शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों का एक वैचारिक मंच

अभिव्यक्ति के इस स्वछंद वैचारिक मंच पर सभी लेखनी महारत महानुभावों एवं स्वतंत्र ज्ञानग्राही सज्जनों का स्वागत है।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

संचारक के रूप में विवेकानंद

संचारक के रूप में विवेकानंद

                                                                                                                              रामशंकर*
                                                                                                                             
        अब से करीब 117 साल पहले 11 सितंबर, 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो पार्लियामेंट आफ रिलीजन में भाषण दिया था, उसे आज भी दुनिया भुला नहीं पाती। इसे रोमा रोलां[1] ने 'ज्वाला की जबान' बताया था। इस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके। स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक अनोखी संस्कृति के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था। उस समय अभिभूत अमेरिकी मीडिया ने स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा था, 'उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे।'
           
            जब शिकागो धर्म संसद के पहले दिन अंत में विवेकानंद संबोधन के लिए खड़े हुए और उन्होंने कहा- अमेरिका के भाइयो और बहनो, तो तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत हुआ, लेकिन इसके बाद उन्होंने हिंदू धर्म की जो सारगर्भित विवेचना की, वह कल्पनातीत थी। उन्होंने यह कहकर सभी श्रोताओं के अंतर्मन को छू लिया कि हिंदू तमाम पंथों को सर्वशक्तिमान की खोज के प्रयास के रूप में देखते हैं। वे जन्म या साहचर्य की दशा से निर्धारित होते हैं, प्रत्येक प्रगति के एक चरण को चिह्निंत करते हैं। अन्य तमाम पंथ कुछ मत या सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं और समाज को इन्हें अपनाने को बाध्य करते हैं। वे समाज के सामने केवल एक कोट पेश करते हैं, जो जैक, जान या हेनरी या इसी तरह के अन्य लोगों को पहनाना चाहते हैं। अगर जान या हेनरी को यह कोट फिट नहीं होता तो उन्होंने बिना कोट पहने ही जाना पड़ता है। धर्म संसद के आखिरी सत्र में विवेकानंद ने अपने निरूपण की व्याख्या को इस तरह आगे बढ़ाया- ईसाई एक हिंदू या बौद्ध नहीं बनता है न ही एक हिंदू या बौद्ध ईसाई बनता है, लेकिन प्रत्येक पंथ के लोगों को एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए।[2]
            उन्होंने उम्मीद जताई कि हर पंथ के बैनर पर जल्द ही लिखा मिलेगा समावेश,विध्वंश नहीं। सौहा‌र्द्र और शांति, फूट नहीं। मंत्रमुग्ध करने वाले उनके शब्द हाल की दीवारों के भीतर ही गुम नहीं हो गए। वे अमेरिका के मानस को भेदते चले गए, लेकिन उस समय भी आम धारणा यही थी कि हर कोई विवेकानंद से प्रभावित नहीं हुआ। उन्हें न केवल कुछ पादरियों के क्रोध का कोपभाजन बनना पड़ा बल्कि हिंदू धर्म के ही कुछ वर्गो ने उन्हें फक्कड़ साधु बताया जो किसी के प्रति आस्थावान नहीं है। उन्होंने विवेकानंद पर काफी कीचड़ उछाला। उनके पास यह सब चुपचाप झेलने के अलावा और कोई अन्य चारा नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने तब जबरदस्त प्रतिबद्धता का परिचय दिया, जब एक अन्य अवसर पर उन्होंने ईसाई श्रोताओं के सामने कहा- तमाम डींगों और शेखी बखारने के बावजूद तलवार के बिना ईसाईयत कहां कामयाब हुई? जो ईसा मसीह की बात करते हैं वे अमीरों के अलावा किसकी परवाह करते हैं! ईसा को एक भी ऐसा पत्थर नहीं मिलेगा, जिस पर सिर रखकर वह आप लोगों के बीच स्थान तलाश सके..आप ईसाई नहीं हैं। आप लोग फिर से ईसा के पास जाएं

