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सोमवार, 5 सितंबर 2016

शिंतो धर्म

 शिंतो धर्म
शिन्तो धर्म (शिन्-तो, अर्थात कामियों का मार्ग) जापान देश का एक प्रमुख और मूल धर्म है। इसमें कई देवी-देवता हैं, जिनको कामी कहा जाता है। हर कामी किसी न किसी प्राकृतिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। बौद्ध धर्म के साथ इसका काफ़ी मेल मिलाप हुआ है और इसमें बौद्ध धर्म के कई सिद्धान्त जुड़ गये हैं। एक ज़माने में शिन्तो धर्म जापान का राजधर्म हुआ करता था। इस धर्म में जापान के राजा को प्रधान गुरु मानते थे किन्तु दूसरे विश्व-युद्ध के बाद से ऐसा करना बन्द कर दिया गया हे समुराई इसी धर्म को मानते हैं।
शिंतो, जापान का देशज व राष्टीय धर्म है, लेकिन इसका नाम चीनी भाषा का है। चीनी में शेन-ताओदेवताओं के मार्ग को कहते हैं। इसी शेन-ताओशब्द का संक्षिप्त व विकृत रूप है शिंतो। इस धर्म को जापानी में कामी नोमीचींभी कहते हैं। कामी का अर्थ है-शानदार, चमत्कारी, दिव्य आदि। कोई भी ची़ज या व्यक्ति को देखकर अगर दिल में डर, शक्ति, रहस्य या आश्र्चर्य के भाव जाग उठें, तो वह कामी कहलायेगा। इस लिहा़ज से सूरज, चांद, आग, हवा, समुद्र, नदी, बड़ी चट्टान, असाधारण पेड़, जानवर वगैरह कामी या देवता माने जाते हैं।
शिंतो धर्म के अनुसार आसमान में अनेक कामी हैं। उनमें से इ़जानागी (पुरुष-कामी) और इ़जानामी (स्त्री-कामी) ने जापान के आठ द्वीपों को उत्पन्न किया। इन द्वीपों से पूरी पृथ्वी पर शासन करने के लिए इन दोनों देवताओं की संतान जापान में रहने लगी। इन संतानों में सर्वश्रेष्ठ थीं सूर्य-देवी, जिसे अमाटे-रासु-ओमी-कामीकहते हैं। इस देवी के पोते जिम्मूटेन्नोको जापान का ही नहीं, सारे जहान का पहला सम्राट माना जाता है। यह ईसा से 660 वर्ष पहले की बात है। वहीं से जापानी संवत् शुरू होता है। तभी से जिम्मूटेन्नो और उसके वंशज पृथ्वी पर देवताओं के प्रतिनिधि माने गये। उन्हें न सिर्फ पृथ्वी पर शासन का अधिकार दिया गया, बल्कि प्रजा को आदेश दिया गया कि उनकी पूजा की जाए। यही वजह है कि जापान में सूर्य देवी की तरह मिकाडो पूजनीय व सम्माननीय हैं। मिकाडो जापान के राजा को कहते हैं। राजा दिव्य है और उसके प्रति श्रद्घाभक्ति प्रत्येक जापानी का पवित्र कर्त्तव्य है। इस लिहा़ज से मिकाडो की पूजा करना और उस जैसा बनना शिंतो धर्म की बुनियाद है।
शुरुआत में, शिंतो धर्म में केवल प्राकृतिक देवी-देवताओं की पूजा ही की जाती थी, लेकिन वक्त के साथ कुछ बदलावों का आना स्वाभाविक था। ईसा की पांचवीं सदी में शिंतो धर्म पर चीन के कनफ़्यूशस धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। इसलिए शिंतो धर्म में भी सामाजिक सदाचार, माता-पिता के प्रति अटूट श्रद्घा और पितरों की पूजा विशेष रूप से होने लगी। इसके बाद आठवीं शताब्दी में इस पर बौद्घ धर्म का जबरदस्त असर पड़ा और यह रयोबू शिंतो धर्म बन गया। रयोबू का अर्थ होता है दोहरा या मिश्रित यानी शिंतो व बौद्घ धर्म आपस में मिल गये तथा दोनों के साझे मंदिरों में दोनों के पुरोहितों द्वारा मिश्रित पूजा-पाठ होने लगी। इस मिलन से शिंतो धर्म में भी नैतिकता और दार्शनिकता को बल दिया जाने लगा।
