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सिनेमा और मीडिया शोध : चुनौतियाँ व संभावनाएं
अध्येता
प्रभात
कुमार
एम. फिल. जन
संचार
पूर्व
छात्र, महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय,
चित्रकूट, सतना (म.प्र.)
वर्तमान युग में सिनेमा का
महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि जैसे-जैसे
विज्ञान और तकनीकी का विकास हुआ है, मानव-जीवन जटिल होता चला गया है। इस यांत्रिकी युग में मनुष्य के स्वयं को
सभ्य बनाने और समाज में प्रतिस्थापित करने के प्रयास में जीवन का आधार-तत्त्व ‘आनन्द’ कहीं पीछे छूट गया है और मनुष्य मानसिक
रुग्णता का शिकार होता जा रहा है। परन्तु अपनी बौधिक क्षमताओं के आधार पर मनुष्य
ने इसका समाधान भी यांत्रिकी में ही खोज लिया है। सहस्राब्दियों पूर्व मनोरंजन के
लिये विकसित नट-मंडलियों का रूप आज सिनेमा ने ले लिया है। सिनेमा आज हमारे समाज
में घुल-मिल गया है।
जीवन की व्यस्तताओं के चलते आज़ मानव साहित्य, शिल्प, कला, रंगमंच, संगीत, नृत्य आदि आनन्द-प्रदाता गतिविधियों को नियमित समय नहीं दे पा रहा है। इस समस्या के समाधान में सिनेमा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ‘डॉo स्मित मिश्र’ के शब्दों में, “दरअसल फिल्म जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है। किंतु यह अन्य कलाओं से भिन्न है। इस कला-माध्यम में अन्य तमाम कलाओं का सन्निवेश होता है- लेखन, अभिनय, नाट्य,संगीत,नृत्य,शिल्प।”1
जीवन की व्यस्तताओं के चलते आज़ मानव साहित्य, शिल्प, कला, रंगमंच, संगीत, नृत्य आदि आनन्द-प्रदाता गतिविधियों को नियमित समय नहीं दे पा रहा है। इस समस्या के समाधान में सिनेमा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ‘डॉo स्मित मिश्र’ के शब्दों में, “दरअसल फिल्म जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है। किंतु यह अन्य कलाओं से भिन्न है। इस कला-माध्यम में अन्य तमाम कलाओं का सन्निवेश होता है- लेखन, अभिनय, नाट्य,संगीत,नृत्य,शिल्प।”1
भारत देश के समाज की
अंतर्धारा का उत्स कला और धर्म है। खेल और सिनेमा इसी अंतर्धारा की अभिव्यक्तियां हैं। इस देश की राजनीति और अकादमिक
बौध्दिकता पर अंग्रेजी राज का प्रभाव अब भी है लेकिन इसके समाज,खेल,सिनेमा
एवं उद्यमशीलता पर उपनिवेशवादी
प्रभाव का क्षरण हो चुका है। इसमें भारत के स्वतंत्रता संग्राम (1857 से 1947) की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1913 से ही भारतीय सिनेमा इस आंदोलन का सांस्कृतिक
आयाम रहा है। फिर हॉकी और क्रिकेट में भी राष्ट्रवादी रूझान सामने आया। गाँवों और छोटे
शहरों की अंतर्धारा अंग्रेजी राज में भी अक्षुण्ण बनी हुई थी। अंग्रेजों का
सबसे ज्यादा प्रभाव अंग्रेजी पढ़े मध्यमवर्ग और महानगरों के निवासियों पर रहा है। इन
महानगरों का विकास भी अंग्रेजी राज में ही हुआ था। कुल मिलाकर
उपनिवेशवादी विरासत का अंतिम खंडहर इस देश की राज्य
व्यवस्था और राजनीति द्वारा पोषित संस्थाओं
में अब भी कायम है। यह तो इस देश का सौभाग्य है कि यह अपने अंतर्विरोधों के बावजूद सत्ता और सरकार से निरपेक्ष होकर आनंद में