            स्वामी विवेकानन्द ज्यादा बड़े संन्यासी थे या उससे बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? ये सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं, तीनों ही क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैं, प्रबंधक हैं और संन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा एक संन्यासी अगर युवाओं का रोल मॉडल बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं है, किंतु विवेकानन्द के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। आज के डेढ़ सौ साल पहले कोलकाता में जन्मे विवेकानन्द और उनके विचार अगर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी-सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस धरती पर तो चमत्कार सरीखा ही था। उनकी डेढ़ सौं वीं जयंती वर्ष पर देशभर में हो रहे आयोजन और उनमें युवाओं का उत्साहपूर्वक सहभाग बताता है कि देश के नौजवान आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हैं और स्वामी विवेकानन्द उनके वास्तविक हीरो हैं।
             स्वामी विवेकानन्द की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परम्परागत धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे समाज से भागे हुए संन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारत, उसके अध्यात्म, पुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा, वाणी और कृति स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से प्रेम में बदल देते हैं। शायद इसीलिए वे कह पाए- व्यावहार में देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।
            अपने जीवन, लेखन, व्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैं, पूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमता, कुशल प्रबंधन के गुर, परम्परा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परम्परा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामीजी का लेखन और संवाद कला उन्हें अपने समय में ही नहीं, समय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है। आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामीजी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना उस दौर में यह संभव था। स्वामीजी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाता, बल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें। उनका एक ही वाक्य उठो ! जागो !! और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।' उनकी संचार और संवाद कला के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोए, निराश, हताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और ऊर्जा का संचार होने लगता है।
             स्वामीजी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी व्यवस्थित प्रस्तुति, साफा बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं, बताती है कि उनमें एक सौंदर्यबोध भी है। वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वत: स्थापित हो जाती है। अपने कर्म, जीवन, लेखन, भाषण और सम्पूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है। अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है- आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भव, पितृ देवो भव, मातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं - दरिद्र देवो भव, अज्ञानी देवो भव, मूर्ख देवो भव।' यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीब, असहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं।
             समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानन्दजी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तो, मनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्य, दरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा हैं। वह नर वेश में नारायण है।'[3] संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामीजी बताते हैं। सही मायने में विवेकानन्दजी एक ऐसे युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां का मायने था छोटी झोपड़ियाँ। वे भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामीजी को जीवन में उतारना एक कठिन संकल्प है।
 आज जबकि कुपोषण, पर्यावरण के सवालों पर बातें हो रही हैं। स्वामीजी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से पहले फुटबाल खेलो, तभी गीता में वर्णित श्री कृष्ण के शक्तिदायी संदेश को अनुभव कर सकोगे। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी। मात्र 39 साल की आयु में वे हमसे विदा हो गए किंतु वे कितने मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानन्द के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी विवेकानन्द ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दिया, शक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है।
             एक बेहतर कम्युनिकेटर, एक प्रबंधन गुरु, एक आध्यात्मिक गुरु, वेदांत का भाष्य करने वाला संन्यासी, धार्मिकता और आधुनिकता को साधनेवाला साधक, अंतिम व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवक, देशप्रेमी, कुशल संगठनकर्ता, लेखक एवं सम्पादक, एक आदर्श शिष्य जैसी न जाने कितनी छवियां स्वामी विवेकानन्द से जुड़ीं हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं। देश में विवेकानन्द के विचारों के साथ-साथ जीवन में भी उनकी उपस्थिति बने तो यही भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।
निष्कर्ष-
            समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानन्दजी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तो, मनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्य, दरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा हैं। वह नर वेश में नारायण है।' संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामीजी बताते हैं। अपने जीवन, लेखन, व्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैं, पूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमता, कुशल प्रबंधन के गुर, परम्परा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परम्परा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामीजी का लेखन और संवाद कला उन्हें अपने समय में ही नहीं, समय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है
संदर्भ-
1.       http://in.linkedin.com/pub/vivekanand-p/7/293/917
3.      http://www.pravakta.com/tag/स्वामी -विवेकानंद
6.      http://www.pravakta.com/saints-of-communication-science
                                                                                                                  अध्येता
                                                                                                   रामशंकर पीएच.डी.जनसंचार (शोधार्थी)                                                                                                              
                                                                                                        म.गां.अं.हि.वि.वि.,वर्धा  (महाराष्ट्र)
                                                                                                   
     



[1] जोशी,पूरन चन्द्र यादों से रची यात्रा विकल्प की तलाश’,पृष्ठ 203
[2] http://www.apnihindi.com/2011/04/blog-post_27.html
[3] नवभारत टाइम्स विवेकानंद जी का प्रसिद्ध भाषण सितंबर11,2012