लेकिन 17वीं सदी में शुद्घ शिंतो धर्म फिर से जी उठा और राष्टीय-भक्ति व सम्राट-भक्ति को पुनः विशेष सम्मान दिया जाने लगा। इसका नाम भी बदल कर राष्टीय शिंतो धर्मकर दिया गया। राजा का अनुकरण करना शिंतोधर्मी के लिए फिर ला़िजमी हो गया। अब हर शिंतोधर्मी का यह कर्त्तव्य हो गया कि वह राजा की तरह पवित्र, निष्कपट, सत्यप्रिय और साहसी बने।
शिंतो धर्म में दो ग्रंथ महत्वपूर्ण हैं-कोजीकी और निहोंगी। कोजीकी का संग्रह 712 ईस्वी में किया गया और निहोंगी का 720 ईस्वी में। इन ग्रंथों में सृष्टि-रचना की कथाएं मिकाडो की दैवी उत्पत्ति और जिम्मू टेन्नो आदि सम्राटों की वंशावलियों का जिक्र किया गया है। इनमें यह भी उल्लेख है कि जिम्मू टेन्नो ने अपने राज्याभिषेक के वक्त सबके सामने अपने राज्य को पूरी पृथ्वी पर फैलाने की कसम खाई थी। इसी से यह धारणा बनी कि पूरी दुनिया पर चावर्ती राज्य कायम करना मिकाडो का दैवी मकसद है।
शिंतो धर्म का विशेष आकर्षण यह है कि इसमें न कोई निश्र्चित सिद्घांत है, न गंभीर दर्शन और न जटिल कर्मकांड। इसमें आठ लाख से अधिक देवता हैं, जिनकी पूजा की जाती है। सब दृश्य और अदृश्य पदार्थ अमेनूमीन कानुसीदेवता में समाये हुए हैं, जो कि सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और गुणातीत हैं। अमाटेरासु-ओमी-कामी (सूर्य देवी) का स्थान सर्वोच्च है। उसके बाद सुरतानो आनोमिकटो (वर्षा देवता) और रसुकियोमीनोमिकटो (चन्द्र देवता) का स्थान है। आकाश पर सूर्य देवी का, सागर पर वर्षा देवता का और रात पर चन्द्र देवता का राज है।
शिंतो धर्म में प्राकृतिक देवी-देवताओं की पूजा की प्रधानता है। इसलिए जापान को प्राकृतिक देवताओं का देश माना जाता है और समुद्र, नदियों, पृथ्वी व पर्वतों को देवता मानकर पूजा जाता है। फूजी पर्वत न सिर्फ देवता है, बल्कि जापान का रक्षक भी माना जाता है। इन देवों को नमस्कार किया जाता है, खाने-पीने की ची़जें अर्पित की जाती हैं और उनसे दुआएं की जाती हैं। मिकाडो (राजा) और देश भी देव हैं, जिनके प्रति अनन्य भक्ति अनिवार्य है। इसी भक्ति के कारण सेनापति हार पर हाराकिरी (आत्महत्या) को वरीयता देते हैं और मिकाडो की मृत्यु पर खुद भी अपनी जान दे देते हैं ताकि अगले जन्म में राजा के ही सेवक बनें। गौरतलब है कि जापानी राजवंश सूर्यदेवी से उत्पन्न माना जाता है। राजा की सत्ता के चिह्न खड्ग, रत्न, दर्पण देवताओं के सम्मुख रखे जाते हैं। जापान में इस धर्म के 114000 मंदिर हैं।
शिंतो धर्म में पितरों की पूजा, माता-पिता की सेवा, बच्चों से प्रेम, पवित्रता और आंतरिक प्रेरणा का विशेष महत्व है। हालांकि मानव जीवन का परिष्कार ही स्वर्गपथ है, लेकिन प्रभु-प्राप्ति का पहला और निश्र्चित रास्ता कपट-त्याग है। इनके अलावा जो शिंतो धर्म की प्रमुख शिक्षाएं हैं, वह इस प्रकार हैं-
·         देवता निष्कपटता और सद्गुणों से प्रेम करते हैं, पूजा के पदार्थों से नहीं।
