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सोमवार, 18 सितंबर 2017

शोध प्रारूप/प्ररचना/ डिजाइन: अवधारणात्मक अध्ययन

शोध प्रारूप/प्ररचना/ डिजाइन: अवधारणात्मक अध्ययन
संपादन- डॉ. रामशंकर विद्यार्थी
 अनुसंधान यानी शोध की विस्तृत कार्य योजना अथवा शोधकार्य प्रारंभ करने के पूर्व संपूर्ण शोध प्रक्रियाओं की एक स्पष्ट संरचना शोध प्रारूपया शोध अभिकल्पके रूप में जानी जाती है। शोध प्रारूप के संबंध में यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह शोध का कोर्इ चरण नहीं है क्योंकि शोध के जो निर्धारित या मान्य चरण हैं, उन सभी पर वास्तविक कार्य प्रारंभ होने के पूर्व ही विस्तृत विचार होता है और तत्पश्चात प्रत्येक चरण से संबंधित विषय पर रणनीति तैयार की जाती है। जब संपूर्ण कार्य योजना विस्तृत रूप से संरचित हो जाती है तब वास्तविक शोध कार्य प्रारंभ होता है।
एफ.एन. करलिंगर के अनुसार, ‘‘शोध प्रारुप अनुसंधान के लिए कल्पित एक योजना, एक संरचना तथा एक प्रणाली है, जिसका एकमात्र प्रयोजन शोध सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करना तथा प्रसरणों का नियंत्रण करना होता है।’’
पी.वी. यंग  के अनुसार, ‘‘क्या, कहाँ, कब, कितना, किस तरीके से इत्यादि के संबंध में निर्णय लेने के लिए किया गया विचार अध्ययन की योजना या अध्ययन प्रारूप का निर्माण करता है।’’
आर.एल. एकॉफ  के अनुसार, ‘‘निर्णय लिये जाने वाली परिस्थिति उत्पन्न होने के पूर्व ही निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रारुप कहते हैं।’’
स्पष्ट है कि शोध प्रारूप प्रस्तावित शोध की ऐसी रूपरेखा होती है, जिसे वास्तविक शोध कार्य को प्रारंभ करने के पूर्व व्यापक रूप से सोच-समझ के पश्चात तैयार  किया जाता है। शोध की प्रस्तावित रूपरेखा का निर्धारण अनेकों बिन्दुओं पर विचारोपरान्त किया जाता है। इसे सरलतम रूप में पी.वी. यंग (1977) ने शोध संबंधित विविध प्रश्नों के द्वारा इस तरह स्पष्ट किया है-
ü अध्ययन किससे संबंधित है और आँकड़ों का प्रकार जिनकी आवश्यकता है?
ü अध्ययन क्यों किया जा रहा है?
ü वांछित आँकड़े कहाँ से मिलेंगे?
ü कहाँ या किस क्षेत्र में अध्ययन किया जायेगा?
ü कब या कितना समय अध्ययन में सम्मिलित होगा?
ü कितनी सामग्री या कितने केसों की आवश्यकता होगी?
ü चुनावों के किन आधारों का प्रयोग होगा?
ü आँकड़ा संकलन की कौन सी प्रविधि का चुनाव किया जायेगा?