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

सोशल मीडिया : संभावनाएँ और चुनौतियाँ



सोशल मीडिया किसी परिचय का मोहताज नहीं है,इसका नाम दिमाग में आते ही सबसे पहले फेसबुक,टिवटर,लिंकइन,यू-टूब,ब्लागॅ हमारे दिमाग में आता है। आज के वैश्विक परिवेश में सोशल मीडिया की लोकप्रियता और उपयोगिता का अंदाजा इस रिपोर्ट से लगाया जा सकता है।अमरिका के यूनाईटेड साईबर स्कूल के मुताबिक रेडियो को 50मिलियन लोगों तक पहुँचने में 38 साल, टीबी को 13 साल, इंटरनेट को 4 साल और फेसबुक को 100मिलियन लोगों तक पहुँचने में मात्र नौ महीने का समय लगा। एक और ध्यान देने वाली बात है कि यह केवल युवाओं की पंसद नहीं बल्कि 60-80 साल के बुजुर्ग भी इसपर सक्रिय रहतें है।
सोशल मीडिया ने आम लोगों को एक ऐसा मंच दिया है जिससे वो अपनी बातें बिना किसी डर के दुनिया के किसी भी व्यक्ति के पास पलक झपकते ही पहुचाँ सकते है। पंसद,नापंसद,अभिवयक्ति की आजादी जैसे शब्दों को सही साबित करने में इस मंच का योगदान सराहनीय रहा है।आज ज्यादातर युवा जानकारी के लिए इस पर निर्भर रहतें है। यूके में 75प्रतिशत लोग अपनी जानकारी बढाने के लिए ब्लागॅ का इस्तेमाल करते हैं। एक तरह से सूचनाओं,जानकारियों का विक्रेन्दीकरण हुआ है,अब लोग किसी सूचना के लिए एक व्यक्ति या संस्था पर आश्रित नहीं हैं।बस एक क्लिक करने की जरुरत है,सूचनाओं का भंडार आपके सामने है।सही मायने में सोशल मीडिया गाँव के चौपाल की तरह है जँहा इसका हर एक सदस्य अपने साथियों के साथ तुरतं और लगातार सूचनाओं को साझा और उसपर प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है।इस तरह किसी भी सूचना या विचार को एक साथ कई व्यक्ति तक पहुँचने में कुछ सेकेंड का ही ससमय लगता है।यही इसकी सबसे बडी खूबी है,वहीं ट्रेडिशनल मीडिया में प्रतिक्रिया व्यक्त करने का कोई माध्यम हीं नहीं है।
अरब क्रातिं, वाल स्ट्रीट जैसे आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता।लीबीया,इजीपट,ट्यूनिशया जैसे देशों में कुछ युवकों ने फेसबुक,टवीटर,यू-टूब का इस्तेमाल कर लोगों को संगठित किया। संगठन को एक दिशा देकर तानाशाहों को सता से बाहर भी कर दिया।यँहा अगर सोशल मीडिया नहीं होता तो सरकार लोगों को गोलबंद होने का मौका नहीं देती और उनकी आवाज दब कर रह जाती। लेकिन सोशल मीडिया उन देशों की सरकार या किसी समूह के नियत्रंण में नहीं था जिस वजह से लोगों को एकजुट करने में सफल रहा। वहीं अब समाजसेवी संस्थाएँ भी इसका उपयोग अपने आंदोलन को संगठित करने और जनता को जोडने,जागरुक करने में कर रहे हैं। बात चाहे अन्ना आंदोलन की हो या बाबा रामदेव की उनका आंदोलन इतना संगठित और सफल इसकी वजह से ही हो पाया है।
पर इसके साथ हीं सोशल मीडिया के लिए चुनौतियाँ भी कम नहीं है।इसके बढते ताकत को देखते हुए कई देशों की सरकार इस पर सेंसर लगाने की वकालत कर रही है। यह सही है कि इसका दुरुपयोग भी होता है जैसे अगर भारत में असम हिंसा की बात करें तो इसका उपयोग कर लोगों को भयभीत किया गया,एक बडे वर्ग को डरा कर उन्हें पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया गया। वहीं आजकल साईबर आंतकवाद भी इसके दुरुपयोग की ही बानगी है।आम लोगों की तरह आंतकवादी भी इसका उपयोग अपने नापाक इरादों को अंजाम देने के लिए कर रहें हैं। हैकिंग की समस्या भी इसी की एक कडी है, जिसका इस्तेमाल दुश्मन एक दूसरे की महत्वपूर्ण जानकारियाँ चुराने के लिए करतें है। एक और समस्या कम उम्र के युवाओं का सोशल मीडिया की तरफ बढते रुझान को लेकर है,रिपोर्ट में इस बात का पता चला कि फेसबुक इस्तेमाल करने वाले 1करोड से ज्यादा सदस्य 14साल से कम उम्र के हैं।
अगर इन चुनौतियों पर काबू पाना है तो लोगों को सोशल मीडिया के बारे में ज्यादा जागरुक और शिक्षित करना होगा।

