शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों का एक वैचारिक मंच

अभिव्यक्ति के इस स्वछंद वैचारिक मंच पर सभी लेखनी महारत महानुभावों एवं स्वतंत्र ज्ञानग्राही सज्जनों का स्वागत है।

गुरुवार, 9 जनवरी 2020

शहरी नक्सलवाद बनाम बौद्धिकता


शहरी नक्सलवाद बनाम बौद्धिकता
डॉ रामशंकर 'विद्यार्थी'
देश की सांस्कृतिक परंपराओं, रीति-रिवाजों तथा पर्व-त्योहारों में भ्रम और संदेह की स्थिति उत्पन्न कर नई यानि युवा पीढ़ी को भारत की से अलग करने की कोशिश करने वाली वैचारिकी को शहरी नक्सलवाद से जोड़ा जा सकता है। शहरी नक्सल वस्तुतः चरम वामपंथी, माओवादी विचारधारा के वे लोग हैं जिनका एक ही मकसद है कि वे हिंदुस्तानी अस्मिता को बर्बाद कर सत्तायुक्त बौद्धिक राज करें। वर्ष 2004 में 'शहरी परिप्रेक्ष्य: हमारे कार्य में शहरी क्षेत्र' नामक एक माओवादी दस्तावेज़ शहरी नक्सलवादी रणनीति पर आधारित था। इस दस्तावेज़ में मुख्यतः शहरी क्षेत्रों का नेतृत्व और विशेषज्ञता हासिल करना तथा औद्योगिक परिक्षेत्रों में कार्य कर रहे मजदूरों तथा शहरी गरीबों को संगठित कर अग्रणी संगठनों की स्थापना करना, विद्यार्थियों, कर्मचारियों, बुद्धिजीवियों, महिलाओं, दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को संगठित कर 'कुशल संयुक्त मोर्चों' का निर्माण करना था जिससे इनकी वैचारिक गतिविधियां तेज हो सकें। इसमें काफी संख्या में शिक्षक, वकील, लेखक, मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता शामिल हुये भी हैं।
शहरी नक्सल के अंतर्गत शहर में रहने वाले पढ़े-लिखे लोग नक्सलियों को कानूनी और बौद्धिक समर्थन कर संवर्धित करते हैं। शहरों में नक्सलवाद के बढ़ने का सबसे पहला मामला केरल में सामने आया था जब एक नक्सली समूह को पुलिस ने पकड़ा था। इसके बाद उत्तर प्रदेश के नोएडा तथा मुंबई से भी ऐसे व्यक्ति पकड़े गए। इससे यह बात सामने आई कि अब नक्सली अपना जाल शहरों में फैला रहे हैं। नक्सल मामलों के जानकारों का मानना है कि नक्सलवाद को प्रोत्साहित करने वाले लोग शहरों में छिपे बैठे हैं और अपनी गतिविधियों को शहरों से ही दिन-प्रतिदिन अंजाम दे रहे हैं। शहरी में रहने वाले नक्सलियों का मुख्य एजेंडा शहरों में नक्सलवाद को बढ़ाना तथा युवाओं को नक्सली विचारधारा से जोड़ना है तथा लोगों के मध्य विकास कार्यों को झुठलाना है। इसमें कई रूप से विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर्स भी संगठित रूप से कार्य कर रहे हैं जिनका उद्देश्य युवाओं को भ्रमित आंकड़ों के आधार पर कभी जाति, वर्ग तथा क्षेत्र के आधार पर संगठित कर अपने स्वहित में लाना है। ये देश की शिक्षा व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ (उदाहरण के लिये एनसीआरटीई पाठ्य पुस्तकों में मार्क्सवादी प्रचार आदि) कर देश की कानूनी और न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप भी करते हैं तथा देश में हिंदू संस्कृति, हिंदू त्योहारों, रीति-रिवाजों आदि पर हमला करने का के भी प्रयास करते हैं।

पत्रकारिता में बढ़ती धार्मिक चेतना...


पत्रकारिता में बढ़ती धार्मिक चेतना...
