोगों को स्वस्थ मनोरंजन, मनोविनोद और शिक्षा सुनिश्चित करना है।
2. प्रमाणन प्रक्रिया को पारदर्शी और
उत्तरदायी बनाना है।
3. परामर्शदाता पैनल सदस्यों, मीडिया, फिल्म निर्माताओं को प्रमाणन की मार्गदर्शिका के संबंध में कार्यशालाओं व
बैठकों के जरिए फिल्मों के वर्तमान रुझान की जागरूकता पैदा करने के लिए है।
4. प्रमाणन प्रक्रिया का कंप्यूटरीकरण इस
प्रक्रिया में आधुनिक तकनीक अपनाने व मूलभूत सुविधाओं का उन्नयन करना है।
5. बोर्ड के कार्यकलापों के स्वैच्छिक
प्रकटन के जरिए पारदर्शिता बरकरार रखने, ई-शासन का कार्यान्वयन, सूचना के अधिकार के तहत् मांगे गए प्रश्नों का त्वरित उत्तर और वार्षिक
रिपोर्ट का मुद्रण करना है।
6. केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की
श्रेष्ठतम केंद्र की तरह विकसित करना है।
फिल्म
प्रमाणन की मार्गदर्शिका
संघीय
कार्य नियमावली केन्द्रीय सरकार, चलचित्र अधिनियम, 1952 (1952 का 37) की धारा 5 ख की उपधारा (2) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का
प्रयोग करते हुए, निदेश देती है कि फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की मंजूरी देने के लिए फिल्म
प्रमाणीकरण बोर्ड के निम्नलिखित मार्गदर्शन सिद्धांत होंगे।
1.
फिल्म प्रमाणीकरण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होगा कि
फिल्म माध्यम समाज के मूल्यों और
मानकों के प्रति उत्तरदायी और संवेदनशील बना रहे।
कलात्मक अभिव्यक्ति और सर्जनात्मक स्वतंत्रता
पर असम्यक रूप से रोक न लगाई जाए।
प्रमाणन-व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन के
प्रति उत्तरदायी हो।
फिल्म माध्यम स्वच्छ और स्वस्थ
मनोरंजन प्रदान करें और
यथासंभव फिल्म सौंदर्य की दृष्टि से
महत्वपूर्ण और चलचित्र की दृष्टि से अच्छे स्तर की हो।
2.
उपर्युक्त उद्देश्यों के अनुसरण में फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड यह सुनिश्चित करेगा कि
हिंसा जैसी समाज विरोधी क्रियाएं
उत्कृष्ट या न्यायोचित न ठहराई जाएं।
अपराधियों की कार्यप्रणाली, अन्य दृश्य या शब्द जिनसे कोई अपराध का करना उद्धीप्त होने की संभावना हो, चित्रित न की जाए
ऐसे दृश्य न दिखाए जाएं जिनमें - (क)
बच्चों को हिंसा का शिकार या अपराधकर्ता के रूप में, अथवा हिंसा के बलात् दर्शक के रूप में
शरीक होते दिखाया गया हो या बच्चों का किसी प्रकार दुरुपयोग किया गया हो। (ख)
शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के साथ दुव्र्यवहार किया गया हो अथवा
मजाक उड़ाया गया होः और (ग) पशुओं के प्रतिक्रूरता या उनका दुरुपयोग के दृश्य
अनावश्यक रूप से न दिखाए जाएं।
मूलतः मनोरंजन प्रदान करने के लिए
हिंसा, क्रूरता और आतंक के निरर्थक या वर्जनीयदृश्य और ऐसे दृश्य न दिखाए जाएं जिनसे
लीग संवेदनहीन या अमानवीय हो सकते हों
वे दृश्य न दिखाए जाएं जिनमें मद्यपान
को उचित ठहराया गया हो या उसका गुणगान किया गया हो।
(क) नशीली दवाओं के सेवन को उचित
ठहराने वाले या उनका गुणगान करने वाले दृश्य न दिखाए जाएं। (ख) तंबाकू सेवन या
धूम्रपान को बढ़ावा देने, न्यायोचित ठहराने या उसे गौरवान्वित करने वाले दृश्य न दिखाए जाएं।
अशिष्टता, अश्लीलता और दुराचारिता द्वारा मानवीय संवेदनाओं को चोट न पहुंचाई जाए।
दो अर्थों वाले शब्द नरेखे जाएं जिनसे
नीच प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता हो।
महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार का
तिरस्कारपूर्ण या उन्हें बदनाम करने वाले दृश्य न दिखाए जाएं।
महिलाओं के साथ लैंगिक हिंसा जैसे
बलात्संग की कोशिश, बलात्संग अथवा किसी अन्य प्रकार का उत्पीड़न या इसी किस्म के दृश्यों से बचा
जाना चाहिए तथा यदि कोई ऐसी घटना विषय के लिए प्रासंगिक हो तो ऐसे दृश्यों को कम
से कम रखा जाना चाहिए और उन्हें विस्तार से नहीं दिखाना चाहिए।
काम-विकृतियां दिखाने वाले दृश्यों से
बचा जाना चाहिए। यदि विषयवस्तु के लिए ऐसे दृश्य दिखाना संगत हो तो इन्हें कम से
कम रखा जाना चाहिए और इन्हें विस्तार से नहीं दिखाया जाना चाहिए।
......................................................................................................................................
