शिंतो धर्म
शिन्तो धर्म (शिन्-तो, अर्थात कामियों का
मार्ग) जापान देश का एक प्रमुख और मूल धर्म है। इसमें कई देवी-देवता हैं, जिनको कामी कहा जाता है। हर कामी किसी न किसी प्राकृतिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता
है। बौद्ध धर्म के साथ इसका काफ़ी मेल मिलाप हुआ है और इसमें बौद्ध धर्म के कई सिद्धान्त
जुड़ गये हैं। एक ज़माने में शिन्तो धर्म जापान का राजधर्म हुआ करता था। इस धर्म
में जापान के राजा को प्रधान गुरु मानते थे किन्तु दूसरे विश्व-युद्ध के बाद से
ऐसा करना बन्द कर दिया गया हे समुराई इसी धर्म को मानते हैं।
शिंतो,
जापान का देशज व राष्टीय धर्म है, लेकिन इसका
नाम चीनी भाषा का है। चीनी में “शेन-ताओ’ देवताओं के मार्ग को कहते हैं। इसी “शेन-ताओ’
शब्द का संक्षिप्त व विकृत रूप है शिंतो। इस धर्म को जापानी में “कामी नोमीचीं’ भी कहते हैं। कामी का अर्थ है-शानदार,
चमत्कारी, दिव्य आदि। कोई भी ची़ज या व्यक्ति
को देखकर अगर दिल में डर, शक्ति, रहस्य
या आश्र्चर्य के भाव जाग उठें, तो वह कामी कहलायेगा। इस
लिहा़ज से सूरज, चांद, आग, हवा, समुद्र, नदी, बड़ी चट्टान, असाधारण पेड़, जानवर
वगैरह कामी या देवता माने जाते हैं।
शिंतो धर्म के अनुसार आसमान में अनेक
कामी हैं। उनमें से इ़जानागी (पुरुष-कामी) और इ़जानामी (स्त्री-कामी) ने जापान के
आठ द्वीपों को उत्पन्न किया। इन द्वीपों से पूरी पृथ्वी पर शासन करने के लिए इन
दोनों देवताओं की संतान जापान में रहने लगी। इन संतानों में सर्वश्रेष्ठ थीं
सूर्य-देवी, जिसे “अमाटे-रासु-ओमी-कामी’ कहते हैं। इस देवी के पोते “जिम्मूटेन्नो’ को जापान का ही नहीं, सारे जहान का पहला सम्राट माना जाता है। यह ईसा से 660 वर्ष पहले की बात है। वहीं से जापानी संवत् शुरू होता है। तभी से
जिम्मूटेन्नो और उसके वंशज पृथ्वी पर देवताओं के प्रतिनिधि माने गये। उन्हें न
सिर्फ पृथ्वी पर शासन का अधिकार दिया गया, बल्कि प्रजा को
आदेश दिया गया कि उनकी पूजा की जाए। यही वजह है कि जापान में सूर्य देवी की तरह
मिकाडो पूजनीय व सम्माननीय हैं। मिकाडो जापान के राजा को कहते हैं। राजा दिव्य है
और उसके प्रति श्रद्घाभक्ति प्रत्येक जापानी का पवित्र कर्त्तव्य है। इस लिहा़ज से
मिकाडो की पूजा करना और उस जैसा बनना शिंतो धर्म की बुनियाद है।
शुरुआत में, शिंतो धर्म में केवल प्राकृतिक देवी-देवताओं
की पूजा ही की जाती थी, लेकिन वक्त के साथ कुछ बदलावों का
आना स्वाभाविक था। ईसा की पांचवीं सदी में शिंतो धर्म पर चीन के कनफ़्यूशस धर्म का
गहरा प्रभाव पड़ा। इसलिए शिंतो धर्म में भी सामाजिक सदाचार, माता-पिता
के प्रति अटूट श्रद्घा और पितरों की पूजा विशेष रूप से होने लगी। इसके बाद आठवीं
शताब्दी में इस पर बौद्घ धर्म का जबरदस्त असर पड़ा और यह रयोबू शिंतो धर्म बन गया।
रयोबू का अर्थ होता है दोहरा या मिश्रित यानी शिंतो व बौद्घ धर्म आपस में मिल गये
तथा दोनों के साझे मंदिरों में दोनों के पुरोहितों द्वारा मिश्रित पूजा-पाठ होने