डॉ. रामशंकर विद्यार्थी
प्रधान संपादक- एशियन थिंकर रिसर्च जर्नल

पत्रकारिता का इतिहास हमारे धार्मिक ग्रंथों में पाया जाता है। पुराणों के अनुसार पत्रकारिता के जनक देवर्षि नारद को माना गया है। नारद (यानि ज्ञान का भंडार ) निष्पक्षता, निर्भीकता और निरपेक्षता से सूचनाओं का आदान-प्रदान किया करते थे। देश की एकता को बनाए रखने में पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका है। पत्रकारिता और सांस्कृतिक चेतना में एक अन्योन्याश्रित संबंध है। पत्रकारिता का उद्देश्य ही समाज और राष्ट्र के विभिन्न सांस्कृतिक घटकों के बीच संवाद स्थापित करना होता है। स्वाधीनता संग्राम के दौर से  ही भारतीय पत्रकारिता का स्वरूप सांस्कृतिक और राष्ट्र चेतना का रहा है। स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे इसमें विकृति आनी शुरू हो गई। पत्रकारिता का व्यवसायीकरण बढ़ने लगा। देश के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में भी काफी बदलाव आने लगा । स्वाभाविक ही था कि पत्रकारिता उससे अछूती नहीं रह सकती थी। धीरे-धीरे समाचारों के स्थान पर विचारों को प्रमुखता दी जाने लगी, फिर समाचारों में सनसनी हावी होने लगी और आज समाचार के नाम पर केवल और केवल सनसनी ही बच गई और सांस्कृतिक पक्ष गायब हो गए।
वर्तमान युग में समाचार पत्र सांस्कृतिक चेतना लाने में अहम भूमिका निभा रहे है। ऐेसे में जब पाश्चात्य संस्कृति दूसरी संस्कृतियों को निगल रही है। जैसे कि हम भारतीय पांचांग के अनुसार नए साल का उत्सव न मनाकर एक जनवरी को न्यू ईयर को सेलिब्रेट कर रहे हैं। वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे,  बर्थ डे को केक काटकर मनाने की प्रथा भारतीय परिवेश में पाश्चात्य से प्रवेश कर चुकी है। ऐसे में बहुत सारे समाचार पत्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों, त्योहारों, पर्व, तिथियों संबंधित तथ्यों और दस्तावेजों को प्रकाशित कर समाज में संस्कृति को जीवंत करने की कोशिश में भागीदारी निभा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर अमर उजाला, जागरण जैसे समाचार पत्र अपने पहले पेज पर तिथि भारतीय पांचाग के अनुसार प्रकाशित करते हैं। हाल में चल रही नवरात्रि व दशहरा के कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से प्रकाशित करना भी सांस्कृतिक चेतना को बढ़ावा देना है। हम शहर की बात करें तो समाज में हो रहे नवरात्र के कार्यक्रम और डांडियां नृत्यों की कवरेज से अन्य लोगों को भी समाचार पत्रों से पता चलता है। नवरात्र के सभी दिनों में समाचार पहले पेज पर देवियों क चित्रों के साथ संक्षिप्त विवरण देते हैं। यह भी सांस्कृतिक चेतना का प्रसार है।
इसके अलावा होली, दीवाली और राष्ट्रीय पर्व के कार्यक्रमों का प्रकाशन भी समाचार पत्रों की इसी भूमिका में आता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। अमर उजाला अखबार के लखनऊ संस्करण (07 अक्टूबर 2019 के अंक) में पेज आठ पर दहशरा और नवरात्रि के कार्यक्रमों पर करीब एक पेज प्रकाशित किया गया है। यह समाज में सांस्कृतिक चेतना का प्रवाह करना ही है।