रहता है। प्रकृति ने भारत को अपने में आनंद से रत्त स्वायत्त ईकाई बनाया था जिसमें तीन तरफ से समुद्र और एक तरफ से पहाड़
था।
व्यावसायिक दृष्टि से भी
सिनेमा का क्षेत्र महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सिनेमा-निर्माण के साथ ही
सिने-मीडिया के क्षेत्र में भी व्यवसाय के असीम अवसरों के साथ-साथ कला से सीधे
जुड़े रहने का अवसर रहता है। परन्तु स्थिति इसके विपरीत है। आज़ भी भारतीय
हिन्दी-सिनेमा और सिने-मीडिया में साहित्यकारों का बहुत अभाव है। ‘फिल्म-साहित्य की विडम्बना’ निबन्ध में ‘विजय अग्रवाल’ लिखते
हैं, “दुर्भाग्यवश हमारा समाज सिनेमा के प्रभाव को स्वीकारने
के बावजूद उसकी उपेक्षा करता है। उसने इसे कभी गंभीर माध्यम के रूप में लिया ही
नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण फिल्म लेखन, नायक-नायिका
के जीवन-प्रसंगों के इर्द-गिर्द घूमने लगा। फिल्म पत्रिकाओं की स्थिति पौष्टिक
भोजन की जगह ‘चना जोर गरम’ वाली होती
चली गई, और आज तो यह चटपटापन केवल दिमाग को ही नहीं, बल्कि आँखों को भी खुले आम सुलभ है।”2 साहित्यकार
और समीक्षक वर्ग को इसका उत्तरदायी ठहराते हुए वे पुनः लिखते हैं,“यदि गिने-चुने कामों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश
फिल्म समीक्षकों एवं लेखकों ने भी फिल्म-लेखन को अपनी रचना-धर्मिता के सह- उत्पाद(बाइप्रोडक्ट)
के रूप में ही लिया है।”3 इसका कारण देते हुए भी वे
फिल्म-लेखन (फिल्म-समीक्षा-लेखन) से जुड़े समीक्षक वर्ग को ही कटघरे में खींच लाते
हैं,“वस्तुतः विज्ञापन की बैशाखी पर खड़ी फिल्म-जगत की सफलता
ने फिल्म-लेखन को अपनी गिरफ्त में लेकर फिल्म-साहित्य का सबसे अहित किया है। लेकिन
इसके लिए फिल्म निर्माण से जुड़े लोग इतने दोषी नहीं हैं, जितने
फिल्म-लेखन से जुड़े लोग हैं।”4 साहित्यकार और समीक्षक वर्ग
द्वारा एक दीर्घ कालावधि तक उपेक्षा का शिकार रहा हिन्दी सिनेमा अपनी आधिकारिक
स्थिति तक नहीं पहुंच पाया।
साहित्यकार और समीक्षक वर्ग
की इसी उपेक्षा को चित्रित करते हुए ‘विनोद भारद्वाज’ साहित्यकार के उत्तरदायित्व को
स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, “किसी भी भाषा में किसी विषय से
जुड़ी पत्रकारिता या समीक्षात्मक लेखन तभी आगे आ सकता है, जब
साहित्य और भाषा से जुड़े लोग उसमें दिलचस्पी दिखाएँ तथा उस विषय के तकनीकी पक्ष
और तंत्र के निकट सम्बन्ध बनाने का माहौल है। हिन्दी में इन्हीं बातों की कमी रही
है। एक लम्बे समय तक हिन्दी साहित्यकार फिल्म को दूसरे दर्जे की विधा के रूप में देखते
रहे। फिल्म से उनका सम्बन्ध रहा भी तो व्यावसायिक किस्म का।”5 हिन्दी साहित्यकार वर्ग द्वारा सिनेमा की उपेक्षा के विषय में ‘वृंदावन लाल वर्मा’ कहते हैं, “हिन्दी भाषा के लेखक हिन्दी सिनेमा के कलात्मक चरित्र के विकसित होने में अपना
अमूल्य कलाबोध निवेशित नहीं कर पाए।”6 साहित्यकार वर्ग की
उपेक्षा के साथ-साथ ही सिनेमा को समीक्षक वर्ग की उदासीनता का भी सामना करना पड़ा