·         मंदिर में तीन दिन के उपवास की तुलना में एक भला काम करना बेहतर है।
·         जो अंदर है अगर वही स्वच्छ नहीं, तो जो बाहर है उसके लिए पूजा-अर्चना करना बेकार है।
·         झूठे व कुटिल व्यक्ति के लिए कहीं स्थान नहीं है, न जमीन पर न आसमान में।
·         सब पर दया करो चाहे वह भिखारी हो, कोढ़ी हो या फिर चींटी अथवा झींगुर।
·         दयालु व उदार व्यक्ति की आयु बढ़ा दी जाती है।
·         न बुरा देखो, न बुरा सुनो और न बुरा बोलो।
·         जिंदगी से अधिक कीमती है सदाचार, उस पर अटल रहो।
·         स्वर्ग और नरक इंसान के मन में हैं। मन अच्छा तो स्वर्ग, मन बुरा तो नरक।
·         जब तक इंसान सच का दामन थामे रहता है, ईश्र्वर उसकी रक्षा करता रहता है।
·         इस सत्य से न मुंह मोड़ो न भूलो कि पूरा संसार एक विशाल परिवार है।
·         धार्मिक शिक्षाओं में दोष मत दिखाओ।
इन शिक्षाओं से स्पष्ट हो जाता है कि शिंतो धर्म का मकसद मानव का चरित्र विकास है ताकि एक सभ्य व पारस्परिक प्रेम वाला समाज विकसित हो सके, जिसमें मनुष्य से लेकर चींटी तक के लिए विकास व फलने-फूलने की गुंजाइश हो। इस धर्म में धार्मिक रीति-रिवाजों की तुलना में भले ही कामों व सद्गुणों को वरीयता दी गयी है, इसलिए इसकी आज भी प्रासंगिकता कायम है।
राज धर्म बनने तक का सफर 
जापान के शिंतो धर्म की ज्यादातर बातें बौद्ध धर्म से ली गई थी फिर भी इस धर्म ने अपनी एक अलग पहचान कायम की थी। इस धर्म की मान्यता थी कि जापान का राज परिवार सूर्य देवी अमातिरासु ओमिकामी से उत्पन्न हुआ है। उक्त देवी शक्ति का वास नदियों, पहाड़ों, चट्टानों, वृक्षों कुछ पशुओं तथा विशेषत: सूर्य और चंद्रमा आदि किसी में भी हो सकता है।
इसीलिए कालांतर में प्राकृतिक शक्तियों, महान व्यक्तियों, पूर्वजों तथा सम्राटों की भी उपासना की जाती थी। किंतु बौद्ध धर्म के प्रभाव से सारी रूढि़याँ छूट गई लेकिन 1868-1912 में शिंतो धर्म ने बौद्ध विचारों से स्वतंत्र होकर अपने धार्मिक मूल्यों की पुन: व्याख्याग और स्थापना कर इसे जापान का 'राज धर्म' बना दिया गया।
शिंतों धर्म में नीति और नियमों का कोई उल्लेख नहीं मिलता और ना ही इसके विधि-विधान या क्रियाकांड के कोई ग्रंथ है। इसकी आवश्यकता इसलिए महसूस नहीं हुई क्योंकि उनके विचार से प्रत्येक जापानी नीति और अनुशासन के मार्ग पर चलता ही है। जापानी मानते थे कि उनका प्रत्येक कार्य या नियम ईश्वपर प्रदत्य है।
शिंतो तीर्थ स्थल व मंदिर भव्य होते हैं, क्योंकि मान्यता है कि इन भव्य मंदिरों में देवता वास करते है इसीलिए लोग प्रवेश द्वार के माध्यम से अपनी प्रार्थनाएँ करते थे। शिंतो तीर्थ स्थलों में सबसे महत्वपूर्ण 'आइस' में स्थित 'सूर्य देवी' का तीर्थस्थल था, जहाँ जून और दिसम्बर में एक बार राजकीय समारोह होता है।
शिंतो धर्मावलम्बियों की पूजा-पद्धति में प्रार्थनाएँ करना, तालियाँ बजाना शुद्धिकरण और देवताओं की श्रद्धा में कुछ अर्पण करना सम्मिलित है। पुरोहित प्रार्थनाएँ पढ़ते हैं, कामनाएँ करते हैं तथा पूर्वजों की स्मृति में भेटें चढ़ाई जाती है। संगीत, नृत्य के आयोजन के साथ ही धार्मिक उत्सवों वाले दिनों में जुलूस निकाले जाते हैं।