इस तरह, निर्णय लेने में जिन विविध प्रश्नों पर विचार किया जाता है जैसे क्या, कहाँ, कब, कितना, किस साधन से अध्ययन की योजना निर्धारित करते हैं। पी.वी. यंग ने वॉट इज सोशल रिसर्च, पृष्ठ 9-10) में शोध प्रारूप और शोध प्रारूप बनाम पद्धति विषय पर विधिवत विचार व्यक्त किया गया है। उनके अनुसार शोध प्रारूप को भवन निर्माण से संबंधित एक उदाहरण के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। भवन निर्माण करते समय सामग्री का आर्डर देने या प्रोजेक्ट पूर्ण होने की तिथि निर्धारित करने का कोर्इ औचित्य नहीं है, जब तक कि हमें यह न मालूम हो कि किस प्रकार का भवन निर्मित होना है। पहला निर्णय यह करना है कि क्या हमें अति ऊँचे कार्यालयी भवन की, या मशीनों के निर्माण के लिए एक फैक्टरी की, एक स्कूल, एक आवासीय भवन या एक बहुखण्डीय भवन की आवश्यकता है। जब तक यह नहीं तय हो जाता हम एक योजना का खाका तैयार नहीं कर सकते, कार्य योजना तैयार नहीं कर सकते या सामग्री का आर्डर नहीं दे सकते हैं। इसी तरह से, सामाजिक अनुसन्धान को प्रारूप या अभिकल्प की आवश्यकता होती है या तथ्य संकलन के पूर्व या विश्लेषण शुरू करने के पूर्व एक संरचना की आवश्यकता होती है। एक शोध प्रारूप मात्र एक कार्य योजना (वर्क प्लान) नहीं है। यह प्रोजेक्ट को पूर्ण करने के लिए क्या करना है कि कार्य योजना का विस्तृत विवरण है। शोध प्रारूप का प्रकार्य यह सुनिश्चित करना है कि प्राप्त साक्ष्य हमें प्रारम्भिक प्रश्नों के यथासम्भव सुस्पष्ट उत्तर देने में सक्षम बनाये।
कार्य योजना बनाने के पूर्व या सामग्री आर्डर करने के पूर्व भवन निर्माता या वास्तुविद् को प्रथमत: यह निर्धारित करना जरूरी है कि किस प्रकार के भवन की जरूरत है, इसका उपयोग क्या होगा और उसमें रहने वाले लोगों की क्या आवश्यकताएं हैं। कार्य योजना इससे निकलती है। इसी तरह से, सामाजिक अनुसन्धान में निदर्शन, तथ्य संकलन की पद्धति (उदाहरण के लिए प्रश्नावली, अवलोकन, दस्तावेज विश्लेषण) प्रश्नों के प्रारूप के मुद्दे सभी इस विषय के कि मुझे कौन से साक्ष्य इकट्ठे करने हैं’, के सहायक/पूरक होते हैं।

गेराल्ड आर. लेस्ली का कहते हैं कि, ‘शोध प्रारूप ब्लू प्रिन्ट है, जो परिवर्त्यों को पहचानता और तथ्यों को एकत्र करने तथा उनका विवरण देने के लिए की जाने वाली कार्य प्रणालियों को अभिव्यक्त करता है।शोध प्रारुप को अत्यन्त विस्तार से समझाते हुए सौमेन्द्र पटनायक ने लिखा है कि, ‘शोध प्रारुप एक प्रकार की रूपरेखा है, जिसे आपको शोध के वास्तविक क्रियान्वयन से पहले तैयार करना है। योजनाबद्ध रूप से तैयार एक खाका होता है जो उस रीति को बतलाता है जिसमें आपने अपने शोध की कार्य योजना तैयार की है। आपके पास अपने शोध कार्य पर दो पहलुओं से विचार करने का विकल्प है, नामत: अनुभवजन्य पहलू और विश्लेषणपरक पहलू। ये दोनों ही पहलू एक साथ आपके मस्तिष्क में रहते हैं, जबकि व्यवहार में आपको अपना शोध कार्य दो चरणों में नियोजित करना है : एक सामग्री संग्रहण का चरण और दूसरा उस सामग्री के विश्लेषण का चरण। आपकी मनोगत सैद्धान्तिक उन्मुखता और अवधारणात्मक प्रतिदर्शताएँ आपको इस शोध सामग्री के स्वरूप को निर्धारित करने में मदद करती हैं जो आपको एकत्र करनी है और कुछ हद तक यह समझने में भी कि आपको उन्हें कैसे एकत्र करना है। तदोपरान्त, अपनी सामग्री का विश्लेषण करते समय फिर से आमतौर पर समाजिक यथार्थ सम्बन्धी सैद्धान्तिक और अवधारणात्मक समझ के सहारे आपको अपने शोध परिणामों को स्पष्ट करने में और प्रस्तुत करने के वास्ते शोध सामग्री को वर्गीकृत करने में और विन्यास विशेष को पहचानने में दिशानिर्देशन मिलता है।