इसी प्रकार दैनिक जागरण समाचार पत्र ने अपने सबरंग स्पेशल पेज के अंतर्गत मेरठ संस्करण (23 अगस्त 2019 के अंक) में कृष्ण जन्माष्टमी से संबंधित जानकारी दी है यह भी सांस्कृतिक चेतना के प्रसार का उदाहरण ही है।
आज भाषा, संस्कृति और तथ्यों की बजाय बाजार और आर्थिक समीकरणों पर जोर दिया जाने लगा लगा। ऐसे में यदि पत्रकारिता में सांस्कृतिक चेतना का ह्रास होने लगा तो यह कोई हैरानी का विषय नहीं है। देश के प्रमुख मीडिया संस्थान सांस्कृतिक समाचारों और विचारों को बाजारवादी चश्में से देखने लगे। कई मीडिया संस्थान तो भारतीय संस्कृति और परंपरा के विरोध में ही निरंतर उवाच करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि पाठक संस्कृति और परंपरा को नहीं देखना और समझना चाहता है बल्कि ये उसे पश्चिमी अवरस देकर ही परोसना चाहते हैं जिससे इनकी प्रसिद्धि हो सके। जो देखने में अच्छा लगे और ग्लैमरस हो और यह सब कुछ पाठकों को पसंद हो यही छापने की पद्धति पर ज़ोर दिया जाने लगा। धीरे-धीरे यही पाठको की पसंद बनती चली गयी।ऐसा भी एक समय था जब पाठकों  के विरोध पर इंडिया टुडे को अश्लील चित्रों के प्रकाशन रोकना करना पड़ा था। आज पाठकों की वैसी चिंता शायद ही कोई मीडिया संस्थान करता हो।
बहरहाल एक ओर हम जहां यह पाते हैं कि आज के मीडिया जगत में काफी गिरावट आई है और सांस्कृतिक चेतना से संबन्धित समाचारों और विचारों के प्रकाशन की गति धीमी हुई है वहीं जनमाध्यमों द्वारा सांस्कृतिक पक्ष जैसे यात्राएं, मेले, स्नान, कुंभ उत्सव, पूजा पद्धति आदि का वैश्विक विस्तार भी हुआ है। समाचार-पत्रों का तौर-तरीका, कार्यशैली और चलन सब कुछ परंपरागत मीडिया से बिल्कुल अलग और अनोखा दिखाई देने लगा है।


बुधवार, 8 जनवरी 2020

एजेंडा तय करने में सोशल मीडिया की उपादेयता


एजेंडा तय करने में सोशल मीडिया की उपादेयता

डॉ. रामशंकर विद्यार्थी
संपादक
दी एशियन थिंकर,
पीयर रिव्यूड बाइलिंगुअल रिसर्च जर्नल
सोशल मीडिया से आशय एक ऐसी मीडिया (सोशल नेटवर्किंग साईट, ब्लॉग, पोर्टल, मेल और एस.एम.एस. आदि) से है जिसे मुख्य धारा की मीडिया से हटकर देखा जाता है, सोशल मीडिया वैकल्पिक जानकारी प्रदान करती है। मुख्य धारा की मीडिया वाणिज्यिक, सार्वजानिक रूप से समर्थित व सरकार के स्वामित्व वाली होती है। जबकि सोशल मीडिया के अंतर्गत उन ख़बरों को भी प्रसारित किया जाता है जिसे मुख्य धारा की मीडिया में स्थान नहीं दिया जाता। सोशल मीडिया में प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। यह उस दिन और भी प्रभावशाली हो जायेगा जब यह देश के प्रत्येक नागरिक तक पहुँच जायेगा। परन्तु इस सोशल मीडिया के कंटेट समाज में जो प्रभाव छोड़ते है वह बहुत महत्वपूर्ण होता है। वर्तमान में सोशल मीडिया ने देश व दुनियाभर में चल रहे आन्दोलनों को नयी दिशा प्रदान की है पर वहीँ सोशल मीडिया के द्वारा आज नित नये मुद्दों (एजेंडा) का निर्माण भी किया जाता है। तो इसका आकलन करना उतना ही कठिन हो जाता है जितनी तीव्रता से यह किसी विषय को प्रचारित और प्रसारित करता है। इसी एजेंडा निर्माण की चर्चा वाल्टर लिपमैन ने 1922 में अपनी चर्चित पुस्तक‘पब्लिक ओपिनियन’ में एजेंडा सेटींग का