कन्फ़्यूशियस :भारतीय संस्कृति द्योतक

कन्फ़्यूशियस
कन्फ़्यूशियस एक प्रसिद्ध दार्शनिक तथा सुधारक, जिसका जन्म चीन में हुआ था। उस समय चीन में 'झोऊ राजवंश' का बसन्त और शरद काल चल रहा था। समय के साथ झोऊ राजवंश की शक्ति कम पड़ने के कारण चीन में बहुत से राज्य कायम हो गये, जो सदा आपस में लड़ते रहते थे। इस कारण इसे 'झगड़ते राज्यों का काल' कहा जाने लगा। अतः चीन की प्रजा बहुत ही कष्ट झेल रही थी। इसी समय में चीन वासियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने हेतु महात्मा कन्फ़्यूशियस का उदय हुआ। कन्फ़्यूशियस ने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि उसे कोई दैवी शक्ति या ईश्वरीय संदेश प्राप्त होते थे। वह केवल इस बात का चिंतन करता था कि व्यक्ति क्या है और समाज में उसके कर्तव्य क्या हैं। उसने शक्ति प्रदर्शन, असाधारण एवं अमानुषिक शक्तियों, विद्रोह प्रवृत्ति तथा देवी-देवताओं का ज़िक्र कभी नहीं किया। उसका कथन था कि "बुद्धिमत्ता की बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण उत्तरदायित्व और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करे।"
जन्म
इतिहासकार स्ज़ेमा चिएन के मतानुसार कन्फ़्यूशियस का जन्म 550 ई. पू. में हुआ। उनका जातीय नाम 'कुंग' था। कुंग फूत्से का लातीनी स्वरूप ही कन्फ़्यूशियस है, जिसका अर्थ होता है- 'दार्शनिक कुंग'। वर्तमान 'शांतुंग' कहलाने वाले प्राचीन लू प्रदेश का वह निवासी था, और उसका पिता 'शू-लियागहीह' त्साऊ ज़िले का सेनापति था। कन्फ़्यूशियस का जन्म अपने पिता की वृद्धावस्था में हुआ था, जो उसके जन्म के तीन वर्ष के उपरांत ही स्वर्गवासी हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका परिवार बड़ी कठिन परिस्थितियों में फँस गया, जिससे उसका बाल्यकाल बड़ी ही आर्थिक विपन्नता में व्यतीत हुआ। परंतु उसने अपनी इस निर्धनता को ही आगे चलकर अपनी विद्वता तथा विभिन्न कलाओं में दक्षता का कारण बनाया। जब वह केवल पाँच वर्ष का था, तभी से अपने साथियों के साथ जो खेल खेलता, उसमें धार्मिक संस्कारों तथा विभिन्न कलाओं के प्रति उसकी अभिरुचि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती थी।[1]
विवाह
19 वर्ष की अवस्था में 'सुंग' नामक प्रदेश की एक कन्या से उसका विवाह हो गया। विवाह के दूसरे वर्ष उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसके पश्चात्‌ दो कन्याएँ। विवाह के थोड़े ही दिन पश्चात्‌ त्साऊ नामक ज़िले के स्वामी के यहाँ, जो की जाति का प्रधान था, उसे नौकरी मिल गई।
विद्यालय की स्थापना
22 वर्ष की अवस्था में कन्फ़्यूशियस ने एक विद्यालय की स्थापना की। इसमें ऐसे युवक और प्रौढ़ शिक्षा ग्रहण करते थे, जो सदाचरण एवं राज्य संचालन के सिद्धांतों में पारंगत होना चाहते थे। अपने शिष्यों से वह यथेष्ट आर्थिक सहायता लिया करता था। परंतु कम से कम शुल्क दे सकने वाले विद्यार्थी को भी वह अस्वीकार नहीं करता था; किंतु साथ ही ऐसे शिक्षार्थियों को भी वह अपने शिक्षा केंद्र में नहीं रखता था, जिनमें शिक्षा और ज्ञान के प्रति अभिरुचि तथा बौद्धिक क्षमता नहीं होती थी।