पीवी यंग जी का कहना है कि, ‘‘जब एक सामान्य वैज्ञानिक मॉडल को विविध कार्यविधियों में परिणत किया जाता है तो शोध प्रारुप की उत्पत्ति होती है। शोध प्रारुप उपलब्ध समय, कर्म शक्ति एवं धन, तथ्यों की उपलब्धता उस सीमा तक जहाँ तक यह वांछित या सम्भव हो उन लोगों एवं सामाजिक संगठनों पर थोपना जो तथ्य उपलब्ध करायेंगे, के अनुरूप होना चाहिए।’’
र्इ.ए. सचमैन  का कहना है कि, ‘एकल या सहीप्रारुप जैसा कुछ नही है शोध प्रारुप सामाजिक शोध में आने वाले बहुत से व्यावहारिक विचारों के कारण आदेशित समझौते का प्रतिनिधित्व करता है। . . . . (साथ ही) अलग-अलग कार्यकर्त्ता अलग-अलग प्रारुप अपनी पद्वतिशास्त्रीय एवं सैद्धान्तिक प्रतिस्थापनाओं के पक्ष में लेकर आते हैं . . . . एक शोध प्रारुप विचलन का अनुसरण किए बिना कोर्इ उच्च विशिष्ट योजना नही है, अपितु सही दिशा में रखने के लिए मार्गदर्शक स्तम्भों की श्रेणी है।

दूसरे शब्दों में, एक शोध प्रारुप काम चलाऊ होता है। अध्ययन जैसे-जैसे प्रगति करता है, नये पक्ष, नर्इ दशाएं और तथ्यों में नयी संबंधित कड़ियाँ प्रकाश में आती हैं, और परिस्थितियों की माँग के अनुसार यह आवश्यक होता है कि योजना परिवर्तित कर दी जाये। योजना का लचीला होना जरूरी होता है। लचीलेपन का अभाव संपूर्ण अध्ययन की उपयोगिता को समाप्त कर सकता है।
शोध प्रारूप के प्रकार
शोध प्रारुपों के कर्इ प्रकार होते हैं। विविध विद्वानों ने शोध प्रारुपों के कुछ तो एक समान और कुछ अलग प्रकार के प्रकारों का उल्लेख किया है-
1.       ऐतिहासिक शोध प्रारुप (Historical Research Design)
2.       वैयक्तिक और क्षेत्र शोध प्रारुप (Case and Field Research Design)
3.       विवरणात्मक या सर्वेक्षण शोध प्रारुप (Descriptive or Survey Research Design)
4.       सह सम्बन्धात्मक या प्रत्याशित शोध प्रारुप ( Correlational or Prospective Research Design)
5.       कारणात्मक, तुलनात्मक या एक्स पोस्ट फैक्टों शोध प्रारुप (Causal Comparative or Ex- Post Facto Research Design)
6.       विकासात्मक या समय श्रेणी शोध प्रारुप (Developmental or Time Series Research Design)
7.       प्रयोगात्मक शोध प्रारुप (Experimental Research Design)
8.       अर्द्ध प्रयोगात्मक शोध प्रारुप (Quasi Experimental Research Design)
अन्य चार प्रकार के शोध प्रारुपों का उल्लेख किया गया है-
1.       प्रयोगात्मक (Experimental)
2.       वैयक्तिक अध्ययन (Case Study)
3.       अनुलम्ब प्रारूप (Longitudinal)
4.       अनुप्रस्थ काट प्रारुप (Cross-Sectional Design)
कुछ विद्वानों ने अनेकों प्रकारों का उल्लेख किया है। जो कुछ भी हो मोटे तौर पर शोध प्रारुपों को चार महत्वपूर्ण प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है-
1.       विवरणात्मक प्रारुप या वर्णनात्मक शोध प्रारुप।
2.       व्याख्यात्मक प्रारुप
3.       अनवेषणात्मक प्रारुप, और
4.       प्रयोगात्मक प्रारुप