पहले प्रेस आयोग (1952-54)
सूचना और प्रसारण भारत में प्रेस की
स्थिति में पूछताछ के मंत्रालय द्वारा 23 सितम्बर 1952 पर न्यायाधीश जेएस राजाध्यक्ष की अध्यक्षता में पहले प्रेस
आयोग का गठन किया गया था. 11 सदस्य काम कर रहे समूह के अन्य सदस्यों में से कुछ थे डॉ. सी.पी. रामास्वामी
अय्यर,
आचार्य नरेन्द्र देव, डा. जाकिर हुसैन, और डॉ. VKV राव. यह कारक है, जो प्रभाव और भारत में पत्रकारिता के उच्च मानकों की
स्थापना और रखरखाव में देखने के लिए कहा गया था.आयोग ने देश में समाचार पत्र
उद्योग के प्रबंधन, नियंत्रण और स्वामित्व, वित्तीय संरचना के रूप में के रूप में अच्छी तरह से अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं
में पूछा. आयोग, एक
सावधान और विस्तृत अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि दोनों और विशेष रूप से
उच्च स्तर पर कर्मचारियों की राजधानी के स्वदेशीकरण किया जाना चाहिए और यह उच्च
वांछनीय है कि दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्रों में स्वामीय हितों भारतीय हाथों
में मुख्य रूप से बनियान चाहिए था.प्रेस आयोग की सिफारिशों और सूचना एवं प्रसारण
मंत्रालय,
भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत नोट पर विचार करने के बाद
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 13 सितंबर, 1955 है, जो भारत में प्रेस के संबंध में बुनियादी नीति दस्तावेज बन
गया है पर एक प्रस्ताव पारित किया. संकल्प के रूप में इस प्रकार है:
-"मंत्रिमंडल ने सूचना और प्रसारण नोट 4 मई, 1955 को मंत्रालय माना जाता है, और मानना था कि अब तक के रूप में अन्य देशों के नागरिकों द्वारा
अखबारों और पत्रिकाओं के स्वामित्व में चिंतित था, समस्या के रूप में वहाँ एक बहुत ही गंभीर नहीं था केवल कुछ
ऐसे समाचार पत्रों और पत्रिकाओं थे. कैबिनेट, इसलिए महसूस किया है, कि कोई भी कार्रवाई करने के लिए इन अखबारों और पत्रिकाओं के
संबंध में लिया जा सकता है, लेकिन कोई विदेशी स्वामित्व वाली अखबार या पत्रिका, भविष्य में भारत में प्रकाशित किया जाना चाहिए की अनुमति दी
जाए कि जरूरत है. कैबिनेट, पर सहमत हुए, लेकिन है कि आयोग है कि विदेशी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं, जो समाचार और समसामयिक मामलों के साथ मुख्य रूप से निपटा
बाहर भारतीय संस्करण लाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए, के अन्य सिफारिश सिद्धांत रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए.