लाओत्से से भेंट
517 ई. पू. में दो सिअन युवक अपने जातीय प्रधान के मृत्युकालीन आदेश के अनुसार कन्फ़्यूशियस की शिष्य मंडली में सम्मिलित हुए। उन्हीं के साथ वह राजधानी गया, जहाँ उसने राजकीय पुस्तकालय की अमूल्य पुस्तकों का अवलोकन किया ओर तत्कालीन राजदरबार में प्रचलित उच्च कोटि के संगीत का अध्ययन किया। वहाँ उसने कई बार 'ताओवाद' के प्रवर्तक 'लाओत्से' से भेंट की और उससे बहुत प्रभावित भी हुआ।
लू प्रदेश को वापसी
जब कन्फ़्यूशियस लौटकर लू प्रदेश में आया तो उसने देखा, प्रदेश में बड़ी अराजकता उत्पन्न हो गई है। मंत्रियों से झगड़ा हो जाने के कारण उक्त प्रदेश का सामंत भाग कर पड़ोस के त्सी प्रदेश में चला गया है। कन्फ़्यूशियस को ये सब बातें रुचिकर नहीं लगीं और वह भी अपनी शिष्य मंडली के साथ त्सी प्रदेश को चल दिया। कहा जाता है, जब वे लोग एक पर्वत के बीच से जा रहे थे, तब उन्हें वहाँ एक स्त्री दिखाई दी, जो किसी क़ब्र के पास बैठी विलाप कर रही थी। कारण पूछने पर उसने बताया कि एक चीते ने वहाँ पर उसके श्वसुर को मार डाला था, इसके बाद उसके पति की भी वहीं दशा हुई और अब उसके पुत्र को चीते ने मार डाला है। इस पर उस स्त्री से यह प्रश्न किया गया कि वह ऐसे वन्य तथा भयंकर स्थान में क्यों रहती है, तो उसने उत्तर दिया कि उस क्षेत्र में कोई दमनकारी सरकार नहीं है। इस पर कन्फ़्यूशियस ने अपने शिष्यों को बताया कि क्रूर एवं अनुत्तरदायी सरकार चीते से भी अधिक भयानक होती है। कन्फ़्यूशियस को त्सी में भी रहना ठीक नहीं लगा। वहाँ के शासक के दरबारियों ने उसकी बड़ी आलोचना की, उसे अगणित विचित्रताओं से भरा हुआ अव्यावहारिक तथा आत्माभिमानी मनुष्य बताया, फिर भी वहाँ का शासक सामंत उसका बहुत आदर करता था और उसने उसे राजकीय आय का बहुत बड़ा भाग समर्पित करने का प्रस्ताव किया। किंतु कन्फ़्यूशियस ने कुछ भी लेना स्वीकार न किया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि यदि उसके परामर्शो पर राज्य का संचालन न किया गया तो उसे किसी भी प्रकार की सहायता या प्रतिष्ठा स्वीकृत न होगी। असंतुष्ट मन से वह लू प्रदेश को पुन: लौट आया और लगभग 15 वर्ष तक एकांत जीवन व्यतीत करता हुआ स्वाध्याय में दत्तचित्त रहा।
न्यायाधीश का पद
52 वर्ष की अवस्था में उसे चुंगतू प्रदेश का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। उसके इस पद पर आते ही जनता के व्यवहार में आश्चर्यजनक सुधार दिखाई देने लगा। तत्कालीन सामंत शासक ने, जो विगत भागे हुए सांमत का छोटा भाई था, कन्फ़्यूशियस को अधिक उच्च पद प्रदान किया और अंत में उसे अपराध विभाग का मंत्री नियुक्त कर दिया। इसी समय उसके दो शिष्यों को भी उच्च एवं प्रभावशाली पद प्राप्त हो गए। अपने इन शिष्यों की सहायता से कन्फ़्यूशियस ने जनता के आचार एवं व्यवहार में बहुत अधिक सुधार किया। शासन का जैसे कायापलट हो गया, बेईमानी और पारस्परिक अविश्वास दूर हो गए। जनता में उसका बड़ा आदर सम्मान होने लगा और वह सबका पूज्य बन गया।