बुनियादी चिंतन इस रूप में व्यक्त किया था। एजेंडा सेटिंग की अवधारणा के अंतर्गत मीडिया द्वारा मुद्दों का निर्माण किया जाता है मीडिया लोगों को सूचित करता है कि कौन सा मुद्दा महत्वपूर्ण व कौन सा गौण है। एजेंडा सेटिंग मूल रूप से मज़बूत मीडिया के प्रभाव का ही सिद्धांत है। प्रस्तुत शोध सोशल मीडिया फेसबुक और ट्विटर के विशेष सन्दर्भ में है। इस शोध में तथ्य संकलन के लिए प्राथमिक व द्वितीयक स्रोत का प्रयोग किया गया है। प्रथमिक स्रोत मे तथ्यों को संकलित करने के लिए प्रश्नावली व अनुसूची का प्रयोग किया गया है।
प्रसिद्व संचार विद् मार्शल मैक्लुहान कहते है कि संचार क्रान्ति के दौर में जब सम्पूर्ण विश्व एक गांव के रूप में तब्दील हो गया है और संचार के क्षेत्र में हर दिन कोई न कोई उपलब्धि हासिल की जा रही है ऐसे में मीडिया ने भी अपनी रंगत बदली है।’’आज प्रिंट मीडिया तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया को ओल्ड मीडिया तथा वेब आधारित मीडिया जिसे हम वेब मीडिया के नाम से जानने लगे हैं। आज सम्प्रेषण के नए विचार मंच के रूप में उभरा है।
          सोशल मीडिया वास्तव में कई तरह की वेबसाइट का समूह है जहाँ हम अपने विचारों को प्रकट करते हैं सोशल मीडिया न्यू मीडिया का ही एक अंग है जहाँ अलग-अलग तरह की वेब साइट होती है। संचार का वह संवादात्मक (Interactive) स्वरूप है जिसमें इंटरनेट का उपयोग करते हुए हम पॉडकास्ट , आर एस एस फीड , सोशल नेटवर्क (फेसबुक, माई स्पेस और ट्विटर आदि), ब्लाग्स, विक्किस, टैक्सट मैसेजिंग इत्यादि का उपयोग करते हुए पारस्परिक संवाद स्थापित करते हैं। यहाँ एक व्यक्ति द्वारा तैयार किया एक तरह का समूह (नेटवर्क) है यह संवाद माध्यम बहु-संचार संवाद का रूप धारण कर लेता है जिसमें पाठक/दर्शक/श्रोता तुरंत अपनी टिप्पणी न केवल लेखक/प्रकाशक से साझा कर सकते हैं, बल्कि अन्य लोग भी प्रकाशित/प्रसारित/संचारित विषय-वस्तु पर अपनी टिप्पणी दे सकते हैं। यह टिप्पणियां एक से अधिक भी हो सकती है अर्थात बहुधा सशक्त टिप्पणियां परिचर्चा में परिवर्तित हो जाती हैं। उदाहरणत: फेसबूक पर यदि आप कोई संदेश प्रकाशित करते हैं और बहुत से लोग आपकी विषय-वस्तु पर टिप्पणी देते हैं तो कई बार पाठक-वर्ग परस्पर परिचर्चा आरम्भ कर देते हैं और लेखक एक से अधिक टिप्पणियों का उत्तर देता है।
सोशल मीडिया में द्विपक्षी संचार (Two way communication) होता है। इसी सोशल मीडिया का एक अंग है सोशल नेटवर्किंग साइट परंतु लोगों में यह भ्रांतियाँ हैं कि सोशल मीडिया ही सोशल नेटवर्किंग साइट होती है अर्थात सोशल मीडिया की सूची मे नेटवर्किंग साइट ही मात्र है, परंतु इसकी सूची मे अन्य वेब सेवाएँ भी मौजूद होती है। जैसे ब्लॉग, वेबलॉग, यूट्यूब आदि। जो अपको सारी दुनिया से जोड़ देती है और एक नई आभासी दुनिया की ओर ले जाती है। सोशल मीडिया जनता के बीच जितनी तीव्रता से प्रचलित हो रहा है संचार के अन्य माध्यम भी नहीं हुए। नेता, अभिनेता और राजनीतिक पार्टियां इसका इस्तेमाल बखूबी जानते हैं। राजनीतिक पार्टियां तो अपने नेताओं की लोकप्रियता का आंकलन भी सोशल मीडिया में उपस्थित फ़ालोवर की संख्या के अनुसार ही करते हैं। और इसका प्रभाव सोशल मीडिया से मुख्यधारा की मीडिया पर होता है। सोशल मीडिया पर होने वाली चर्चा मुख्यधारा की मीडिया का शीर्षक बनती है और यह समाज में मुख्य मुद्दों को गौण कर नित नए मुद्दों को प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त होती है।