पिछले 46 वर्षों के दौरान के बाद से ऊपर संकल्प प्रभाव में आया, कोई विदेशी अखबार या पत्रिका के लिए भारत से प्रकाशित होने
की अनुमति दी गई है और न ही घरेलू प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में किसी भी विदेशी
निवेश की अनुमति दी गई है.हालांकि, वैश्वीकरण के नए संदर्भ में विदेशी भागीदारी और प्रिंट
मीडिया में निवेश के लिए मांग समाचार पत्र उद्योग के एक खंड के द्वारा उठाया गया
है. सार्वजनिक बहस है जो इस मुद्दे पर जगह ले ली है, प्रिंट मीडिया की राय विभाजित किया गया है. चूंकि मुद्दे पर
अब तक भारत में प्रेस के लिए परिणाम तक पहुँचने, समिति के एक विस्तृत अध्ययन के लिए इस विषय को लेने का
फैसला किया. एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया गया था.
आयोग
नियुक्त किया गया क्योंकि आजादी के बाद प्रेस की भूमिका के लिए एक मिशन से व्यवसाय
के लिए बदल रहा था. यह पाया गया है कि वहाँ अक्सर समुदायों या समूहों अभद्रता और
अश्लीलता और व्यक्तियों पर व्यक्तिगत हमले के खिलाफ निर्देशित घृण्य लेखन का एक
बड़ा सौदा था. यह भी कहा कि पीला पत्रकारिता देश में वृद्धि पर किया गया था और
विशेष रूप से किसी भी क्षेत्र या भाषा के लिए ही सीमित नहीं है. आयोग, लेकिन पाया गया कि पूरे पर अच्छी तरह से स्थापित, समाचार पत्र, पत्रकारिता के एक उच्च स्तर को बनाए रखा था.यह टिप्पणी की
है कि जो कुछ भी प्रेस संबंधित कानून हो सकता है, वहाँ अभी भी आपत्तिजनक पत्रकारिता की एक बड़ी मात्रा में है, जो कानून के दायरे के भीतर नहीं गिरने हालांकि, अभी भी कुछ जाँच की आवश्यकता होगी होगा. यह महसूस किया है
कि पेशेवर पत्रकारिता के मानकों को बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका अस्तित्व में
मुख्य उद्योग जिसकी जिम्मेदारी संदिग्ध बिंदुओं पर मध्यस्थता करने की और किसी भी
अच्छा पत्रकारिता के अतिक्रमण के दोषी की सजा सुनिश्चित करने के लिए किया जाएगा के
साथ जुड़े लोगों की एक शरीर लाना होगा व्यवहार. आयोग की एक महत्वपूर्ण सिफारिश
स्थापित किया गया एक सांविधिक प्रेस आयोग की राष्ट्रीय स्तर पर, प्रेस लोगों के शामिल है और सदस्यों को रखना.इसकी सिफारिश
और की गई कार्रवाई के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है इस प्रकार है:
•
प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए और पत्रकारिता के
उच्च मानकों को बनाए रखने के लिए, एक प्रेस परिषद की स्थापना की जानी चाहिए.
भारतीय प्रेस परिषद ने 4 जुलाई, 1966 को जो 16 नवंबर (इस तिथि पर राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है) 1966 से कामकाज शुरू कर दिया पर स्थापित किया गया था.
•
प्रेस और हर साल की स्थिति के खाते तैयार करने के लिए, भारत (आरएनआई) के लिए अखबार के रजिस्ट्रार की नियुक्ति होना
चाहिए.
यह भी स्वीकार कर लिया गया आर.एन.आई.
जुलाई 1956 में नियुक्त किया गया था.
•
अनुसूची मूल्य पृष्ठ शुरू किया जाना चाहिए.
यह भी 1956 में स्वीकार किया गया था.
सरकार और प्रेस के बीच एक
सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए, एक प्रेस परामर्शदात्री समिति का गठन होना चाहिए.
इसे स्वीकार कर लिया गया था और 22 सितंबर को एक प्रेस परामर्शदात्री समिति का गठन किया गया
था
•
काम कर रहे पत्रकारों को अधिनियम लागू किया जाना चाहिए.