शत्रु सामंतों की साजिश
कन्फ़्यूशियस के इस बढ़ते हुए प्रभाव से त्सी के सामंत और उसके मंत्रिगण आतंकित हो उठे। उन्होंने सोचा कि यदि कन्फ़्यूशियस इसी प्रकार अपना कार्य करता रहा तो संपूर्ण राज्य में लू प्रदेश का प्रभाव सर्वाधिक हो जाएगा और त्सी प्रदेश को बड़ी क्षति पहुँचेगी। पर्याप्त विचारविमर्श के पश्चात्‌ त्सी के मंत्रियों ने संगीत एवं नृत्य में कुशल अत्यंत सुंदर तरुणियों का एक दल लू प्रदेश को भेजा। यह चाल चल गई। लू की जनता ने इन विलासिनी रमणियों का खूब स्वागत किया। जनता का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट होने लगा और उसने संत कन्फ़्यूशियस के परामर्शों तथा आदर्शों की अवहेलना आरंभ कर दी। कन्फ़्यूशियस को इससे बड़ा खेद हुआ और उसने लू प्रदेश छोड़ देने का विचार किया। सामंत भी उसकी अवहेलना करने लगा। किसी एक बड़े बलिदान के पश्चात्‌ मांस का वह भाग कन्फ़्यूशियस के पास नहीं भेजा, जो उसे नियमानुसार उसके पास भेजना चाहिए था। कन्फ़्यूशियस को राज्यसभा छोड़ देने का यह अच्छा अवसर मिला और वह धीरे-धीरे वहाँ से अलग होकर चल दिया। यद्यपि वह बड़े बेमन से जा रहा था और यह आशा करता था कि शीघ्र ही सामंत की बुद्धि सन्मार्ग पर आ जाएगी और उसे वापस बुला लेगा, किंतु ऐसा हुआ नहीं और इस महात्मा को अपने जीवन के 56वें वर्ष में इधर-उधर विभिन्न प्रदेशों में भटकने के लिए चल देना पड़ा।
विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण
13 वर्ष तक कन्फ़्यूशियस विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण इस आशा से करता रहा कि उसे कोई ऐसा सामंत शासक मिल जाए जो उसे अपना मुख्य परामर्शदाता नियुक्त कर ले और उसके परामर्शों पर शासन का संचालन करे, जिससे उसका प्रदेश एक सार्वदेशिक सुधार का केंद्र बन जाए, किंतु उसकी सारी आशाएँ व्यर्थ सिद्ध हुईं। शासकगण उसका सम्मान करते थे, उसको प्रतिष्ठा एवं आदर सम्मान तथा राजकीय सहायता देने के लिए उद्यत थे, किंतु कोई उसके परामर्शों को मानने और अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने के लिए तैयार न था। इस प्रकार 13 वर्ष भ्रमण करने के पश्चात्‌ अपने जीवन के 69वें वर्ष में कन्फ़्यूशियस फिर से लू प्रदेश में वापस लौट आया। इसी समय उसका एक शिष्य एक सैनिक अभियान में सफल हुआ और उसने प्रदेश के महामंत्री को बताया कि उसने अपने गुरु द्वारा प्रदत्त शिक्षा और ज्ञान के आधार पर ही उक्त सफलता प्राप्त की। इस शिष्य ने महामंत्री से कन्फ़्यूशियस को पुन: उसका पद प्रदान करने की प्रार्थना की और वह मान भी गया, किंतु कन्फ़्यूशियस ने दुबारा राजकीय पद ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया और अपने जीवन के अंतिम दिन अपनी साहित्यिक योजनाओं की पूर्ति तथा शिष्यों को ज्ञानदान करने में लगा देना उसने अधिक श्रेयस्कर समझा।[1]
निधन तथा समाधि