लगी। इस मिलन से शिंतो धर्म में भी नैतिकता और दार्शनिकता को बल दिया जाने लगा।
लेकिन 17वीं सदी में शुद्घ शिंतो धर्म फिर से जी उठा और राष्टीय-भक्ति व
सम्राट-भक्ति को पुनः विशेष सम्मान दिया जाने लगा। इसका नाम भी बदल कर “राष्टीय शिंतो धर्म’ कर दिया गया। राजा का अनुकरण
करना शिंतोधर्मी के लिए फिर ला़िजमी हो गया। अब हर शिंतोधर्मी का यह कर्त्तव्य हो
गया कि वह राजा की तरह पवित्र, निष्कपट, सत्यप्रिय और साहसी बने।
शिंतो धर्म में दो ग्रंथ महत्वपूर्ण
हैं-कोजीकी और निहोंगी। कोजीकी का संग्रह 712
ईस्वी में किया गया और निहोंगी का 720 ईस्वी
में। इन ग्रंथों में सृष्टि-रचना की कथाएं मिकाडो की दैवी उत्पत्ति और जिम्मू
टेन्नो आदि सम्राटों की वंशावलियों का जिक्र किया गया है। इनमें यह भी उल्लेख है
कि जिम्मू टेन्नो ने अपने राज्याभिषेक के वक्त सबके सामने अपने राज्य को पूरी
पृथ्वी पर फैलाने की कसम खाई थी। इसी से यह धारणा बनी कि पूरी दुनिया पर चावर्ती
राज्य कायम करना मिकाडो का दैवी मकसद है।
शिंतो धर्म का विशेष आकर्षण यह है कि
इसमें न कोई निश्र्चित सिद्घांत है, न गंभीर दर्शन और न जटिल कर्मकांड। इसमें आठ लाख से अधिक देवता हैं,
जिनकी पूजा की जाती है। सब दृश्य और अदृश्य पदार्थ “अमेनूमीन कानुसी’ देवता में समाये हुए हैं, जो कि सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और गुणातीत हैं।
अमाटेरासु-ओमी-कामी (सूर्य देवी) का स्थान सर्वोच्च है। उसके बाद सुरतानो आनोमिकटो
(वर्षा देवता) और रसुकियोमीनोमिकटो (चन्द्र देवता) का स्थान है। आकाश पर सूर्य
देवी का, सागर पर वर्षा देवता का और रात पर चन्द्र देवता का
राज है।
शिंतो धर्म में प्राकृतिक
देवी-देवताओं की पूजा की प्रधानता है। इसलिए जापान को प्राकृतिक देवताओं का देश
माना जाता है और समुद्र, नदियों, पृथ्वी व पर्वतों को देवता मानकर पूजा जाता है। फूजी पर्वत न सिर्फ देवता
है, बल्कि जापान का रक्षक भी माना जाता है। इन देवों को
नमस्कार किया जाता है, खाने-पीने की ची़जें अर्पित की जाती
हैं और उनसे दुआएं की जाती हैं। मिकाडो (राजा) और देश भी देव हैं, जिनके प्रति अनन्य भक्ति अनिवार्य है। इसी भक्ति के कारण सेनापति हार पर
हाराकिरी (आत्महत्या) को वरीयता देते हैं और मिकाडो की मृत्यु पर खुद भी अपनी जान
दे देते हैं ताकि अगले जन्म में राजा के ही सेवक बनें। गौरतलब है कि जापानी राजवंश
सूर्यदेवी से उत्पन्न माना जाता है। राजा की सत्ता के चिह्न खड्ग, रत्न, दर्पण देवताओं के सम्मुख रखे जाते हैं। जापान
में इस धर्म के 114000 मंदिर हैं।
शिंतो धर्म में पितरों की पूजा, माता-पिता की सेवा, बच्चों
से प्रेम, पवित्रता और आंतरिक प्रेरणा का विशेष महत्व है।
हालांकि मानव जीवन का परिष्कार ही स्वर्गपथ है, लेकिन
प्रभु-प्राप्ति का पहला और निश्र्चित रास्ता कपट-त्याग है। इनके अलावा जो शिंतो
धर्म की प्रमुख शिक्षाएं हैं, वह इस प्रकार हैं-
·
देवता
निष्कपटता और सद्गुणों से प्रेम करते हैं, पूजा के पदार्थों से नहीं।
·
मंदिर
में तीन दिन के उपवास की तुलना में एक भला काम करना बेहतर है।