सरकार यह लागू और श्रमजीवी पत्रकार
और अन्य समाचार पत्र कर्मचारियों (सेवाओं की शर्तों) और विविध प्रावधान अधिनियम 1955 में स्थापित किया गया था
.• यह एक तथ्य खोजने के समाचार पत्रों और समाचार एजेंसियों की
वित्तीय स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए समिति की स्थापना की सिफारिश की.
एक तथ्यान्वेषी समिति 14 अप्रैल 1972 को स्थापित किया गया था. यह 14 जनवरी 1975 को अपनी रिपोर्ट सौंपी.
•
प्रेस की स्वतंत्रता के मुख्य सिद्धांतों की रक्षा और
एकाधिकार प्रवृत्ति के खिलाफ अखबारों में मदद करने के लिए, एक अखबार वित्तीय निगम का गठन किया जाना चाहिए.
यह सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया
गया है और 4 दिसंबर
1970
को भी एक विधेयक लोकसभा में पेश किया गया,।
.................................................................................................
द्वितीय प्रेस आयोग
भारत सरकार ने 29 मई, 1978 को द्वितीय प्रेस आयोग का गठन किया है. दूसरे प्रेस आयोग प्रेस न तो एक दौर थमने विरोधी और न ही एक निर्विवाद सहयोगी होना चाहता था. आयोग प्रेस के विकास की प्रक्रिया में एक जिम्मेदार भूमिका निभाने के लिए करना चाहता था. प्रेस व्यापक रूप से लोगों के लिए सुलभ हो सकता है अगर यह अपनी आकांक्षाओं और समस्याओं को प्रतिबिंबित करना चाहिए.शहरी पूर्वाग्रह का सवाल भी आयोग का ध्यान प्राप्त हुआ है. आयोग ने कहा है कि विकास के लिए जगह ले,आंतरिक स्थिरता के रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा की सुरक्षा के रूप में महत्वपूर्ण था.आयोग भी प्रेस की (और इसलिए जिम्मेदारी) को रोकने और deflatingसांप्रदायिक संघर्ष में भूमिका पर प्रकाश डाला.भारत के दोनों प्रेस आयोगों प्रेस से कई सम्मानजनक सदस्यों को शामिल किया. पहली बार के लिए पहली प्रेस आयोग की सिफारिश के एक जिम्मेदार प्रेस क्या होना चाहिए की विचार प्रदान करता है. 2 प्रेस आयोग एक स्पष्ट तरीके है कि एक देश में विकास प्रेस के केंद्रीय ध्यान केंद्रित हो सकता है, जो खुद का निर्माण होता है एक आत्मनिर्भर और समृद्ध समाज बनने चाहिए में तैयार की है. आयोग ने घोषणा की है कि एक जिम्मेदार प्रेस भी एक स्वतंत्र प्रेस और ठीक इसके विपरीत हो सकता है. स्वतंत्रता और जिम्मेदारी मानार्थ लेकिन नहीं विरोधाभासी हैं. मुख्य सिफारिशों के रूप में जानकारी दी जा सकती है:
•एक प्रयास करने के लिए सरकार और प्रेस के
बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए किया जाना चाहिए.
• छोटे और मध्यम अखबार के विकास के लिए, वहाँ अखबार विकास आयोग की स्थापना होना चाहिए.
•अखबारों के उद्योगों उद्योगों और
वाणिज्यिक हितों से अलग किया जाना चाहिए.अखबार के संपादकों और मालिकों के बीच के
न्यासी बोर्ड की नियुक्ति होना चाहिए.
• अनुसूची मूल्य पृष्ठ शुरू किया जाना
चाहिए
.• छोटे,मध्यम और बड़े अखबार में समाचार और
विज्ञापनों के एक निश्चित अनुपात होना चाहिए
.• अखबारों के उद्योगों को विदेशी पूंजी के प्रभाव
से मुक्त किया जाना चाहिए.
• कोई भविष्यवाणियों अखबारों और पत्रिकाओं
में प्रकाशित किया जाना चाहिए.विज्ञापन की छवि के दुरुपयोग को बंद कर दिया जाना
चाहिए.