481 ई. पू. में कन्फ़्यूशियस के पुत्र का स्वर्गवास हो गया, किंतु जब 482 ई. पू. में उसके अत्यंत प्रिय शिष्य 'येनह्यइ' की मृत्यु हो गई, तब वह बहुत ही शोकाकुल हुआ। उसके एक और शिष्य 'त्जे तू' की भी मृत्यु कुछ समय पश्चात्‌ हो गई। एक दिन प्रात: काल वह अपने द्वार पर टहलते हुए कह रहा था-
ऊँचा पर्वत अब नीचे गिरेगा
मजबूत शहतीर टूटने वाली है
बुद्धिमान मनुष्य भी पौधे के समान नष्ट हो जाएँगे।
उसका शिष्य त्जे कुंग यह सुनकर तुरंत उसके पास आया। कन्फ़्यूशियस ने उससे कहा कि पिछली रात मैंने एक स्वप्न देखा है, जिससे मुझे संकेत मिला कि मेरा अंत अब निकट है। उसी दिन से कन्फ़्यूशियस ने शैया ग्रहण की और सात दिन पश्चात्‌ वह महात्मा इस लोक से विदा हो गया। उसके अनुयायियों ने बड़ी धूमधाम से उसके शरीर को समाधिस्थ किया। उनमें से बहुत से तीन वर्ष तक उसी स्थान पर शोक प्रदर्शन के लिए बैठे रहे और उसका सर्वप्रिय शिष्य 'त्जे कुंग' तो अगले तीन वर्ष भी उसी स्थान पर जमा रहा। कन्फ़्यूशियस की मृत्यु का समाचार सभी प्रदेशों में फैल गया और जिस महापुरुष की उसके जीवन काल में इतनी अवहेलना की गई थी, मृत्यु के उपरांत वह सर्वप्रशंसा और आदर का पात्र बन गया। कुइफ़ाउ नगर के बाहर कुंग समाधि स्थल से अलग कन्फ़्यूशियस की समाधि अब भी विद्यमान है। समाधि के सामने संगमरमर का एक चौखटा लगा हुआ है, जिस पर निम्नलिखित अभिलेख अंकित है-
प्राचीन महाज्ञानी सतगुरु, संपूर्ण विद्याओं में पारंगत, सर्वज्ञ नराधिप।
रचनाएँ
कन्फ़्यूशियस ने कभी भी अपने विचारों को लिखित रूप देना आवश्यक नहीं समझा। उसका मत था कि वह विचारों का वाहक हो सकता है, उनका स्रष्टा नहीं। वह पुरातत्व का उपासक था, कयोंकि उसका विचार था कि उसी के माध्यम से यथार्थ ज्ञान प्राप्त प्राप्त हो सकता है। उसका कहना था कि मनुष्य को उसके समस्त कार्यकलापों के लिए नियम अपने अंदर ही प्राप्त हो सकते हैं। न केवल व्यक्ति के लिए वरन संपूर्ण समाज के सुधार और सही विकास के नियम और स्वरूप प्राचीन महात्माओं के शब्दों एवं कार्य शैलियों में प्राप्त हो सकते हैं। कन्फ़्यूशियस ने कोई ऐसा लेख नहीं छोड़ा, जिसमें उसके द्वारा प्रतिपादित नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांतों का निरूपण हो। किंतु उसके पौत्र 'त्जे स्जे' द्वारा लिखित 'औसत का सिद्धांत' और उसके शिष्य त्साँग सिन द्वारा लिखित 'महान्‌ शिक्षा' नामक पुस्तकों में तत्संबंधी समस्त सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। 'बसंत और पतझड़' नामक एक ग्रंथ, जिसे 'लू का इतिवृत्त' भी कहते हैं, कन्फ़्यूशियस का लिखा हुआ बताया जाता है। यह समूची कृति प्राप्त है और यद्यपि बहुत छोटी है तथापि चीन के संक्षिप्त इतिहासों के लिए आदर्श मानी जाती है।
शिष्य मंडली
कन्फ़्यूशियस के शिष्यों की संख्या सब मिलाकर प्राय: 3000 तक पहुँच गई थी, किंतु उनमें से 75 के लगभग ही उच्च कोटि के प्रतिभाशाली विद्वान थे। उसके परम प्रिय शिष्य उसके पास ही रहा करते थे। वे उसके आसपास श्रद्धापूर्वक उठते-बैठते थे और उसके आचरण की सूक्ष्म विशेषताओं पर ध्यान दिया करते थे तथा उसके मुख से निकली वाणी के प्रत्येक शब्द को हृदयंगम कर लेते और उस पर मनन करते थे। वे उससे प्राचीन इतिहास, काव्य तथा देश की सामजिक प्रथाओं का अध्ययन करते थे।
