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सोमवार, 1 दिसंबर 2014

इंसान...

इंसान...
दिन कटता है मांगकर खाने में
रात कटती है कराह कर
दिन में तो अधनंगे कट जाता है
रात कटती है सोने में
दिन में तो रहते हैं भिखारी
रात को हम बन जाते हैं शराबी
पर समान होती हैं ऋतुयें,
गर्मी कटती है हाँफकर
सर्दी कटती है तापकर
वर्षा कटती है भीगकर
विश्वास नहीं होता कि
हम हैं कौन
इंसान या कोई और
और हैं तो क्यों है
यहाँ इस धरा पर
एक बोझ बनकर।  

          ‘रामशंकर

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