• सरकार एक स्थिर विज्ञापन नीति तैयार करना
चाहिए.
•प्रेस सूचना ब्यूरो का पुनर्गठन किया
जाना चाहिए.
• प्रेस कानूनों में संशोधन किया जाना
चाहिए.।
………………………………………………………………………………………………………………………………………………
भारतीय प्रेस परिषद : एक
संक्षिप्त विवरण ।
भारतीय प्रेस परिषद (Press Council of India ; PCI) एक संविघिक
स्वायत्तशासी संगठन है जो प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने व उसे बनाए रखने,
जन अभिरूचि का उच्च मानक सुनिश्चित करने से और नागरिकों के अघिकारों
व दायित्वों के प्रति उचित भावना उत्पन्न करने का दायित्व निबाहता है। सर्वप्रथम
इसकी स्थापना ४ जुलाई सन् १९६६ को हुई थी।
अध्यक्ष परिषद का प्रमुख होता है
जिसे राज्यसभा के सभापति, लोकसभा
अघ्यक्ष और प्रेस परिषद के सदस्यों में चुना गया एक व्यक्ति मिलकर नामजद करते हैं।
परिषद के अघिकांश सदस्य पत्रकार बिरादरी से होते हैं लेकिन इनमें से तीन सदस्य
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, बार कांउसिल आफ इंडिया और
साहित्य अकादमी से जुड़े होते हैं तथा पांच सदस्य राज्यसभा व लोकसभा से नामजद किए
जाते हैं - राज्य सभा से दो और लोकसभा से तीन।
प्रेस परिषद, प्रेस से प्राप्त या प्रेस के विरूद्ध
प्राप्त शिकायतों पर विचार करती है। परिषद को सरकार सहित किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे
सकती है या भर्त्सना कर सकती है या निंदा कर सकती है या किसी सम्पादक या पत्रकार
के आचरण को गलत ठहरा सकती है। परिषद के निर्णय को किसी भी न्यायालय में चुनौती
नहीं दी जा सकती।
काफी मात्रा में सरकार से घन प्राप्त
करने के बावजूद इस परिषद को काम करने की पूरी स्वतंत्रता है तथा इसके संविघिक
दायित्वों के निर्वहन पर सरकार का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है।
इतिहास
सन् १९५४ में प्रथम प्रेस आयोग ने
प्रेस परिषद् की स्थापना की अनुशंशा की।
पहली बार ४ जुलाई सन् १९६६ को
स्थापित
सन् ०१ जनवरी १९७६ को आन्तरिक आपातकाल
के समय भंग
सन् १९७८ में नया प्रेस परिषद
अधिनियम लागू
सन् १९७९ में नए सिरे से स्थापित
प्रेस परिषद् अधिनियम, १९७८ संपादित करें
प्रेस परिषद् की शक्तियाँ
निम्नानुसार अधिनियम की धारा 14 और 15 में दी गई हैं।
परिषद् की निधि
*************
अधिनियम में दिया गया है कि परिषद, अधिनियम में
अंतर्गत अपने कार्य करने के उद्देश्य से, पंजीकृत
समाचारत्रों और समाचार एजेंसियों से निर्दिट दरों पर
उद्ग्रहण शुल्क ले सकती है। इसके अतिरिक्त, केन्द्रीय सरकार,
द्वारा परिषद् को अपने कार्य करने के लिये, इसे
धन, जैसाकि केन्द्रीय सरकार आवश्यक समझे, देने का व्यादेश दिया गया है।
परिषद् की शक्तियाँ
***************
परिनिंदा करने की शक्ति
14.1 जहाँ परिषद् को, उससे किए गए परिवाद के प्राप्त होने पर या
अन्यथा, यह विश्वास करने का कारण हो कि किसी समाचारपत्र या
सामाचार एजेंसी ने पत्रकारिक सदाचार या लोक-रूचि के स्तर का अतिवर्तन किया है या
किसी सम्पादक या श्रमजीवी पत्रकार ने कोई वृत्तिक अवचार किया है, वहां परिषद् सम्बद्ध समाचारत्र या समाचार एजेंसी, सम्पादक
या पत्रकार को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात उस रीति से जाँच कर सकेगी जो इस अधिनियम
के अधीन बनाए गये विनियमों द्वारा उपबन्धित हो और यदि उसका समाधान हो जाता है कि
ऐसा करना आवश्यक है तो वह ऐसे कारणों से जो लेखवद्ध किये जायेंगे, यथास्थिति उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकेगी, उसकी