एजेंडा सेटिंग की अवधारणा
एजेंडा सेटिंग सिद्धांत का विचार सर्वप्रथम अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन ने 1922 में अपनी चर्चित पुस्तक पब्लिक ओपिनियनमें दिया, जो इस प्रकार है- लोग वास्तविक जगत की घटनाओं पर नहीं, बल्कि उस मिथ्या छवि के आधार पर प्रतिक्रिया जाहिर करते है, जो हमारे मस्तिष्क में बनाई गई है। मीडिया हमारे मस्तिष्क में ऐसी छवि बनाने तथा एक मिथ्या- परिवेश निर्मित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।सन् 1944 में लेजर्स फेल्ड ने  भी पॉवर टू स्ट्रक्चर इश्यूजके आधार पर एजेंडा सेटिंग की अवधारणा प्रस्तुत की है।
मैक्सवेल ई. मैकाम्ब एवं डोनाल्ड एल.शा ने 1972 में किया। उन्होंने 1968 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति के चुनाव के सम्बन्ध में एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने यह सिद्ध किया कि समाज में सभी मुद्दों का अलग-अलग महत्व होता है, किन्तु मुद्दों के महत्व का निर्धारण बहुमत द्वारा किया जाता है और मीडिया इस प्रक्रिया का एक सूत्र होता है। इसे ही एजेंडा सेटिंग कहा जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार जन-माध्यम समाज के मुद्दों को प्रभावित करते है। यह एजेंडा सेटिंग के सिद्धांत को समझने का पहला सुव्यवस्थित अध्ययन था जो नॉर्थ कैरोलिना के चैपलहिल में मतदाताओं के बीच किया गया था। इसीलिए इसे चैपलहिल स्टडी के नाम से भी जाना जाता है। इस अध्ययन में सौ मतदाताओं से अमेरिका के प्रमुख मुद्दों एवं समस्याओं के बारे में जानकारी ली गई थी तथा इसके साथ ही पांच समाचार पत्रों, दो पत्रिकाओं और दो टेलीविजन नेटवर्क के समाचारों का अंतर्वस्तु विश्लेषण किया गया था। इसमें मीडिया एजेंडा तथा पब्लिक एजेंडा में जबरदस्त सह-संबंध पाया गया।  इनके लिखे दि एजेंडा सेटिंग फंक्शन ऑफ मास मीडिया’ (1972) और स्ट्रक्चरिंग दी अनसीन एनवायरनमेंट’ (1976) शीर्षक निबन्धों में इस सिद्धांत का विस्तृत विवेचना किया है ।
सोशल मीडिया और एजेंडा सेटिंग
इस अध्याय में मैंने अपने शोध विषय से संबन्धित तथ्यों को निकाला है। अपने शोध क्षेत्र की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए मैंने सिर्फ दो सोशल नेटवर्किंग साइट का अध्ययन किया है जो ज़्यादातर इस्तेमाल की जा रही है। जिसमें फेसबुक और ट्विटर की सामग्रियों का अध्ययन किया है। इस शोध के अंतर्गत समाज में मुद्दों का निर्माण करने में सोशल मीडिया की भूमिका का अध्ययन किया गया है। कभी-कभी सोशल मीडिया द्वारा उठाए गए मुद्दों को मुख्य धारा की मीडिया में प्रमुखता से उठाया जाता है। देखते ही देखते यह एक राष्ट्रीय मुद्दे का रूप ले लेता है, जो समाज  को एक नई दिशा देने में सहायक सिद्ध होता है। इस शोध में यह भी जानने का प्रयास किया गया है कि किस तरह से सोशल मीडिया द्वारा समाज में छद्म वातावरण तैयार किया जाता है और आम लोगों को भ्रमित भी किया जाता है। यहाँ हर व्यक्ति पत्रकार की भूमिका निभा रहा है जिसके पास स्वतंत्र कलम है और सबके अपने विचार हैं।