·
जो
अंदर है अगर वही स्वच्छ नहीं, तो जो बाहर है उसके लिए पूजा-अर्चना करना बेकार है।
·
झूठे
व कुटिल व्यक्ति के लिए कहीं स्थान नहीं है, न जमीन पर न आसमान में।
·
सब
पर दया करो चाहे वह भिखारी हो, कोढ़ी हो या फिर चींटी अथवा झींगुर।
·
दयालु
व उदार व्यक्ति की आयु बढ़ा दी जाती है।
·
न
बुरा देखो, न बुरा सुनो और न
बुरा बोलो।
·
जिंदगी
से अधिक कीमती है सदाचार, उस पर अटल रहो।
·
स्वर्ग
और नरक इंसान के मन में हैं। मन अच्छा तो स्वर्ग,
मन बुरा तो नरक।
·
जब
तक इंसान सच का दामन थामे रहता है, ईश्र्वर उसकी रक्षा करता रहता है।
·
इस
सत्य से न मुंह मोड़ो न भूलो कि पूरा संसार एक विशाल परिवार है।
·
धार्मिक
शिक्षाओं में दोष मत दिखाओ।
इन शिक्षाओं से स्पष्ट हो जाता है कि
शिंतो धर्म का मकसद मानव का चरित्र विकास है ताकि एक सभ्य व पारस्परिक प्रेम वाला
समाज विकसित हो सके, जिसमें मनुष्य से
लेकर चींटी तक के लिए विकास व फलने-फूलने की गुंजाइश हो। इस धर्म में धार्मिक
रीति-रिवाजों की तुलना में भले ही कामों व सद्गुणों को वरीयता दी गयी है, इसलिए इसकी आज भी प्रासंगिकता कायम है।
राज धर्म बनने तक का सफर
जापान के शिंतो धर्म की
ज्यादातर बातें बौद्ध धर्म से ली गई थी फिर भी इस धर्म ने अपनी एक अलग पहचान कायम
की थी। इस धर्म की मान्यता थी कि जापान का राज परिवार सूर्य देवी अमातिरासु
ओमिकामी से उत्पन्न हुआ है। उक्त देवी शक्ति का वास नदियों, पहाड़ों, चट्टानों, वृक्षों
कुछ पशुओं तथा विशेषत: सूर्य और चंद्रमा आदि किसी में भी हो सकता है।
इसीलिए कालांतर में
प्राकृतिक शक्तियों, महान व्यक्तियों, पूर्वजों तथा
सम्राटों की भी उपासना की जाती थी। किंतु बौद्ध धर्म के प्रभाव से सारी रूढि़याँ
छूट गई लेकिन 1868-1912 में शिंतो धर्म ने बौद्ध विचारों से
स्वतंत्र होकर अपने धार्मिक मूल्यों की पुन: व्याख्याग और स्थापना कर इसे जापान का
'राज धर्म' बना दिया गया।
शिंतों धर्म में नीति और
नियमों का कोई उल्लेख नहीं मिलता और ना ही इसके विधि-विधान या क्रियाकांड के कोई
ग्रंथ है। इसकी आवश्यकता इसलिए महसूस नहीं हुई क्योंकि उनके विचार से प्रत्येक
जापानी नीति और अनुशासन के मार्ग पर चलता ही है। जापानी मानते थे कि उनका प्रत्येक
कार्य या नियम ईश्वपर प्रदत्य है।
शिंतो तीर्थ स्थल व मंदिर
भव्य होते हैं, क्योंकि मान्यता है कि इन भव्य मंदिरों में देवता
वास करते है इसीलिए लोग प्रवेश द्वार के माध्यम से अपनी प्रार्थनाएँ करते थे।
शिंतो तीर्थ स्थलों में सबसे महत्वपूर्ण 'आइस' में स्थित 'सूर्य देवी' का
तीर्थस्थल था, जहाँ जून और दिसम्बर में एक बार राजकीय समारोह
होता है।
शिंतो धर्मावलम्बियों की
पूजा-पद्धति में प्रार्थनाएँ करना, तालियाँ बजाना
शुद्धिकरण और देवताओं की श्रद्धा में कुछ अर्पण करना सम्मिलित है। पुरोहित
प्रार्थनाएँ पढ़ते हैं, कामनाएँ करते हैं तथा पूर्वजों की
स्मृति में भेटें चढ़ाई जाती है। संगीत, नृत्य के आयोजन के
साथ ही धार्मिक उत्सवों वाले दिनों में जुलूस निकाले जाते हैं।