पत्रकारिता में बढ़ती धार्मिक
चेतना...
डॉ. रामशंकर ‘ विद्यार्थी’
प्रधान संपादक- एशियन थिंकर
रिसर्च जर्नल
पत्रकारिता
का इतिहास हमारे धार्मिक ग्रंथों में पाया जाता है। पुराणों के अनुसार पत्रकारिता
के जनक देवर्षि नारद को माना गया है। नारद (यानि ज्ञान का भंडार ) निष्पक्षता, निर्भीकता और निरपेक्षता से सूचनाओं का आदान-प्रदान
किया करते थे। देश की एकता को बनाए रखने में पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका है।
पत्रकारिता और सांस्कृतिक चेतना में एक अन्योन्याश्रित
संबंध है। पत्रकारिता का उद्देश्य ही समाज और राष्ट्र के विभिन्न सांस्कृतिक घटकों
के बीच संवाद स्थापित करना होता है। स्वाधीनता संग्राम के दौर से ही भारतीय पत्रकारिता का स्वरूप सांस्कृतिक और
राष्ट्र चेतना का रहा है। स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे इसमें विकृति आनी शुरू हो
गई। पत्रकारिता का व्यवसायीकरण बढ़ने लगा। देश के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में
भी काफी बदलाव आने लगा । स्वाभाविक ही था कि पत्रकारिता उससे अछूती नहीं रह सकती
थी। धीरे-धीरे समाचारों के स्थान पर विचारों को प्रमुखता दी जाने लगी, फिर समाचारों में सनसनी हावी होने लगी और आज समाचार के नाम
पर केवल और केवल सनसनी ही बच गई और सांस्कृतिक पक्ष गायब हो गए।
वर्तमान युग में समाचार पत्र सांस्कृतिक चेतना लाने में अहम
भूमिका निभा रहे है। ऐेसे में जब पाश्चात्य संस्कृति दूसरी संस्कृतियों को निगल
रही है। जैसे कि हम भारतीय पांचांग के अनुसार नए साल का उत्सव न मनाकर एक जनवरी को
न्यू ईयर को सेलिब्रेट कर रहे हैं। वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे, बर्थ
डे को केक काटकर मनाने की प्रथा भारतीय परिवेश में पाश्चात्य से प्रवेश कर चुकी
है। ऐसे में बहुत सारे समाचार पत्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों, त्योहारों, पर्व, तिथियों संबंधित तथ्यों और दस्तावेजों को प्रकाशित कर समाज
में संस्कृति को जीवंत करने की कोशिश में भागीदारी निभा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर
अमर उजाला, जागरण
जैसे समाचार पत्र अपने पहले पेज पर तिथि भारतीय पांचाग के अनुसार प्रकाशित करते
हैं। हाल में चल रही नवरात्रि व दशहरा के कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से प्रकाशित
करना भी सांस्कृतिक चेतना को बढ़ावा देना है। हम शहर की बात करें तो समाज में हो
रहे नवरात्र के कार्यक्रम और डांडियां नृत्यों की कवरेज से अन्य लोगों को भी
समाचार पत्रों से पता चलता है। नवरात्र के सभी दिनों में समाचार पहले पेज पर
देवियों क चित्रों के साथ संक्षिप्त विवरण देते हैं। यह भी सांस्कृतिक चेतना का
प्रसार है।
इसके अलावा होली, दीवाली और राष्ट्रीय पर्व के कार्यक्रमों का प्रकाशन भी
समाचार पत्रों की इसी भूमिका में आता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। अमर उजाला
अखबार के लखनऊ संस्करण (07 अक्टूबर 2019 के अंक) में पेज आठ पर दहशरा और नवरात्रि
के कार्यक्रमों पर करीब एक पेज प्रकाशित किया गया है। यह समाज में सांस्कृतिक
चेतना का प्रवाह करना ही है।
इसी प्रकार दैनिक जागरण समाचार पत्र ने अपने सबरंग स्पेशल
पेज के अंतर्गत मेरठ संस्करण (23 अगस्त 2019 के अंक) में कृष्ण जन्माष्टमी से संबंधित
जानकारी दी है यह भी सांस्कृतिक चेतना के प्रसार का उदाहरण ही है।
आज भाषा, संस्कृति और तथ्यों की बजाय बाजार और आर्थिक समीकरणों पर
जोर दिया जाने लगा लगा। ऐसे में यदि पत्रकारिता में सांस्कृतिक चेतना का ह्रास
होने लगा तो यह कोई हैरानी का विषय नहीं है। देश के प्रमुख मीडिया संस्थान सांस्कृतिक
समाचारों और विचारों को बाजारवादी चश्में से देखने लगे। कई मीडिया संस्थान तो
भारतीय संस्कृति और परंपरा के विरोध में ही निरंतर उवाच करते रहते हैं। ऐसा नहीं
है कि पाठक संस्कृति और परंपरा को नहीं देखना और समझना चाहता है बल्कि ये उसे
पश्चिमी अवरस देकर ही परोसना चाहते हैं जिससे इनकी प्रसिद्धि हो सके। जो देखने में
अच्छा लगे और ग्लैमरस हो और यह सब कुछ पाठकों को पसंद हो यही छापने की पद्धति पर
ज़ोर दिया जाने लगा। धीरे-धीरे यही पाठको की पसंद बनती चली गयी।ऐसा भी एक समय था जब
पाठकों के विरोध पर इंडिया टुडे को अश्लील
चित्रों के प्रकाशन रोकना करना पड़ा था। आज पाठकों की वैसी चिंता शायद ही कोई
मीडिया संस्थान करता हो।
बहरहाल एक ओर हम जहां यह पाते हैं कि आज के मीडिया जगत में
काफी गिरावट आई है और सांस्कृतिक चेतना से संबन्धित समाचारों और विचारों के
प्रकाशन की गति धीमी हुई है वहीं जनमाध्यमों द्वारा सांस्कृतिक पक्ष जैसे यात्राएं, मेले, स्नान, कुंभ उत्सव, पूजा पद्धति आदि का वैश्विक विस्तार भी हुआ है।
समाचार-पत्रों का तौर-तरीका, कार्यशैली और चलन सब कुछ परंपरागत मीडिया से बिल्कुल अलग और
अनोखा दिखाई देने लगा है।
विचारणीय लेख।पठनीय भी।शुभेक्षा।
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