है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने सिनेमा की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास तो किया,
परन्तु उनका समीक्षात्मक दृष्टिकोण संकीर्णता से ग्रसित रहा। अपने
समीक्षात्मक लेखों में इन्होंने सिनेमा की चामत्कारिकता का चित्रण तो किया,
परन्तु कला पक्ष पर अधिक नहीं लिख पाए। इसका सबसे बड़ा कारण है कि
वे सिनेमा की प्रस्तुतियों को घटनाओं के रूप में ही देख पाए। कोई समीक्षक किसी
फिल्म को एक बार देख कर ही उसकी समीक्षा लिखने बैठ जाए तो यह कैसे सम्भव हो सकता
कि वह अपनी समीक्षा के प्रति पूर्ण न्याय कर पाएगा। ऐसा कर, समीक्षकों
ने सिनेमा के कलात्मक रूप को आत्मसात न करते हुए उसके विकृत रूप को ही प्रस्तुत
किया, जिससे सिनेमा के हित की अपेक्षा अहित ही हुआ है।
सिनेमा और समीक्षकों के आधार पर चर्चा करते हुए ‘फिरोज
रंगूनवाला’ लिखते हैं, “सन् 1951
में ‘स्क्रीन’ के
प्रकाशन के साथ फिल्म पत्रिका के ऊँचे मानदण्ड स्थापित हुए। ‘फिल्मफेयर’ ने इस परम्परा को कुछ समय तक बरकरार रखा,
लेकिन बाद में अपनी विश्वनीयता खो देने के बाद यह पत्रिका न इधर की
रही न उधर की। इन उत्कृष्ट फिल्म पत्रिकाओं के साथ कुछ सैकेण्डलबाज पत्रिकाएं भी
पनपती रही, जिन्होंने आज कलाकारों और लेखकों के बीच विद्वेषपूर्ण
स्थिति पैदा कर दी है।”7 सिनेमा और साहित्यकारों के मध्य
दूरी का एक और कारण सिनेमा का व्यावसायिक रूप भी रहा है। फिल्म-निर्माण में अत्यधिक
लागत आती है। ऐसे में फिल्मकारों को बाज़ार का पूरा ध्यान रखना पड़ रहा है। सिनेमा
को अब तक साहित्य से इतर अलग-थलग विधा के रूप में देखा जाता रहा है। परिणाम स्वरूप
साहित्यकार पठकथा लेखन और सिने-निर्माण कला से अपरिचित हैं और उनको सिने निर्माता
या निर्देशक के अनुरूप लेखन करना पड़ता है। अपने पास उपयुक्त सुझाव होने पर भी वे
उसे सिनेमाई भाषा में व्यक्त करने में असमर्थ होते है। इस प्रकार लेखक की मौलिकता का
हनन ही साहित्यकारों को सिनेमा से दूर करता है।
सिनेमा में साहित्यकारों की इसी निजता और
मौलिकता के हनन पर चर्चा करते हुए ‘कमलेश्वर’ लिखते हैं, “अधिकांशतः
फिल्मों में व्यावसायिक रूप से लेखन की परम्परा रही है। अर्ध-स्वतंत्र और
अर्ध-परतंत्र लेखन की परम्परा भी रही है, जिसने कथा, पटकथा और संवाद लेखक के हो सकते हैं-परन्तु उनका विषयगत भरा व व्यावसायिक दृष्टि
से होता है।”8 साहित्कारों के अभाव में भाषा भी सिनेमा से
मुँह मोड़ रही है। हिन्दी सिनेमा के व्यावसायिक पक्ष और भाषा एंव पत्रकारिता पर
चर्चा करते हुए ‘विनोद भारद्वाज’ लिखते
हैं, "तथाकथित हिन्दी सिनेमा, सचमुच
हिन्दी का सिनेमा बहुत कम हो पाया है। हिन्दी में फिल्में इसलिए बनती रही कि सारे देश
में बाजार आसानी से मिल जाता है।”9 इसके कारणों पर चर्चा करते हुए वे पुनः लिखते हैं, ‘‘एक तो हिन्दी फिल्में मुख्यतः बंबई (वर्तमान मुम्बई) में बनती हैं,
दूसरे व्यावसायिक सिनेमा का इतना जबरदस्त आतंक रहा है कि सिनेमाघरों
की कमी के कारण, अच्छी या गंभीर कही जाने वाली फिल्मों को
बनने के बाद डिब्बे में ही बंद रहना पड़ा है। कोई फिल्म बन भी जाए तो उसे दिखाया
