संचारक के रूप में विवेकानंद
रामशंकर*
अब से करीब 117 साल
पहले 11 सितंबर, 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो पार्लियामेंट आफ रिलीजन में
भाषण दिया था, उसे आज भी दुनिया भुला नहीं पाती। इसे रोमा रोलां[1] ने 'ज्वाला
की जबान' बताया था। इस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली
घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों
राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके। स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक
अनोखी संस्कृति के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को
उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था। उस समय अभिभूत अमेरिकी मीडिया ने स्वामी
विवेकानंद के बारे में लिखा था, 'उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है
कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर
रहे थे।'
जब शिकागो धर्म संसद के पहले दिन अंत में विवेकानंद संबोधन के लिए खड़े हुए
और उन्होंने कहा- अमेरिका
के भाइयो और बहनो, तो तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत हुआ, लेकिन इसके बाद उन्होंने हिंदू धर्म की जो सारगर्भित
विवेचना की, वह कल्पनातीत थी। उन्होंने यह कहकर सभी
श्रोताओं के अंतर्मन को छू लिया कि हिंदू तमाम पंथों को सर्वशक्तिमान की खोज के
प्रयास के रूप में देखते हैं। वे जन्म या साहचर्य की दशा से निर्धारित होते हैं, प्रत्येक प्रगति के एक चरण को चिह्निंत करते हैं। अन्य तमाम
पंथ कुछ मत या सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं और समाज को इन्हें अपनाने को बाध्य
करते हैं। वे समाज के सामने केवल एक कोट पेश करते हैं, जो जैक, जान
या हेनरी या इसी तरह के अन्य लोगों को पहनाना चाहते हैं। अगर जान या हेनरी को यह
कोट फिट नहीं होता तो उन्होंने बिना कोट पहने ही जाना पड़ता है। धर्म संसद के आखिरी
सत्र में विवेकानंद ने अपने निरूपण की व्याख्या को इस तरह आगे बढ़ाया- ईसाई एक हिंदू या बौद्ध नहीं बनता है न ही एक
हिंदू या बौद्ध ईसाई बनता है, लेकिन प्रत्येक पंथ के लोगों को एक दूसरे की भावनाओं का
ध्यान रखना चाहिए।[2]
उन्होंने उम्मीद जताई कि हर पंथ के बैनर पर जल्द ही लिखा
मिलेगा समावेश,विध्वंश नहीं। सौहार्द्र और शांति, फूट नहीं। मंत्रमुग्ध करने वाले उनके शब्द हाल की दीवारों
के भीतर ही गुम नहीं हो गए। वे अमेरिका के मानस को भेदते चले गए, लेकिन उस समय भी आम धारणा यही थी कि हर कोई विवेकानंद से
प्रभावित नहीं हुआ। उन्हें न केवल कुछ पादरियों के क्रोध का कोपभाजन बनना पड़ा
बल्कि हिंदू धर्म के ही कुछ वर्गो ने उन्हें फक्कड़ साधु बताया जो किसी के प्रति
आस्थावान नहीं है। उन्होंने विवेकानंद पर काफी कीचड़ उछाला। उनके पास यह सब चुपचाप
झेलने के अलावा और कोई अन्य चारा नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने तब जबरदस्त
प्रतिबद्धता का परिचय दिया, जब एक अन्य अवसर पर उन्होंने ईसाई श्रोताओं
के सामने कहा- तमाम
डींगों और शेखी बखारने के बावजूद तलवार के बिना ईसाईयत कहां कामयाब हुई? जो
ईसा मसीह की बात करते हैं वे अमीरों के अलावा किसकी परवाह करते हैं! ईसा को एक भी ऐसा पत्थर नहीं मिलेगा, जिस
पर सिर रखकर वह आप लोगों के बीच स्थान तलाश सके..आप ईसाई नहीं हैं। आप लोग फिर से ईसा के पास जाएं
स्वामी विवेकानन्द ज्यादा
बड़े संन्यासी थे या उससे
बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? ये सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर
हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं, तीनों ही
क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैं, प्रबंधक
हैं और संन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा
एक संन्यासी अगर युवाओं का रोल मॉडल बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं है, किंतु विवेकानन्द के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। आज के
डेढ़ सौ साल पहले कोलकाता में जन्मे विवेकानन्द और उनके
विचार अगर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को
महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी-सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस धरती पर
तो चमत्कार सरीखा ही था। उनकी डेढ़ सौं वीं जयंती वर्ष
पर देशभर में हो रहे आयोजन और उनमें युवाओं का उत्साहपूर्वक सहभाग बताता है कि देश
के नौजवान आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हैं और स्वामी विवेकानन्द उनके वास्तविक हीरो हैं।
स्वामी
विवेकानन्द की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है।
वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परम्परागत
धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे
समाज से भागे हुए संन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे
विश्वमंच पर सही मायने में भारत, उसके अध्यात्म, पुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं।
वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा, वाणी और कृति
स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण
का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए
राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से
प्रेम में बदल देते हैं। शायद इसीलिए वे कह पाए- व्यावहार में देशभक्ति सिर्फ एक
भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ
है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।
अपने जीवन, लेखन, व्याख्यानों
में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैं, पूर्णता दिखाते
हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमता, कुशल
प्रबंधन के गुर, परम्परा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है।
उनमें परम्परा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते
नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को
ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामीजी का लेखन और संवाद कला उन्हें अपने समय
में ही नहीं, समय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है।
आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने
हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामीजी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं
को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी
आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक
पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना
उस दौर में यह संभव था। स्वामीजी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर
उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाता,
बल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें।
उनका एक ही वाक्य ‘उठो ! जागो !! और तब तक मत रूको जब तक
लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।' उनकी संचार और संवाद कला के
प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक
प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोए, निराश,
हताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और
ऊर्जा का संचार होने लगता है।
स्वामीजी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी
व्यवस्थित प्रस्तुति, साफा
बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं, बताती है कि
उनमें एक सौंदर्यबोध भी है। वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत
करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय
प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वत: स्थापित हो जाती
है। अपने कर्म, जीवन, लेखन, भाषण और सम्पूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का
स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है।
अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते
हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है- ‘आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भव, पितृ देवो भव,
मातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं - दरिद्र देवो भव, अज्ञानी देवो भव, मूर्ख देवो भव।' यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीब, असहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं।
समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा
का भाव विवेकानन्दजी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- ‘यदि तुम्हें भगवान
की सेवा करनी हो तो, मनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी
मनुष्य, दरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा हैं। वह नर वेश में नारायण है।'[3]
संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामीजी बताते हैं। सही मायने में विवेकानन्दजी एक ऐसे
युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो
गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और
नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें
हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों
का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां
का मायने था छोटी झोपड़ियाँ। वे भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर
प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामीजी को जीवन में
उतारना एक कठिन संकल्प है।
आज जबकि कुपोषण, पर्यावरण के सवालों पर बातें हो रही हैं।
स्वामीजी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर
स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से पहले फुटबाल
खेलो, तभी गीता में वर्णित श्री कृष्ण के शक्तिदायी संदेश को
अनुभव कर सकोगे। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी।
मात्र 39 साल की आयु में वे हमसे विदा हो गए किंतु वे कितने
मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक
साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानन्द के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी
है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी
विवेकानन्द ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दिया, शक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को
उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे
विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है।
एक बेहतर कम्युनिकेटर, एक प्रबंधन गुरु, एक
आध्यात्मिक गुरु, वेदांत का भाष्य करने वाला संन्यासी,
धार्मिकता और आधुनिकता को साधनेवाला साधक, अंतिम
व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवक, देशप्रेमी, कुशल
संगठनकर्ता, लेखक एवं सम्पादक, एक
आदर्श शिष्य जैसी न जाने कितनी छवियां स्वामी विवेकानन्द से जुड़ीं हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं। देश में विवेकानन्द के
विचारों के साथ-साथ जीवन में भी उनकी उपस्थिति बने तो यही भारत मां के माथे पर
सौभाग्य का टीका साबित होगी।
निष्कर्ष-
समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर
उनकी सेवा का भाव विवेकानन्दजी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- ‘यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तो, मनुष्य की सेवा करो। भगवान
ही रोगी मनुष्य, दरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा हैं। वह नर वेश में नारायण है।' संचार की यह शक्ति कैसे धर्म
को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह
स्वामीजी बताते हैं। अपने जीवन, लेखन, व्याख्यानों में वे जिस
प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैं, पूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है।
उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमता, कुशल प्रबंधन के गुर, परम्परा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परम्परा का सौंदर्य है और
बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते
हैं। स्वामीजी का लेखन और संवाद कला उन्हें अपने समय में ही नहीं, समय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है
संदर्भ-
1. http://in.linkedin.com/pub/vivekanand-p/7/293/917
6.
http://www.pravakta.com/saints-of-communication-science
अध्येता
रामशंकर पीएच.डी.जनसंचार
(शोधार्थी)
म.गां.अं.हि.वि.वि.,वर्धा (महाराष्ट्र)