किसी विशिष्ट प्रारूप का चयन शोध की प्रकृति पर मुख्यत: निर्भर करता है। कौन सी सूचना चाहिए, कितनी विश्वसनीय सूचना चाहिए, प्रारूप की उपयुक्तता क्या है, लागत कितनी आयेगी, इत्यादि कारकों पर भी प्रारूप चयन निर्भर करता है।
1. विवरणात्मक या वर्णनात्मक शोध प्रारूप
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस प्रारुप में अध्ययन विषय़ के संबंध में प्राप्त सभी प्राथमिक तथ्यों का यथावत् विवरण प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रारुप का मुख्य उद्देश्य अध्ययन की जा रही इकार्इ, संस्था, घटना, समुदाय या समाज इत्यादि से संबंधित पक्षों का हूबहू वर्णन किया जाता है। यह प्रारूप वैसे तो अत्यन्त सरल लगता है किन्तु यह दृढ़ एवं अलचीला होता है इसमें विशेष सावधानी अपेक्षित होती है। इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए कि निदर्शन पर्याप्त एवं प्रतिनिधित्वपूर्ण हो। प्राथमिक तथ्य संकलन की प्रविधि सटीक हो तथा प्राथमिक तथ्य संकलन में किसी भी प्रकार से पूर्वाग्रह या मिथ्या झुकाव न आने पाये। अध्ययन समस्या के विषय में व्यापक तथ्यों को इकठ्ठा किया जाता है, इसलिए ऐसी सतर्कता बरतनी चाहिए कि अनुपयोगी एवं अनावश्यक तथ्यों का संकलन न होने पाये। अध्ययन पूर्ण एवं यथार्थ हो और अध्ययन समस्या का वास्तविक चित्रण हो इसके लिए विश्वसनीय तथ्यों का होना नितान्त आवश्यक है।
वर्णनात्मक शोध का उद्देश्य मात्र अध्ययन समस्या का विवरण प्रस्तुत करना होता है। इसमें नवीन तथ्यों की खोज या कार्य-कारण व्याख्या पर जोर नहीं दिया जाता है। इस प्रारुप में किसी प्रकार करके प्रयोग भी नही किए जाते हैं। इसमें अधिकांशत: सम्भावित निदर्शन का ही प्रयोग किया जाता है। इसमें तथ्यों के विश्लेषण में क्लिष्ट सांख्यिकीय विधियों का भी प्रयोग सामान्यत: नहीं किया जाता है।
इसमें शोध विषय के बारे में शोधकर्ता को अपेक्षाकृत यथेष्ट जानकारी रहती है इसलिए वह शोध संचालन सम्बन्धी निर्णयों को पहले ही निर्धारित कर लेता है। वर्णनात्मक शोध प्रारूप के अलग से कोर्इ चरण नही होते हैं। सामान्यत: सामाजिक अनुसंधान के जो चरण हैं, उन्हीं का इसमें पालन किया जाता है। संपूर्ण एकत्रित प्राथमिक सामग्री के आधार पर ही अध्ययन संबंधित निष्कर्ष निकाले जाते हैं एवं आवश्यकतानुसार सामान्यीकरण प्रस्तुत किये जाने का प्रयास किया जाता है।
2. व्याख्यात्मक शोध प्रारूप
शोध समस्या की कारण सहित व्याख्या करने वाला प्रारूप व्याख्यात्मक शोध प्रारुप कहलाता है। व्याख्यात्मक शोध प्रारुप की प्रकृति प्राकृतिक विज्ञानों की प्रकृति के समान ही होती है, जिसमें किसी भी वस्तु, घटना या परिस्थिति का विश्लेषण ठोस कारणों के आधार पर किया जाता है। सामाजिक तथ्यों की कार्य-कारण व्याख्या यह प्रारूप करता है। इस प्रारुप में विविध उपकल्पनाओं का परीक्षण किया जाता है तथा परिवत्र्यों में संबंध और सहसंबंध ढूढ़ने का प्रयास किया जाता है।
3. अन्वेषणात्मक शोध प्रारूप
जब सामाजिक अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य अध्ययन समस्या के संबंध में नवीन तथ्यों को उद्घाटित करना हो तो इस प्रारुप का प्रयोग किया जाता है। इसमें अध्ययन समस्या के वास्तविक कारकों एवं तथ्यों का पता नही होता है। अध्ययन के द्वारा उनका पता लगाया जाता है। चूँकि इसमें कुछ नयाखोजा जाता है इसलिए इसे अन्वेषणात्मक शोध प्रारुप कहा जाता है। इस प्रारूप द्वारा सिद्धान्त का निर्माण होता है।
