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बुधवार, 30 जनवरी 2013

हिंदी पत्रकारिता और भाषागत चुनौती


              
हिंदी पत्रकारिता और भाषागत चुनौती   
  संचार –क्रांति के इस युग में पत्रकारिता ने बड़ी ही तेजी से नई शक्ल का अख्तियार किया है |उपभोक्तावादी संस्क्रति की चकाचौंध,अख़बारों में बढती व्यवसायिकता और विभिन्न न्यूज़ चैनलों के बीच बढती प्रतिद्वंदिता ने एक ओर जहाँ पत्रकारों की जिम्मेदारी बढ़ा दी है वहीँ इनके भाषाई त्रुटियों के कारण पत्रकारिता का चारित्रिक स्खलन हो रहा है साथ ही साथ पत्रकारों का नैतिक पतन हो रहा है | वर्तमान काल का भयावह सच है बेरोजगारी |लेकिन ऐसे माहौल में हिंदी पत्रकारिता के बढ़ते प्रभाव ने रोजगार के अनेक अवसर प्रदान किये है |संचार प्रौद्योगिकी के इस उन्नत माहौल ज्यादा अवसर भाषा अध्येता के है |लेकिन समाचार पत्रों में बढती भाषागत त्रुटियाँ हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियों को बढ़ा दिया है |अब सवाल है कि हमें क्या हमें अपनी हिंदी को ऐसे ही बदलते देखते रहना चाहिए   
पत्रकारिता एक उच्छृंखल पहाड़ी दरिया की भांति होती है, जो जब-तब अपना रूख बदलती रहती है | आज पत्रकारिता कागज,कलम तक ही सीमित नहीं है अपितु आनलाइन  हो गयी है | संचार विद मार्शल मैक्लुहान का कथन है कि ‘संचार क्रांति के दौर में जब सम्पूर्ण विश्व एक गाँव के रूप में तब्दील हो गया है,और संचार के क्षेत्र में हर दिन कोई न कोई उपलब्धि हासिल की जा रही है ऐसे में पत्रकारिता ने भी रूप व रंगत बदली है |आज भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां न सिर्फ बढ़ गई हैं वरन उनके संदर्भ भी बदल गए हैं। पत्रकारिता के सामाजिक उत्तरदायित्व जैसी बातों पर सवालिया निशान हैं तो उसकी नैसर्गिक सैद्धांतिकता भी कठघरे में है। वैश्वीकरण और नई प्रौद्योगिकी के घालमेल से एक ऐसा वातावरण बना है, जिससे कई सवाल पैदा हुए हैं। इनके वाजिब व ठोस उत्तरों की तलाश कई स्तरों पर जारी है। वैश्वीकरण व बाजारवाद की इन चुनौतियों ने हिन्दी पत्रकारिता को कैसे और कितना प्रभावित किया है इसका अध्ययन किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
समूची भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में बात करने के पहले इसे तीन हिस्सों में समझने की जरूरत है।‘इंडियन रीडर शिप सर्वे के अनुसार पाठक संख्या के हिसाब से देश के दस  बड़े अखबार में पांच हिंदी के अन्य शेष क्षेत्रीय भाषों के है |’  पहली अंग्रेजी पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी नितांत क्षेत्रीय अखबारों की पत्रकारिता। पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो बाजारवाद की हवा को आंधी में बदलने में सहायक ही बनी है |  कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों व सामाजिक सरोकारों को शीर्षासन करा दिया है। दूसरी श्रेणी में आने वाले हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं। वे भी बाजारवादी हो- हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही अनुगामी बने हुए हैं। उनकी स्वयं की कोई पहचान नहीं है और वे इस संघर्ष में कहीं लोकसे जुड़े नहीं दिखते। तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं, जो अपनी दयनीयता के नाते न तो खास अपील रखते हैं न ही उनमें कोई आंदोलनकारी-परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है। यानि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है।
व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो यह घाटे का सौदा नहीं है। अखबारों की छाप-छपाई, तकनीक-प्रौद्योगिकी के स्तर पर क्रांति दिखती है। वे ज्यादा कमाऊ उद्यम में तब्दील हो गए हैं। अपने कर्मचारियों को पहले से ज्यादा बेहतर वेतन, सुविधाएं दे पा रहे हैं। बात सिर्फ इतनी है कि उन सरोकारों का क्या होगा, उन सामाजिक जिम्मेदारियों का क्या होगा-जिन्हें निभाने और लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित होकर काम करने के लिए लोगों  यह पथ चुना था? क्या अखबार को प्रोडक्टबनने और संपादक को ब्रांड मैनेजरया सीईओबन जाने की अनुमति दे दी जाए? बाजार के आगे लाल कालीन बिछाने में लगी पत्रकारिता को ही सिर माथे बिठा लिया जाए? क्या यह पत्रकारिता भारत या इस जैसे विकासशील देशों की जरूरतों, आकांक्षाओं को तुष्ट कर पाएगी? यदि देश की सामाजिक आर्थिक जरूरतों, जनांदोलनों को स्वर देने के बजाए वह बाजार की भाषा बोलने लगे तो क्या किया जाए? यह चिंताएं आज हमें मथ रही हैं?
आप लाख कहें लेकिन विश्वग्रामके पीछे जिस आर्थिक चिंतन और नई प्रौद्योगिकी पर जोर दिया जाता  क्या उसका मुकाबला हमारी पत्रकारिता कर सकती है? बाजारवाद के खिलाफ आवाजें  तो अवश्य हैं, लेकिन वे बहुत बिखरी-बिखरी, बंटी-बंटी ही हैं। वह किसी आंदोलन की शक्ल लेती नहीं दिखतीं। बिना वेग, त्वरा और नैतिक बल के आज की हिन्दी या भाषाई पत्रकारिता कैसे उदारीकारण के अर्थचिंतन से दो-दो हाथ कर सकती है?
बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति, चैनलों पर अपसंस्कृति परोसने की होड़, बढ़ती सौन्दर्य प्रतियोगिताएं, जीवन में हासिल करने के बजाए हथियाने का बढ़ता चिंतन, भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्ववाद, असंतुलित विकास और असमान शिक्षा का ढांचा कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे हम रोजाना टकरा रहे हैं और समाज में गैर बराबरी की खाई बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही मूल्यहीनता के संकट अलग हैं। भारत की दुनिया के सात बड़े बाजारों में एक होना एक संकट को और बढ़ाता है। दुनिया की सारी कम्पनियां इस बाजार पर कब्जा जमाने कुछ भी करने पर आमादा हैं।
असंतुलित विकास भी इसी व्यवस्था की नई देन है। शायद इसलिए अर्थशास्त्री प्रो. ब्रम्हानंद मानते है कि आने वाले वर्षों में स्टेट बनाम मार्केट’ (राज्य बनाम बाजार) का गंभीर टकराव होगा। सो विकसित राज्यों व बाजारवादी व्यवस्था से लाभान्वित हुए राज्यों जैसे  आंध्र, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र के खिलाफ अविकसित राज्यों का एक स्वाभाविक संघर्ष शुरू हो गया है। प्रो. ब्रम्हानंद के मुताबिक ‘‘उदारीकरण के बाद स्वास्थ्य, पेयजल, सड़क, सार्वजनिक यातायात, शिक्षा हर जगह दोहरी व्यवस्था कायम हो गई है। एक व्यवस्था निजीकरण से जुड़ी है, जहां उपभोक्ताओं के पास समृद्धि है और निजीकरणसे लाभ लेने की क्षमता भी। दूसरी ओर व्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र की सुविधाओं से जुड़ी हैं, जहां निवेश के लिए सरकार के पास जैसा नहीं है पर करोड़ों लोग इससे जुड़े हैं। केन्द्र की नीतियों से भी भेदभाव प्रायोजित हो रहा है। बीमारू राज्य और बीमारू होते जा रहे हैं।’’ ये संकट देश के भी हैं और पत्रकारिता के भी।
दुर्भाग्य है बीमारू राज्यों के अधिकांश क्षेत्रों में बोले जानी वाली भाषा हिन्दी है। अंग्रेजी के मुकाबले उसकी दयनीयता तो जाहिर है ही परन्तु सूचना की भाषा बनने की दिशा में भी हिन्दी बहुत पीछे है। साहित्य-संस्कृति, कविता-कहानी के क्षेत्रों में शिखर को छूने के बावजूद ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर हिन्दी में बहुत कम काम हुआ है। विज्ञान, प्रबंधन, प्रौद्योगिकी, उच्च वाणिज्य, उद्योग आदि क्षेत्रों में हिन्दी बेचारी साबित हुई है, जबकि यह युग सत्य है कि आज के दौर में जब तक भाषा बहुआयामी अभिव्यक्ति व विशेष सूचना की भाषा न बने उसे सीमा से अधिक महत्व नहीं मिल सकता। वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश की मानें तो - ‘‘हिन्दी को आज देश, काल, परिस्थितियों के अनुरूप सूचना की सम्पन्न भाषा बनाना जरूरी है। आज की हिन्दी पत्रकारिता के लिए यही सीमा ही सबसे बड़ी चुनौती है। बाजारवाद की चुनौतियों के खिलाफ हिन्दी पत्रकारिता का यह सृजनात्मक उत्तर होगा। आधुनिक राजसत्ता, तंत्र, बाजारवाद, विश्वग्राम की सही अंदरूनी तस्वीर लोगों तक पहुंचे, यह सायास कोशिश हो। इसके अंतर्विरोध-कुरूपता को हिन्दी या भाषाई पाठक जानें, यह प्रयास हो। यह काम अंग्रेजी प्रेस नहीं कर सकता। अंग्रेजी की नकल कर रहे भाषाई अखबार भी नहीं कर सकते, क्योंकि ये सभी माडर्न सिस्टम की उपज हैं। यही बाजारवाद इनका शक्तिस्रोत हैं।’’
अंग्रेजी के वर्चस्ववाद के खिलाफ हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की शक्ति को जगाए व पहचाने बिना अंधेरा और बढ़ता जाएगा। ‘अंग्रेजी अखबार इस लूटतंत्र के हिस्सेदार बने हैं तो मुख्यधारा की हिन्दी-भाषाई पत्रकारिता उनकी छोड़ी जूठी पत्तलें चाट रही हैं। हिन्दी की ताकत सिर्फ सिनेमा में दिखती है, जबकि यह भी बाजार का हिस्सा है। वास्तव में तो हिंदी  सिर्फ मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा बनकर रह गयी है।
बाजारवाद में मुफ्त बेचने वाले हाते हैं, खरीदने वाले नहीं। हमारा पाठक यहीं ठगा जा रहा है। उसे जो कुछ यह कहकर पढ़ाया  जा रहा है कि यह तुम्हारी पंसद है - दरअसल वह उसकी पसंद नहीं होती। जिस तरह एक ओर बाजार इच्छा सृजन कर रहा है, आपकी जरूरतें बढ़ी हैं और नाजायज चीजें हमारी जिन्दगी में जगह बना रही हैं। अखबार भी बाजार के इस षडयंत्र का हिस्सा बन गया है। सो पाठक केन्द्र में नहीं है, विज्ञापनदाता को मदद करने वाला संदेशकेन्द्र में है। मार्शल मक्लुहान ने कहा किवसुधैव कुटुम्बकमपूरा विश्व एक परिवार है। विश्वग्रामकहता है - पूरा विश्व एक बाजार है।जाहिर है चुनौती कठिन है। विज्ञापन दाता कंटेंटको नियंत्रित करने की भूमिका में आ गया है - यह दुर्भाग्य का क्षण है। आज हालात यह है कि पाठक ही यह तय नहीं करते कि उन्हें कौन सा अखबार पढ़ना है | अखबार ही यह भी तय कर रहे हैं कि हमें किस पाठक के साथ रहना है। कई अंग्रेजी अखबार इसी भूमिका का काम कर रहे हैं।
हिन्दी व भारतीय भाषाओं के अखबारों के सामने यह चुनौती है कि वे अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करें । हिंदी पत्रकारिता के किसी एक घटक के साथ यदि सबसे अधिक शोषण किया गया है तो वह घटक भाषा ही है | कुछ समय पहले नव भारत टाइम्स एक राष्ट्रीय अखबार हुआ करता था| उसके सम्पादकीय जनसत्ता के समकक्ष थे ,लेकिन आज नवभारत टाइम्स की हालत उजागर है | आज यह अखबार दिल्ली और मुंबई का सबसे ज्यादा बिकने वाला हिंदी का अखबार है लेकिन भाषा के मामले में यह रसातल में है|हिंदी के शब्दों में यदि आप अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते है तो ठीक है लेकिन उन्हें देवनागरी में लिखना चाहिए |’चुनाव  टाइम पर होंगे’ तो ठीक है | लेकिन ‘चुनाव Time पर होंगे’ कहाँ तक तर्क पूर्ण है | नवभारत टाइम्स के शीर्षक की बानगी देखिये –“चुनाव समय पर होंगे :PM “ “इलेक्शन TIME पर कराएँगे :EC “ | आज भी लोग जनसत्ता को पढ़कर अपनी भाषा सुधारते है | नवभारत टाइम्स को एक अपवाद के रूप में छोड़ दें तो आज भी प्रिंट मीडिया में भाषा की ज्यादा दुर्दशा नहीं हुई है | लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया ने  की भाषा की वो दुर्दशा किया  है कि समझना व समझाना दोनों मुश्किल है |         
 वे यह सोचें कि क्या वे सूचना देने, शिक्षित करने और मनोरंजन करने के अपने बुनियादी धर्म का निर्वाह करते हुए कुछ विशिष्टकर सकते हैं? क्या हमने अपने प्रस्थान बिन्दु से नाता तोड़ लिया है, क्या हम जनोन्मुखी और सरोकारी पत्रकारिता से हाथ जोड़ लेंगे। देह और भोग (बाडी एंड प्लेजर) की पत्रकारिता के पिछलग्गू बन जाएंगे? अपने समाज जीवन को प्रभावित करने वाले सवालों से मुंह चुराएंगे? उदारीकरण के नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा तक नहीं करेंगे। अपने पाठकों तक सांस्कृतिक पतन की सूचनाएं नहीं देंगे? क्या हम यह नहीं बताएंगे कि मैक्सिकों का यह हाल क्यों हुआ? थाईलैंड की वेश्यावृत्ति का बाजावाद से क्या नाता है? पत्रकारिता सार्थक भूमिका के निर्वहन में हमारे आड़े कौन आ रहा है?
हमारे एकता-अखंडता क्या पश्चिमी सांचों की बनावट पर कायम रह सकेगी? सुविधाओं एवं सुखों के नाम पर क्या हम आत्म-समर्पण कर देंगे? ऐसे तमाम सवाल पत्रकारिता के सामने खड़े हैं। उनके उत्तर भी हमें पता है लेकिन बाजारवादकी चकाचैंध में हमें कुछ सूझता नहीं। इसके बावजूद रास्ता यही है कि हम अपने कठघरों से बाहर आकर बुनियादी सवालों से जूझें |  

सोमवार, 28 जनवरी 2013

लिबोर : घोटालों का पर्याय


          लिबोर : घोटालों का पर्याय
        लिबोर आज वर्तमान में घोटालों का पर्याय बन गया है, वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी ऐसी मिशाल देखने को मिल सकती है | जो भी हो इस घोटाले ने नव उदारवाद और उसके सहयोगियों को काफी करारा झटका दिया है | सबसे ताजुब्ब की बात है, भारत पर इसका असर कितना पड़ता है, और भारत इस ओर कितना ध्यान दे पा रहा है, और इस तरह के मामलों से निपटने में कितना सक्षम बन पाएगा |      
    वर्तमान में अगर कोई विचारणीय विमर्श है तो वह भ्रष्टाचार है | भ्रष्टाचार मानवीय मन में एक ऐसी आकुलता है,जो मनुष्य की मानवता को कतिपय लगभग नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है | भ्रष्टाचार केवल हमारे देश की ही नहीं बल्कि विश्व व्यापी बीमारी है | यह हमारे विकास के साथ साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा है |भ्रष्टाचार जनतन्त्र के सभी हिस्सों में रक्त बनकर दौड़ रहा है | राजनीतिक दलों, नेताओं,अफसरशाही से लेकर लोकतन्त्र के निचले पायदान थानों,कचेहरियों के बाबुओं तक भ्रष्टाचार का ही परचम लहराता हुआ नजर आता रहता है | भ्रष्टाचार अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है | इसका एक ताजा उदाहरण लिबोर घोटाला है | इसकी गूंज  अमेरिका, ब्रिटेन आदि पश्चिमी देशों फैली है | वह दिन दूर नहीं जिस दिन हमारें देश में इसकी धमक हो जाय | यद्यपि हमारें देश इस पर अभी भी खामोशी  व्याप्त है |  
      लिबोर यानि लंदन इंटरबैंक आफ्फ़र्ड रेट | यह एक औसत ब्याज दर है,जिसका निर्धारण लंदन के अग्रणी बैंक करते हैं | इसी दर पर वे आपस में लेनदेन करते हैं | इस पर किसी सरकार का आधिपत्य नहीं होता है, और न ही किसी देश की सरकार का हस्तक्षेप होता है | लंदन में इसकी शुरुआत सन 1980 के में हुई | ब्रिटिश बैंकर्स एसोसियेशन ने पहली जनवरी से इस दर का निर्धारण और प्रकाशन शुरू किया | लिबोर की स्थापत्य का उद्देश्य वित्तीय अनियमितताओं से बचना,और ऋण के ब्याज के निर्धारण का एक मजबूत आधार मिल सके | वस्तुतः लगभग 150 प्रकार की ब्याज दरें रोजाना प्रकाशित की जाती हैं, जो लगभग 10 राष्ट्रीय मुद्राओं के ऋणों को प्रभावित करती है |
          पिछलें दो दशकों से यह दावा किया जा रहा है कि लिबोर के ब्याज में कोई हेरा-  फेरी नहीं हो सकती, न ही कोई अन्य विकल्प है, जिसके द्वारा इसमें घोटाला किया जा सकता है | किन्तु हाल ही में उजागर कतिपय घटनाओं ने इस पर भी संदेह का प्रश्न खड़ा कर दिया है | पिछले कुछ महीने पहले तब स्थिति स्पष्ट हुई, जब ब्रिटेन के ही बहुत पुराने एवं प्रतिष्ठित बैंक बार्कलेज को लिबोर की निर्धारण प्रक्रिया के दौरान हेराफेरी करने का दोषी पाया गया,और उसने अपना दोष कुबूलकर 45 करोड़ का जुर्माना भरा | तथ्य जो स्पष्ट उभरकर सामने आए उनसे यह ज्ञात होता है कि बार्कलेज ने वर्ष 2005-2007 के दौरान के निर्धारण की प्रक्रिया को गलत ढंग से बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है | उससे जुड़े कुछ व्यापारियों ने अन्य बैंकों से समन्वय स्थापित किया, जब आर्थिक मंदी का दौर शुरू हुआ तब जान बूझ कर कम ब्याज की दर प्रेषित करने की कोशिश की, ताकि लोग समझें कि वह अन्य बैंको से बेहतर स्थिति में है | अमेरिका सहित तमाम देशों के विद्यार्थी बैंकों से ऋण लेकर पढ़ाई का खर्च वहन करतें हैं | उन्हें प्रत्येक वर्ष दी जाने आधी ऋण राशियों  का ब्याज लिबोर आधारित होता है | इसी प्रकार ऋण पर जायजाद रखने वालों से ब्याज कि वसूली लिबोर से जुड़ी होती है | इसी बार्कलेज सहित अन्य बैंकों ने छात्रों एवं ब्याज ऋणों से बहुत पैसा कमाया है |
       दस्तावेजों के अनुसार इस हेरा-फेरी के कारण लोगों का विश्वास कामर्शियल बैंकों से घट रहा है | लंदन की एक वित्तीय संस्था के प्रमुख जॉन ग्राउट कहते है की जब लोगों का विश्वास खो देंगे तो बाज़ार में नगदी का अभाव हो जाएगा | लोगों को ऋण लेनें में कठिनाई आएगी और ब्याज दर बढ़ेगा | आजकल इसी प्रकार के घोटाले, बैंक और उनके संचालक के आपसी गठजोड़ से धड़ल्ले से हो रहें हैं | घोटालों के बढ़ने के पीछे शायद दंड का लचीला प्रावधान है | भ्रष्टाचार के ज़्यादातर मामलों में पकड़े जाने पर जुर्माना ठोका जाता है, या नौकरी से निकाल दिया जाता है,लेकिन अगर इन्हें जेल की लंबी सजा मिले तो शायद इनमें डर पैदा हो | इस बैंक अधिकारी को भी पकड़े जाने पर पद से त्याग पत्र देना पड़ा | मुख्य कार्यकारी अधिकारी राबर्ट डायमंड ने अपने तीन कर्मचारियों समेत वर्षांत के बोनस न लेने का ढिंढोरा पीट दिया |
       न्यूयार्क टाइम्स के ग्लोबल संस्करण इंटरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून के 10 जुलाई के अंक  में एक लेख छपा जिसमें शीर्षक था - लिबोर्स डर्टी लांड्री | अखबार के अनुसार तो अभी तो घोटालों के खुलासे की यह शुरुआत है | स्पष्ट है कि इस घोटाले में शामिल बैंकरों कारोबारियों अधिकारियों तथा अन्य लोगो ने जान बूझकर बहुत ही उत्साह से घोटाले को आगे बढ़ाया है, जिससे भारी दौलत बटोर सकें | अखबार ने रेटिंग एजेंसियों के भी भ्रष्टाचार में शामिल होने कि बात कही है | स्मरण हो अभी हाल ही में कुछ अमेरिकी रेटिंग एजेंसियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर किए गए दूरगामी उवाच को ब्रम्ह शब्द मानकर भारत सरकार पर तीक्ष्ण प्रहार किए जा रहे थे | शायद ही किसी ने इन रेटिंग एजेंसियों पर सवाल किया हो |
      लिबोर घोटाले कि आवाज लंदन,न्यूयार्क से लेकर यूरोपीय संघ के मुख्यालय ब्रूसेल्स में गूंज रही है | यूरोपीय संघ के वित्तीय मामलों के आयुक्त मिशेल बार्निये के अनुसार संघ अपने नियमों में समुचित संसोधन की बात सोंच रहा है, जिससे भविष्य मे लिबोर जैसे घोटाले ना हों,घोटालों में संलिप्त लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दी जा सके | संघ ने लिबोर को पहले दर्जे की धोखाधड़ी कहा है | अमेरिका ने बाज़ार में मिथ्या कीमतों को लाने को लेकर सख्त सजा की बात की है | जहां तक ब्रिटेन का सवाल है लिबोर में लंदन का नाम जुड़े होने की वजह से उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है | ब्रिटिश के इकोनामिस्ट अखबार के अनुसार ( 7 जुलाई ) के अनुसार यदि गंदगी साफ न की गयी ,तो पूरे बैंकिंग उद्योग की विश्वसनीयता खतरे में पड जाएगी |
       वर्तमान में प्राप्त सूचनाओं के अनुसार बार्कलेज के अतिरिक्त सिटी ग्रुप, यूबीएस, द्वायस्च बैंक एचएसबीसी आदि बड़े नाम वाले बैंक भी घोटाले मे शामिल होने की आशंका व्यक्त की जा रही है | इंटरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून के अनुसार एक ओर आर्थिक मंदी के कारण बेरोजगारी बढ़ रही है, और राज्य की करों से प्राप्त होने वाली राशि घट रही है, वहीं दूसरी ओर बैंक अपार अनैतिक धन बटोर रहें हैं | मंदी को बढ़ाने मे लिबोर के घोटाले को अंजाम देने वालों का काफी हाथ है |
      लिबोर आज वर्तमान में घोटालों का पर्याय बन गया है, वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी ऐसी मिशाल देखने को मिल सकती है | जो भी हो इस घोटाले ने नव उदारवाद और उसके सहयोगियों को काफी करारा झटका दिया है | सबसे ताजुब्ब की बात है, भारत पर इसका असर कितना पड़ता है, और भारत इस ओर कितना ध्यान दे पा रहा है, और इस तरह के मामलों से निपटने में कितना सक्षम बन पाएगा                                                                          रामशंकर                                                 पीएच॰डी॰ जनसंचार (शोधार्थी)                          
                                                                                                                 ramsanker.pal108@gmail.com
                                                 म॰गाँ॰अ॰हि॰वि॰वि॰ वर्धा,महाराष्ट्र

शनिवार, 26 जनवरी 2013

संप्रेषण की यात्रा





संप्रेषण की यात्रा 




सम्प्रेषण हर प्राणी की बुनियादी व स्वाभाविक प्रकृति एवं जरूरत है। इसके जरिए हम जानकारियों, भावनाओं एवं अभिव्यक्तियों का आदान-प्रदान करते हैं। सम्प्रेषण में ध्वनियों, भाषा एवं चित्रों का काफी महत्व होता है। सम्प्रेषण मानव उत्पत्ति से चली आ रही एक अनवरत प्रक्रिया है, इसका स्वरूप व माध्यम जो भी हो। जन्म लेते ही बच्चा रोकर अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। संचार शास्त्री डेनिस मैकवेल मानव सम्प्रेषण को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक अर्थ पूर्ण संदेशों के आदान-प्रदान के रूप में देखते हैं। इनका विचार है कि संचार ही मानव समाज की संचालन प्रक्रिया को सफल बनाता है। इसी मानवीय जिज्ञासु प्रवृत्ति ने पत्रकारिता के विभिन्न आयामों का उद्भव किया है।
            पत्रकारिता में समय-समय पर परिवर्तनों का दौर आता रहा है। यही एक मात्र पेशा है जिसमें शामिल लोग अपने कार्य क्षेत्र को ही प्रयोग शाला मानकर नये-नये प्रयोग करते रहे है, और नई-नई प्रवृत्तियों को जन्म देते रहे है। बीसवीं संदी के अंतिम दशक में जब सूचना प्रौद्योगिकी अपने विकास के चरम पर पहुँची तो ऐसे ही प्रयोगों की संख्या एकाएक बढ़ गयी। नतीजा यह हुआ कि इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में ही एक साथ कई-कई नई प्रवृत्तियों ने जन्म ले लिया और अत्यंत प्रभावी ढंग से न केवल पत्रकारिता का रंग-ढंग बदला बल्कि सामाजिक व्यवस्था एवं लोगों के चाल-चलन में व्यापक बदलाव हुआ। इस दौर में पत्रकारिता के दोनों महत्वपूर्ण स्वरुप प्रिंटऔर इलेक्ट्रॉनिक अर्थात मुख्य धारा मीडिया अपने- अपने खेमे में भी डरे सहमे नज़र आये। वर्तमान समय में प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रानिक मीडिया को ओल्ड मीडिया एवं नागरिक पत्रकारिता,सोशल मीडिया,इन्टरनेट आधारित मीडिया,वेब पोर्टल आदि पत्रकारिता के वैकल्पिक स्वरुप को न्यू मीडिया के नाम से जाना जाता है |मोबाइल,डिजीटल कैमरा,लैपटाप व इन्टरनेट इत्यादि का आज सूचना संकलन व सम्प्रेषण में अधिकाधिक योगदान रहा है |आज वैकल्पिक मीडिया के द्वारा लोग अपनी अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त कर रहें हैं |

सोमवार, 21 जनवरी 2013

प्रेस नियामक संस्थाओं के गठन में कुछ खास





प्रेस नियमक संस्थाओ के गठन में कुछ ख़ास




1953 में प्रथम प्रेस आयोग की सिफारिश पर तथा प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम,

1867 में संशोधन से 1 जुलाई 1956 को भारत के समाचार-पत्र पंजीयक का कार्यालय
अस्तित्व में आया। समाचार-पत्र पंजीयक को प्रेस पंजीयक भी कहा जाता है। यह हर
वर्ष 31 दिसंबर से पहले समाचार-पत्रों की स्थिति के बारे में सरकार को अपनी
वार्षिक रिपोर्ट सौंपता है। जिस अवधि के लिए वार्षिक विवरण दिए जाते थे, उसे
2002 में कैलेंडर वर्ष से बदलकर वित्तीय वर्ष कर दिया गया था। संविधान की
आठवीं अनुसूची में अभिलिखित अंग्रेजी के अलावा 22 अन्य प्रमुख भाषाओं और 100
अन्य भाषाओं और बोलियों, अधिकतर भारतीय, कुछेक विदेशी में समाचार-पत्रों का
पंजीयन हुआ।
**
*पत्र सूचना कार्यालय *
पत्र सूचना कार्यालय (पी.आई.बी) सरकार की नीतियों, कार्यक्रम पहल और
उपलब्धियों के बारे में समाचार-पत्रों तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को सूचना देने
वाली प्रमुख एजेंसी है। यह प्रेस विज्ञप्तियों, प्रेस नोट, विशेष लेखों,
संदर्भ सामग्री, प्रेस ब्रीफिंग, फोटोग्राफ, संवाददाता सम्मेलन, साक्षात्कार,
प्रेस दौंरे और कार्यालय की वेबसाइट के माध्यम से सूचना को सर्वत्र पहुँचाता
है। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में जारी सूचना सामग्री
समाचार-पत्रों और मीडिया संगठनों तक पहुँचाई जाती है।
**
*समाचार एजेंसियाँ ***
प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया
भारत की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) भारतीय
समाचार-पत्रों की बिना मुनाफे के चलाई जाने वाली सहकारी संस्था है, जिसका
दायित्व अपने ग्राहकों को कुशल एवं निष्पक्ष समाचार उपलब्ध कराना है। इसकी
स्थापना 27 अगस्त 1947 को हुई और इसने 1 फरवरी 1949 से अपनी सेवाएँ आरंभ कर
दीं। पीटीआई अंग्रेजी और हिन्दी में अपनी समाचार सेवाएँ दे रही है। भाषा
एजेंसी की हिन्दी समाचार सेवा है। पीटीआई के ग्राहकों में भारत के 500
समाचार-पत्र और बीसियों विदेशी समाचार संगठन शामिल हैं। भारत में सभी और
विदेशों मेंलंदन <http://analytics.webdunia.com/tracklinks.php?linkid=123> से
बीबीसी सहित कई प्रमुख टीवी/रेडियो चैनल पीटीआई की सेवाएँ ले रहे हैं।
**
*यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ इंडिया (यूएनआई) *
यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया की स्थापना 1956 के कंपनी कानून के तहत 19 दिसंबर
1959 को हुई। इसने 21 मार्च 1961 से कार्य करना आरंभ कर दिया। गत चार दशकों
में यूएनआई, भारत में एक प्रमुख समाचार ब्यूरो के रूप में विकसित हुई है। 1982
में इसने पूर्ण रूप से हिन्दी तार सेवा यूनीवार्ता का शुभारंभ किया। इसी दशक
में इसने फोटो सेवा तथा ग्राफिक्स सेवा का भी आरंभ किया।
**
*गुटनिरपेक्ष समाचार नेटवर्क *
गुटनिरपेक्ष समाचार नेटवर्क (एनएनएन) इंटरनेट आधारित समाचार और फोटो
आदान-प्रदान की व्यवस्था गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्य देशों की समाचार
एजेंसियों की व्यवस्था है। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया सहित गुटनिरपेक्ष समाचार
एजेंसियों के समाचार और फोटो एनएनएन वेब साइट पर अपलोड किए जाते हैं, ताकि सभी
को ऑन लाइन उपलब्ध हो सकें। मलेशिया की समाचार एजेंसी बरनामा इस समय
कुआलालाम्पुर से इस वेब साइट का संचालन कर रही है।
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*भारतीय प्रेस परिषद *
भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता की रक्षा करने और
भारत में समाचार-पत्रों और समाचार एजेंसियों के स्तर को बनाए रखने और उसमें
सुधार लाने के उद्देश्य से संसद के अधिनियम के तहत की गई है। यह शासन तंत्र
तथा प्रेस जगत पर नियंत्रण रखने वाले समान अर्ध-न्यायिक नियंत्रक स्वायत्तशासी
संगठन है।