भारत में हो रहे महिलाओं के ऊपर अत्याचार, बलात्कार, सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार, घूसखोरी, लाल-फीताशाही, सरकारी योजनायें और जमीनी हकीकत को आम जनता के बीच लाने के लिएलोग सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं।
शोध में प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार वर्ष 2012 में भारत में राजनीतिक एवं आर्थिक चुनौतियों के बीच लोगों ने सोशल मीडिया की बढ़त और परिपक्वता को नज़दीक से महसूस किया। जब मुख्य धारा की व्यावसायिक मीडिया तथा अन्य आयामों से लोग निराश हो जाते हैं तो सोशल मीडिया का सहारा लेते हैं। इस वर्चुअल मीडिया के विश्वव्यापी प्रभावों के कारण हमें अपने प्रयासों में सफलता भी मिलती है।सोशल मीडिया बीते कुछ वर्षों में सामाजिक, राजनीतिक एवं अन्य प्रमुख विषयों पर मुद्दे का निर्माण करने के माध्यम के रूप में उभरा है। तहरीर चैक, न्यूयार्क के वाल स्ट्रीट घेरो आंदोलन से लेकर दिल्ली के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों एवं दामिनी गैंगरेप के खिलाफ आंदोलनों को स्फूर्त करने में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह सोशल मीडिया युवाओं के लिए क्रांति का हथियार बना है।
एन. के. सिंह वरिष्‍ठ पत्रकार ईटीवी, साधना न्‍यूज समेत कई संस्‍थानों में वरिष्‍ठ पद पर रह चुके हैं। हिंदुस्तान में “सोशल मीडिया के जरिए खड़े आंदोलन क्‍या वास्‍तव में जन आंदोलन है”शीर्षक से प्रकाशित लेख में लिखते हैं कि “टेलीकास्ट लाइसेंस या अखबार का रजिस्ट्रेशन व्यक्ति के नाम होता है औरवह देश के तमाम कानूनों से बंधा होता है। जो कुछ भी कहा, लिखा या दिखाया जा रहा है, उसकी पूरी-पूरी जिम्मेदारी संपादक पर होती है। सोशल मीडिया पर इस तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं होती। वह न तो मूर्त होता है, और न ही उस पर अंकुश लगाए जा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बलात्कार की घटना को पूरी तरह सोशल मीडिया ने ही उठाया। पहले इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया ने अपनी सार्थकता और प्रतिबद्धता दिखाते हुए इसे दो दिनों तक जबर्दस्त रूप से छापा और दिखाया। तब जाकर सोशल मीडिया के जरिये इस पर प्रतिक्रियाएं आने लगीं। लेकिन जिस तरह सोशल मीडिया के जरिये एक इतना बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ उससे अब और ज्यादा सतर्क होने की जरूरत महसूस होने लगी है।” अपने दूसरे लेख में एन. के. सिंह लिखते हैं “यह भी सही है कि मिस्र हीं नहीं समूचे अरब में फैले जनांदोलन के पीछे सोशलमीडिया की अहम् भूमिका रही। यही नहीं भारत में पहली बार बलात्कार को लेकरउपजे युवा आन्दोलन में भी इस मीडिया की भूमिका जबरदस्त थी। लेकिन आज ज़रुरतइस बात को तौलने की है कि क्या बगैर स्थापित मीडिया के हम तर्क सम्मत औरसभी तथ्यों और उनके परिणामों को समझे बिना जनमत बनाना खतरे से खाली नहींहोगा? और क्या महज एक ऐसे मीडिया के जरिये जिसका मूल हीं अमूर्त हो याजिसमे किरदार की पहचान न हो सके । हमें  राजपथ घेरने पहुँचना चाहिए?”सोशल मीडिया को जिस तरह से दरकिनार कर इन्होंने उसके खुलेपन के खतरे से भी सतर्कता की बात की है, साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया है कि सोशल मीडिया का आंदोलन कोई योगदान नहीं था।