सामाजिक और राजनीतिक विचार
कन्फ़्यूशियस का कहना था कि किसी देश में अच्छा शासन और शांति तभी स्थापित हो सकती है, जब शासक, मंत्री तथा जनता का प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान पर उचित कर्तव्यों का पालन करता रहे। शासक को सही अर्थों में शासक होना चाहिए, मंत्री को सही अर्थो में मंत्री होना चाहिए। कन्फ़्यूशियस से एक बार पूछा गया कि यदि उसे किसी प्रदेश के शासन सूत्र के संचालन का भार सौंपा जाए तो वह सबसे पहला कौन-सा महत्वपूर्ण कार्य करेगा। इसके लिए उसका उत्तर था– "नामों में सुधार"। इसका आशय यह था कि जो जिस नाम के पद पर प्रतिष्ठित हो उसे उस पद से संलग्न सभी कर्तव्यों का विधिवत पालन करना चाहिए, जिससे उसका वह नाम सार्थक हो। उसे उदाहरण और आदर्श की शक्ति में पूर्ण विश्वास था। उसका विश्वास था कि आदर्श व्यक्ति अपने सदाचरण से जो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, आम जनता उनके सामने निश्चय ही झुक जाती है। यदि किसी देश के शासक को इसका भली-भाँति ज्ञान करा दिया जाए कि उसे शासन कार्य चलाने में क्या करना चाहिए और किस प्रकार करना चाहिए तो निश्चय ही वह अपना उदाहरण प्रस्तुत करके आम जनता के आचरण में सुधार कर सकता है और अपने राज्य को सुखी, समृद्ध एवं संपन्न बना सकता है। इसी विश्वास के बल पर कन्फ़्यूशियस ने घोषणा की थी कि यदि कोई शासक 12 महीने के लिए उसे अपना मुख्य परामर्शदाता बना ले तो वह बहुत कुछ करके दिखा सकता है और यदि उसे तीन वर्ष का समय दिया जाए तो वह अपने आदर्शों और आशाओं को मूर्त रूप प्रदान कर सकता है।
विचार
कन्फ़्यूशियस ने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि उसे कोई दैवी शक्ति या ईश्वरीय संदेश प्राप्त होते थे। वह केवल इस बात का चिंतन करता था कि व्यक्ति क्या है और समाज में उसके कर्तव्य क्या हैं। उसने शक्ति प्रदर्शन, असाधारण एवं अमानुषिक शक्तियों, विद्रोह प्रवृत्ति तथा देवी-देवताओं का ज़िक्र कभी नहीं किया। उसका कथन था कि बुद्धिमत्ता की बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण उत्तरदायित्व और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करे और देवी-देवताओं का आदर करते हुए भी उनसे अलग रहे। उसका मत था कि जो मनुष्य मानव की सेवा नहीं कर सकता वह देवी-देवताओं की सेवा क्या करेगा। उसे अपने और दूसरों के सभी कर्तव्यों का पूर्ण ध्यान था, इसीलिए उसने कहा था कि बुरा आदमी कभी भी शासन करने के योग्य नहीं हो सकता, भले ही वह कितना भी शक्ति संपन्न हो। नियमों का उल्लंघन करने वालों को तो शासक दंड देता ही है, परंतु उसे कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सदाचरण के आदर्श प्रस्तुत करने की शक्ति से बढ़कर अन्य कोई शक्ति नहीं है।
(जानकारी के लिए साभार)