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

भ्रष्टाचार की गिरफ़्त में समाज


                                                            भ्रष्टाचार की गिरफ़्त में समाज 

हकीकत में जनता के कल्याण के लिए शुरू की गई तमाम योजनाओं का फ़ायदा तो नौकरशाह ही उठाते हैं।  आख़िर में जनता तो ठगी की ठगी ही रह जाती है।  शायद यही उसकी नियति है। जन कल्याण के लिए योजनाएं तो खूब बनती हैं।  लेकिन ये योजनाएं घोटालों की भेंट चढ़ जाती हैं। इसलिए आम जनता को इन योजनाओं का लाभ नहीं मिलता। जब तक इन घोटालों को रोका नहीं जाएगाए आम जन को इन योजनाओं का लाभ नहीं मिलेगा।

            वैसे तो भ्रष्टाचार ने पूरी  दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। लेकिन यदि हम अपने देश भारत की बात करें तोयह  सबसे ज्यादा ऊपर के स्तर पर मौजूद दिखता है । पिछले काफ़ी अरसे से देश की जनता भ्रष्टाचार से जूझ रही है,और भ्रष्टाचारी मज़े कर रहे हैं।  पंचायतों से लेकर संसद तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है।  सरकारी दफ़्तरों के चपरासी से लेकर आला अधिकारी तक बिना रिश्वत के सीधे मुंह बात तक नहीं करते।  संसद के अन्दर भ्रष्टाचार को लेकरहो-हल्ला होता है तो बाहर जनता धरने,प्रदर्शन कर अपने गुस्से का इज़हार करती है।  हालांकि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सरकारी स्तर पर भी तमाम दावे कर औपचारिकता पूरी की जा रही है।  लेकिन नतीजा वही ढाक  के तीन पात ही रहता है।  अब तो हालत यह हो गई है कि हमारा देश भ्रष्टाचार के मामले में भी लगातर तरक्क़ी कर रहा है विकास के मामले में भारत दुनिया में कितना ही पीछे क्यों न हो मगर भ्रष्टाचार के मामले में काफी ऊपर पहुंच गया है।
गौरतलब है कि जर्मनी के बर्लिन स्थित गैर सरकारी संगठन ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल (टीआई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले साल भारत में काम कराने के लिए 54 फ़ीसदी लोगों को रिश्वत देनी पड़ी।  जबकि पूरी दुनिया की चौथाई आबादी घूस देने को मजबूर है।  इस संगठन एनजीओ ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के सर्वे में दुनियाभर के 86 देशों में 91 हज़ार लोगों से बात करके रिश्वतखोरी से संबंधित आंकड़े जुटाए हैं। 2010 के ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर के मुताबिक़ पिछले 12 महीनों में हर चौथे आदमी ने 9 संस्थानों में से एक में काम करवाने के लिए रिश्वत दी। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस विभाग से लेकर अदालतें तक शामिल हैं।
भ्रष्टाचार के मामले में अफ़गानिस्तान, नाइजीरिया, इराक़ और भारत सबसे ज़्यादा भ्रष्ट देशों की सूची  में शामिल किये गए हैं। इन देशों में आधे से ज़्यादा लोगों ने रिश्वत देने की बात स्वीकार की इस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में 74 फ़ीसदी लोगों का कहना है कि देश में पिछले तीन बरसों में रिश्वतखोरी में ख़ासा इज़ाफ़ा हुआ है। इस रिपोर्ट में पुलिस विभाग को सबसे ज़्यादा भ्रष्ट करार दिया गया है।  पुलिस से जुड़े 29 फ़ीसदी लोगों ने स्वीकार किया है कि उन्हें अपना काम कराने के लिए रिश्वत देनी पड़ी है।  संस्था के वरिष्ठ अधिकारी रॉबिन होंडेस का कहना है कि यह तादाद पिछले कुछ सालों में बढ़ी है और 2006 के मुक़ाबले दोगुनी हो गई है
काबिले.गौर है कि ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल 2003 से हर साल भ्रष्टाचार पर रिपोर्ट जारी कर रही है वर्ष 2009 की रिपोर्ट में सोमालिया को सबसे भ्रष्ट देश बताया गया है जबकि इस साल भारत इस स्थान रहा है । देश में पिछले छह महीनों में आदर्श हाउसिंग घोटाला, राष्ट्रमंडल खेलों में धांधलीऔर 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले ने भ्रष्टाचार की पोल खोल कर रख दी है।  जब ऊपरी स्तर पर यह हाल है तो ज़मीनी स्तर पर क्या होता होगा सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
टीआई की रिपोर्ट में न्यूज़ीलैंड, डेनमार्क, सिंगापुर, स्वीडन और स्विटज़रलैंड को दुनिया के सबसे ज़्यादा साफ़,सुथरे देश बताया गया है।  गौरतलब है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल का अंतरराष्ट्रीय सचिवालय बर्लिन में स्थित है और दुनियाभर के 90 देशों में इसके राष्ट्रीय केंद्र हैं |विभिन्न देशों में भ्रष्टाचार का स्तर मापने के लिए टीआई दुनिया के बेहतरीन थिंक टैंक्स, संस्थाओं और निर्णय क्षमता में दक्ष लोगों की मदद लेता है।  यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट की ओर से घोषित अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस के मौक़े पर जारी की जाती है।
विभिन्न संगठनों के संघर्ष के बाद भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए 12 अक्टूबर 2005 को देशभर में सूचना का अधिकार क़ानून भी लागू किया गया।   इसके बावजूद रिश्वत खोरी कम नहीं हुई, अफ़सोस तो इस बात का है कि भ्रष्टाचारी ग़रीबों, बुजुर्गों और विकलांगों तक से रिश्वत मांगने से बाज़ नहीं आते । वृद्धावस्था पेंशन के मामले में भी भ्रष्ट अधिकारी लाचार बुजुर्गों के आगे भी रिश्वत के लिए हाथ फैला देते हैं।

उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में पांच हजार करोड़ का घोटाला चौंकाने वाला है। ग्रामीण स्वास्थ्य जैसे संवेदनशील क्षेत्र में घोटाला शर्मनाक है। जो पैसा ग्रामीणों के स्वास्थ्य, गर्भवती महिलाओं और बच्चों की जान बचाने के लिए खर्च होना चाहिए था। वह घोटाले की भेंट भेंट चढ़ गया। निःसन्देह  ऎसा करने वाले इंसानियत के दुश्मन हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने भ्रष्टाचार को स्वीकार करते हुए कहा था कि सरकार की तरफ़ से जारी एक रुपए में से जनता तक सिर्फ़ 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं।  ज़ाहिर है बाक़ी के 85 पैसे सरकारी अफ़सरों की जेब में चले जाते हैं।  जिस देश का प्रधानमंत्री रिश्वतखोरी को स्वीकार कर रहा हो वहां जनता की क्या हालत होगी कहने की ज़रूरत नहीं।  मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मानते हैं कि मौजूदा समय में देश में भ्रष्टाचार और गरीबी बड़ी समस्याएं हैं। है । लेकिन मानने मात्र से समस्या हल नहीं हो सकती है ।
हक़ीक़त में जनता के कल्याण के लिए शुरू की गई तमाम योजनाओं का फ़ायदा तो नौकरशाह ही उठाते हैं।  आख़िर में जनता तो ठगी की ठगी ही रह जाती है।  शायद यही उसकी नियति है।जन कल्याण के लिए योजनाएं तो खूब बनती हैं।  लेकिन ये योजनाएं घोटालों की भेंट चढ़ जाती हैं। इसलिए आम जनता को इन योजनाओं का लाभ नहीं मिलता। जब तक इन घोटालों को रोका नहीं जाएगाए आम जन को इन योजनाओं का लाभ नहीं मिलेगा।

                                                          रीता पाल 
                                                       राम सनेही घाट बाराबंकी 

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

चित्रकूट भ्रमण



 चित्रकूटधाम कर्वी रेलवे स्टेशन                                             मंदाकिनी के तट रामघाट का दृश्य  


    

 जानकी घाट 
   




 ये चित्रकूट के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल है |


जय हो कामता  नाथ की जय हो |