शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों का एक वैचारिक मंच

अभिव्यक्ति के इस स्वछंद वैचारिक मंच पर सभी लेखनी महारत महानुभावों एवं स्वतंत्र ज्ञानग्राही सज्जनों का स्वागत है।

मंगलवार, 22 मार्च 2016

स्त्री-1


खेवनहार  
बनना है मुझे
इस धरा की खेवनहार,
नहीं बनना है मुझे
केवल पतवार।
सदियों से
सहयोगी के रूप में रह
उब चुकी हूँ ।
थक चुकी हूँ
इन शब्दों से कि
तुम ही तो हो,  
गृह लक्ष्मी, स्वामिनी, अन्नदात्री
लेकिन यथार्थ में कुछ भी नहीं है पास,  
न लक्ष्मी है
न संपत्ति
न ही अन्न का एक दाना। 

रामशंकर विद्यार्थी   

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें