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गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

कविता पंखुड़ी


पंखुड़ी
पिता हूँ एक पंखुड़ी का
जिसे मेरी प्रिये ने
स्वप्न के स्पंदन में  
चाँदनी के मखमली स्पर्श से
मध्यरात्री में देखा है।
स्मृतियों को सहेजकर
मोती को छुपाकर  
यौवन को निखार कर
ऋतुओं को पार कर
वसंती फुहारकर
उपवन एक खिलाया था।
कल्पना के ध्यान से
शशि के गुमान से
प्रेम के कलश में
मोती एक सजाया था।
रिश्तों के स्नेह से
फाल्गुनी वेदना से
मन के उमंग से
पंखुड़ी को जाया था।
पंखुड़ी आज किलकारी कर
जीवन लुटाती है
प्रेमिका के बगिया में धमा
चौकड़ी मचाती है।
दृश्य यह देख मेरा मन
व्याकुल हो जाता है
साथी को जीवन पूरा
समर्पित हो जाता है।
डॉ. रामशंकर विद्यार्थी