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सोमवार, 24 अप्रैल 2017

मेरी रचनाएँ...

ढूंढ रहा हूँ...

कहाँ है मेरा अपना गाँव
मैं उसको ढूंढ रहा हूँ।
कहाँ हैं मेरा वह स्कूल
जिसमें गुरु कराते अक्षर ज्ञान
मैं उसको ढूंढ रहा हूँ।
मेरा बचपन, वह मिडिल स्कूल 
जिसमें सिखाते , नैतिकता का ज्ञान
मैं उसको ढूंढ रहा हूँ।
आज वह धुंधली मेरी यादें
मांगती वही पुरानी शान 
मैं उसको ढूंढ रहा हूं।
दौड़ाते साईकिल का वह पहिया
छेड़ते अंताक्षरी की तान
मैं उसको ढूंढ रहा हूँ।
खेलते अबेकस जैसा खेल
करते लुका-छिपी , चलाते गुलेल,
उड़ाते गौरैया और बटेर 
मैं उसको ढूंढ रहा हूँ।
लौटा दो बचपन जैसा प्रेम 
रहते आपस में मिलजुल और सप्रेम
था मैं पैसों से अनजान
मैं उसको ढूंढ रहा हूँ।
मिले फिर मां की मीठी सी मुस्कान 
मैं उसको ढूंढ रहा हूँ।
मैं बचपन ढूंढ रहा  हूँ।


साइकिल... 
कहाँ गायब कर दी तुमने साइकिल
हाँ वही साईकिल
जिसके टायर को दौड़ाकर
बचपन में उसके पीछे दौड़ा करते थे,
वही जिसे सीखते वक्त कई बार गिरे थे
चोट लगने पर फिर मुस्करा दिए
कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा,
बिखर गए थे मेरे अरमान
जब टूट गई थी उसकी 
ट्रिन ट्रिन करती घंटी। 
वही साईकिल जिसे 
 
ब्याह में पाकर खुश हुआ था श्यामू
साईकिल का साथ पाकर बढे थे बापू
जिस पर हम स्कूल जाते समय
लगाते थे तख्ती नाम की
और लिखते थे पर्यावरण मित्र 
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रामशंकर विद्यार्थी