भर्त्सना कर सकेगी या उसकी परिनिंदा कर सकेगी या उस संपादक या पत्रकार के आचरण का
अनुमोदन कर सकेगी, परंतु यदि अध्यक्ष की राम में जाँच करने
के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है तो परिषद् किसी परिवाद का संज्ञान नहीं कर
सकेगी।
14.2 यदि परिषद् की यह राय है कि
लोकहित् में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो वह किसी समाचारपत्र से यह अपेक्षा कर
सकेगी कि वह समाचारपत्र या समाचार एजेंसी, संपादक या उसमें कार्य करने वाले पत्रकार के विरूद्ध इस धारा के अधीन किसी
जाँच से संबंधित किन्हीं विशिटयों को, जिनके अंतर्गत उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी,
सम्पादक या पत्रकार का नाम भी है उसमें ऐसी नीति से जैसा परिषद् ठीक
समझे प्रकाशित करे।
14.3 उपधारा 1, की किसी भी बात से यह नहीं समझा जायेगा कि
वह परिषद् को किसी ऐसे मामले में जाँच करने की शक्ति प्रदान करती है जिसके बारे
में कोई कार्रवाई किसी न्यायालय में लम्बित हो।
14.4 यथास्थिति उपधारा 1, या उपधारा 2, के अधीन
परिषद् का विनिश्चय अंतिम होगा और उसे किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया
जायेगा।
परिषद् की साधारण शक्तियाँ
***********************
14.5 इस अधिनियम के अधीन अपने
कृत्यों के पालन या कोई जाँच करने के प्रयोजन के लिए परिषद् को निम्नलिखित बातों
के बारे में संपूर्ण भारत में वे ही शक्तियाँ होंगी जो वाद का विचारण करते समय
1908 का 5, सिविल न्यायालय में सिविल प्रक्रिया संहिता,
1908 के अधीन निहित हैं, अर्थात-
क, व्यक्तियों को समन करना और हाजिर कराना तथा उनकी शपथ पर परीक्षा
करना,
ख, दस्तावेजों का प्रकटीकरण और उनका निरीक्षण,
ग, साक्ष्य का शपथ कर लिया जाना,
घ, किसी न्यायालय का कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी
प्रतिलिपियों करना,
ड़, साक्षियों का दस्तावेज़ की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना,
च, कोई अन्य विषय जो विहित जाए।
परिषद् की कार्यप्रणाली
*******************
परिषद् द्वारा तैयार किये गये जाँच
विनियम, अध्यक्ष महोदय को प्रेस परिषद् अधिनियम की
परिधि में आने वाले किसी मामले के सबंध में मूल कार्यवाही करने अथवा किसी पार्टी
को नोटिस जारी करने का अधिकार देते है। सामान्य जाँच के लिये शिकायतकर्ता द्वारा
परिषद् के सम्मुख एक शिकायत दर्ज करनी होती है, इसके अलावा
मूल कार्यवाही के लिए काफी हद तक वही प्रक्रिया होती है जैसाकि सामान्य जाँच में
होती है। अपने कार्य करने के लिये अथवा अधिनियम के अंतर्गत जाँच करने के लिये,
परिषद् निम्नलिखित मामलों के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता,
1908 के अंतर्गत एक मुकदमें की छानबीन के लिये सिविल न्यायालय में
निहित कुछ अधिकारों का इस्तेमाल करती है
(क) लोगों को सम्मन करने और उपस्थिति
हेतु दबाव डालने तथा शपथ देकर उनका परीक्षण करने हेतु।
(ख) दस्तावेजों की खोज और निरीक्षण
की आवश्यकता हेतु।
(ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य की
प्राप्ति हेतु।
(घ) किसी न्यायालय अथवा कार्यालय से
किसी सरकारी रिकार्ड अथवा इसकी प्रतियों की मांग हेतु।
(ड.) गवाहों अथवा दस्तावेजों के
परीक्षण हेतु कमीशन जारी करना और
(च) कोई अन्य मामला, जैसकि निर्दिट किया
जाये।
परिषद् अपना कार्य करने के लिये
पार्टियों से सहयोग की आशा करती है। कम से कम दो मामलों में, जहाँ परिषद् ने गौर किया कि पार्टियाँ