कभी-कभी अन्वेषणात्मक और व्याख्यात्मक शोध प्रारुप को एक ही मान लिया जाता है। कर्इ विद्वानों ने तो व्याख्यात्मक शोध प्रारुप का उल्लेख तक नहीं किया है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो यह कहा जा सकता है कि जिस सामाजिक शोध में कार्य- कारण सम्बन्धों पर बल देने की कोशिश की जाती है, वह व्याख्यात्मक शोध प्रारुप के अन्तर्गत आता है, और जिसमें नवीन तथ्यों या कारणों द्वारा विषय को स्पष्ट किया जाता है, उसे अन्वेषणात्मक शोध प्रारुप के अन्तर्गत रखते हैं। इसमें शोधकर्ता को अध्ययन विषय के बारे में सूचना नही रहती है। द्वैतियक स्रोतों के द्वारा भी वह उसके विषय में सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है। अज्ञात तथ्यों की खोज करने के कारण या विषय के संबंध में अपूर्ण ज्ञान रखने के कारण इस प्रकार के शोध प्रारुप में सामान्यत: उपकल्पनाएँ निर्मित नहीं की जाती हैं। उपकल्पनाओं के स्थान पर शोध प्रश्नों का निर्माण किया जाता है और उन्हीं शोध प्रश्नों के उत्तरों की खोज द्वारा शोध कार्य सम्पन्न किया जाता है।
विलियम जिकमण्ड ने अन्वेषणात्मक शोध के तीन उद्देश्यों का वर्णन किया है (1) परिस्थिति का निदान करना (2) विकल्पों को छाँटना तथा, (3) नये विचारों की खोज करना। सरन्ताकोस (1988) के अनुसार सम्भाव्यता, सुपरिचितिकरण, नवीन विचार, समस्या के निरुपण तथा परिचालनीकरण के कारण अन्वेषणात्मक शोध प्रारुप को अपनाया जाता है। वास्तव में जहोदा तथा अन्य ने ठीक ही कहा है कि, ‘‘अन्वेषणात्मक अनुसन्धान अनुभव को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है जो कि अधिक निश्चित खोज के लिए उपयुक्त उपकल्पना के निर्माण में सहायक हो।’’
सामाजिक समस्या के अन्तर्निहित कारणों को खोजने के कारण कारण इस प्रारुप में लचीलापन होना जरुरी है। इसमें तथ्यों की प्रकृति अधिकांशत: गुणात्मक होती है, इसलिए अधिक से अधिक तथ्यों एवं सूचनाओं को प्राप्त करने की कोशिश की जाती है। तथ्य संकलन की प्रविधि इसकी प्रकृति के अनुरूप ही होनी चाहिए। समय और साधन का भी ध्यान रखना चाहिए।
4. प्रयोगात्मक शोध प्रारुप
ऐसा शोध प्रारुप जिसमें अध्ययन समस्या के विश्लेषण हेतु किसी न किसी प्रकार का प्रयोगसमाहित हो, प्रयोगात्मक शोध प्रारुप कहलाता है। यह प्रारुप नियंत्रित स्थिति में जैसे कि प्रयोगशालाओं में ज्यादा उपयुक्त होता है। सामाजिक अध्ययनों में सामान्यत: प्रयोगशालाओं का प्रयोग नही होता है। उनमें नियंत्रित समूह और अनियंत्रित समूहों के आधार पर प्रयोग किये जाते हैं। इस प्रकार के प्रारुप का प्रयोग ग्रामीण समाजशास्त्र और विशेषकर कृषि सम्बन्धी अध्ययनों में ज्यादा होता है। वैसे औद्योगिक समाजशास्त्र में वेस्टन इलेक्ट्रिक कम्पनी के हाथोर्न वक्र्स में हुए प्रयोग काफी चर्चित रहे हैं। ग्रामीण प्रयोगात्मक अध्ययनों में प्रयोगों के आधार पर यह पता लगाया जाता है कि संचार माध्यमों का क्या प्रभाव पड़ रहा है, योजनाओं का लाभ लेने वालों और न लेने वालों की सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति में क्या अन्तर आया है, इत्यादि इत्यादि। इसी प्रकार के बहुत से विषयों/प्रभावों को इस प्रारूप के द्वारा स्पष्ट करने की कोशिश की जाती है। परिवत्र्यों के बीच कारणात्मक सम्बन्धों का परीक्षण इसके द्वारा प्रामाणिक तरीके से हो पाता है।








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