            अनिल चमड़िया अपने लेख “सोशल मीडिया का भ्रम” में लिखते हैं कि“व्यापक समाज सुधार का काम सोशल मीडिया के जरिये नहीं किया जा सकता है।” पत्रकारिता के दिग्गज आज भी सोशल मीडिया के प्रभाव को लेकर अभी तक साफ नहीं हुए हैं। भड़ास 4 मीडिया के संपादक यशवंत सिंह का कहना है कि भड़ास4मीडिया शुरू करने का उद्देश्य मीडिया को बीट मानकर उसके अंदर के स्याह सफेद को उदघाटित करना है। यही एक ऐसा माध्यम है, जहां मुख्यधारा की मीडिया पर्दे से बेपर्दा होती है। रवीश कुमार जहां सोशल मीडिया को मुख्य धारा की मीडिया से ज्यादा आगे मानते हैं तो वहीं एन. के. सिंह और अनिल चमड़िया इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। मीडिया का वैकल्पिक माध्यम एक नया इतिहास लिखे जा रहा है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि मुख्यधारा की मीडिया को अब इसका डर होने लगा है कि उसका सिंहासन कोई और न छीन ले।
            सोशल मीडिया ने जहां भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ लोगों की सोच को एक आम सोच बनाया वहीं दूसरी ओर इस तकनीक का फायदा उठाते हुए कुछ अराजक लोगों ने भड़काऊ कंटेंट और तस्वीरें डालकर देश की अखंडता पर ही चोट करने की कोशिश की। आजकल सोशल मीडिया एक ऐसे सूखे जंगल की तरह हो चुकी है जिसमें थोड़ी चिंगारी लगने की देर है आग अपने आप पूरे जंगल में फैल जाएगी। असम में दो समुदायों के बीच झड़पों की घटनाओं की गूंज इन्हीं सोशल मीडिया वेबसाइटों पर भी दिखाई दी जिसकी लपट आगे चलकर मुंबई, बंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद में भी दिखी। जिस तरह से बहुत बड़ी मात्रा में आपत्तिजनक तस्वीरें और कंटेंट सोशल मीडिया पर जारी किए गए उससे तो इसके अस्तिव पर ही सवाल खड़े हो चुके हैं।
संदर्भ सूची
1.      MarshallMcLuhan,Understanding MediaThe extensions of man, Part-I, Chapter-1.
2.      Wankel, Charles, Educating Educators with Social Media, Emerald Group Limited, Howard House, Wangon Lane, Bingley, UK.
3.      Simon, Lee, Social Media Dangers, 2011, Xlibric Corporation.
4.      Bozarth, Jane, Social Media for Trainers : Techniques for Enhancing and Extending Learning, An Imprint of Wiley, San Francisco, CA.
5.      Walter Lippman, Public Opinion, http://books.google.co.in/books
6.      Hana, S. Noor Al-Deen, John Allen Hendricks, Social Media Usage and Impact, Lexington Books, Lanham, Maryland-20706..
इंटरनेट वेबसाइट एवं यू. आर. एल. -
(यह लिंक 2 जनवरी 2013 को देखी गई)
9.      इंटरनेट वर्ल्ड डाटा रिपोर्ट, 2012,अध्याय- 2.
            (यह सभी लिंक दिसंबर 2012 से जनवरी 2013 के बीच देखे गए )