(पक्ष) एकदम असहयोगी अथवा कठोर थीं, वहाँ परिषद् ने अत्याधिक
संयम एवं अनिच्छा से, अपने समक्ष उपस्थित होने और अथवा
रिकार्ड आदि देने हेतु उन्हें विवश करने के अधिनियम की धारा 15 के अंतर्गत अपने
प्राधिकार का इस्तेमाल किया। चण्डीगढ. के कुछ पत्रकारों की मुख्यमंत्री और हरियाणा
सरकार के विरूद्ध शिकायत में, परिषद् द्वारा भेजे गये नोटिस
का जवाब देने में प्राधिकारियों द्वारा अस रहने पर, उन्हें
प्राधिकारियों को परिषद् के बल प्रयोग संबंधी अधिकारों के इस्तेमाल के बारे में,
पहले परिषद् को चेतावनी देनी पडी.। इसी प्रकार बी. जी. वर्गीय के दी
हिन्दुस्तान टाइम्स के विरूद्ध प्रसिद्ध मामलें में, बिरलाज
को श्री वर्गीय और श्री के. के. बिरला के बीच हुआ पूर्ण पत्राचार प्रदान करने का
निर्देश दिया गया।
.......................................................................................................................................
मीडिया संघ एवं संस्थाएं :
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर
किसी एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्यशील होते हैं तो संगठन की आवश्यकता
पड़ती है। उद्देश्य के अल्पकालीन होने से संगठन की आवश्यकता में कमी नहीं आती। यदि
कुछ व्यक्तियों को मिलकर भारी वजन उठाना हो तो इस क्षणिक उद्देश्य की पूर्ति के
लिए संगठन की आवश्यकता होती है। किसी भी व्यावसायिक उपक्रम के लिए व्यवसाय प्रारंभ
करने के पूर्व से उसको संचालित करने के लिए संगठन का निर्माण कर लिया जाना चाहिए।
बगैर संगठन के किसी भी उद्देश्य की प्रभावपूर्ण ढंग से पूर्ति संभव नहीं है। एक
अच्छा संगठन किसी निष्क्रिय उपक्रम को भी जीवन प्रदान कर सकता है। एक कमजोर संगठन
अच्छे उत्पाद को मिट्टी में मिला सकता है जबकि एक अच्छा संगठन जिसके पास कमजोर
उत्पाद है, अपने
से अच्छे उत्पाद को बाजार से निकाल सकता है। संगठन सम्पूर्ण प्रबन्ध के संचालन का
केन्द्र है जिसके द्वारा मानवीय प्रयासों को समन्वित करके उन्हें सहक्रियाशील
बनाया जाता है। संगठन कार्यों, साधनों व सम्बन्धों की एक औपचारिक अवस्था है जिसके माध्यम
से प्रबन्ध अपना कार्य सम्पन्न करता है। यह प्रबन्ध का तंत्र एवं शरीर रचना है।
संगठित प्रयासों के द्वारा ही उपक्रम की योजनाओं एवं आवश्यकताओं को साकार किया जा
सकता है। एक सुदृढ़ संगठन व्यवसाय की प्रत्येक समस्या का उत्तर है।
अर्थ एवं परिभाषा
मनुष्य के लक्ष्यों की प्राप्ति का
आधार संगठन ही है। संगठन कार्यों, साधनों एवं संबंधों की एक औपचारिक अवस्था है जिसके द्वारा
प्रबन्ध अपना कार्य सम्पन्न करता है। जब दो या अधिक व्यक्ति मिलकर किसी उद्देश्य
की प्राप्ति के लिए कार्यशील हो तो उन्हें संगठन की आवश्यकता होती है। उद्देश्य
चाहे अल्पकालीन हो या दीर्घकालीन, संगठन की आवश्यकता में कमी नहीं आती। संगठन के विभिन्न
स्तरों पर नियुक्त अधिकारियों के मध्य सह-सम्बन्धों की व्याख्या की जाती है। एक
व्यावसायिक उपक्रम को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कुशल संगठन का निर्माण
करना चाहिए क्योंकि एक कमजोर संगठन अच्छे उत्पाद को मिट्टी में मिला सकता है।
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर
किसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए कार्य करते हैं तो उनके बीच स्थापित संबंधों एवं
अन्तःक्रियाओं की संरचना को 'संगठन' कहते
हैं।
...................................................................................................................
इंडियन
न्यूज पेपर सोसायटी (आईएनएस)
INS (इंडियन
न्यूज पेपर सोसाइटी) की बंगलुरू में हुई 79वीं वार्षिक बैठक में जयंत एम
मैथ्यू को इसका अध्यक्ष चुना गया है| वे मलयाला मनोरमा से जुड़े
हुए हैं। इसके पूर्व अकीला उरंकर INS की
अध्यक्ष थीं। मैथ्यू के अलावा शैलेष गुप्ता को डिप्टी प्रेसीडेंट, एल
अदीमूलम को वायस प्रेसीडेंट और शरद सक्सेना को कोषाध्यक्ष चुना गया है। INS यानी द
इंडियन न्यूज पेपर सोसाइटी का रजिस्टर्ड ऑफिस दिल्ली में है। यह अखबारों की एक
प्रतिनिधि संस्था है।
इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी (आईएऩएस) प्रेस ऑफ इंडिया, बर्मा और सीलोन के केंद्रीय संगठन के रूप में कार्य करता
है. आईएनएस सदस्यों के ऐसे व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने और सुरक्षित करने
का कार्य करता है जिससे कि आईएनएस के सदस्यों व्दारा लागू नियमों इत्यादि
तथा विधायिकाओं, सरकारों, कानून न्यायालयों, नगरपालिका और स्थानीय निकायों और संगठनों शामिल है या
संगठनों के किसी भी नियमों के अधीन व अन्य उद्देश्य के कारण व्यावसायिक हित
प्रभावित न हों। आईएनएस सदस्यों के लिए एक व्यावहारिक अंतर रखने वाले सभी विषयों
पर जानकारी एकत्र कर उन्हें समान रूप से संवाद करना। आईएनएस सदस्यों के सामान्य
हितों को प्रभावित करने वाले सभी मामलों में सहयोग को बढ़ावा देना। आम हित के
मामलों पर कार्रवाई करने और उसके बारे में चर्चा करने के लिए अपने सदस्यों के लिए
सामयिक सम्मेलन आयोजित करना। आईएनएस सदस्यों के आचरण को नियंत्रित करने के नियमों
को, इसके उल्लंघन के लिए दंड प्रदान करने और इस
तरह के उल्लंघन का निर्धारण करने के लिए साधन प्रदान करना। आईएनएस सदस्यों के
हितों को देखने के लिए और जानकारी और विचारों के निरंतर आदान-प्रदान की अनुमति के
लिए भारत में स्थायी सचिवालय बनाए रखना। ऐसी सभी अन्य चीजों को करने या सहमति देने
के लिए जो उपरोक्त वस्तुओं की पूर्ति के लिए या सामान्य या सोसायटी या इसके किसी
भी सदस्य के अंदरूनी तौर पर अखबारों के हितों के लिए अनुकूल या प्रासंगिक माना जा
सकता है। इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी (आईएऩएस) का पता है - आईएऩएस बिल्डिंग,रफी मार्ग, नई
दिल्ली।
................................................................................................................
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, सर! आपने यह बहुत हीं सराहनीय कार्य किया है.. खासतौर से हम पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए। 🙏
जवाब देंहटाएंખૂબ ખૂબ અભિનંદન...
जवाब देंहटाएंખાસ કરીને પત્રકારત્વના અભ્યાસીઓ, વિદ્યાર્થીઓ માટે ખૂબજ ઉપયોગી બની રહેશે. ધન્યવાદ.
-- દિલીપભાઈ જે. ભટ્ટ ,રાજકોટ (ગુજરાત).
9427200571.