कैसे जाए। इन बातों का फिल्म-पत्रकारिता पर गहरा असर पड़ता है। अच्छी फिल्म पत्रकारिता
का विकास अच्छी फिल्मों से जुड़ा है। जब अच्छी फिल्में ही नहीं हैं, तो अच्छी फिल्म पत्रकारिता कैसे जन्म लेगी।”10
हिन्दी सिनेमा जहाँ
साहित्यकारों और समीक्षकों की उपेक्षा के कारण विकसित नहीं हो पाया वहीं पाश्चात्य
सिनेमा के विकास में वहाँ के साहित्यकारों और समीक्षकों का बहुत योगदान रहा।
पाश्चात्य समीक्षकों ने सिनेमा की शक्ति को पहचाना और अपनी कलम के माध्यम से उसके उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। ‘अनुपम औझा’ हिन्दी-सिनेमा
में साहित्यकारों की भूमिका के संदर्भ में लिखते हैं, “फिल्म
लेखन के इस क्षेत्र में हिन्दी के आगा हश्र कश्मीरी, प्रेमचंद,
सुदर्शन, उपेन्द्रनाथ अश्क, राधाकृष्ण, अमृतलाल वर्मा, भगवतीचरण
वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, सत्येन्द्र
शरत्, मनोहर श्याम जोशी, नीरज, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, डॉo
धर्मबीर भारती, विष्णु प्रभाकर, फणीश्वरनाथ रेणू आदि भी आए, पर वे एक क्षणिक गरिमा लेकर
आए। लेखकों ने फिल्मों से वापस जाने का रास्ता खोला।”11 इसके
विपरीत अंग्रेजी सिनेमा के विकास में साहित्यकारों और समीक्षकों के योगदान पर
चर्चा करते हुए वे लिखते हैं,“अंग्रेजी सिनेमा को ग्राहम
ग्रीन, जार्ज वर्नार्ड शो, हेमिंग्वे,
विलियम फाकनर, आर्सन वेल्स, सामरसेट माम जैसे दिग्गजों ने एक दर्जा देकर, और
फिल्म-लेखन में सम्मिलित होकर, रचनात्मक प्रोफेशनल लेखकों की
एक संस्कारशील जमात खड़ी कर दी, जिसने पश्चिमी सिनेमा के
सांस्कृतिक कथ्य और सार्थक प्रतिवाद का माध्यम बना दिया।”12 हिन्दी
सिनेमा और साहित्यकारों के विरोधाभास को चित्रित करते हुए वे पुनः लिखते हैं,“एक तो हिन्दी प्रदेश का अपना कोई सिनेमा कहीं नहीं रहा, फिर हिन्दी के लेखक के अपने स्वभाव जन्य शुद्धतावादी नजरिए ने भी सिनेमा के
साथ छुआछूत वाले रिश्तों को ही तरजीह दी।”13
निष्कर्ष-
हिंदी फिल्मों ने हमें
सिर्फ इन्टरटेन ही नहीं किया है । आम आदमी की ज़िन्दगी से जुड़े मुद्दों को भी
फिल्मों में खूब दिखाया है । समाज में बदलाव
तभी आ सकता है । जब हम सब अपने अधिकारों के बारे में
जानते हों । फिल्मों के जरिये कोई भी बात बहुत जल्दी और
दूर तक पहुंचाई जा सकती है । यही वज़ह है कि फिल्मों
में गानों में यह विषय काफी दिखा तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद
है इंसान बनेगा ये कोई साहित्यिक पंक्ति नहीं बल्कि एक हिंदी फिल्म का गाना है एक
और बानगी देखिये हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेगे एक खेत नहीं एक
बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेगे , इंसान का इंसान से हो
भाईचारा यही पैगाम हमारा , "ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया ये
इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया ये दुनिया अगर
मिल भी जाए तो क्या है "। ऐसे एक नहीं सैकडों उदाहरण मिल जायेंगे जिससे पता चलता है कि हमारा फिल्म
मीडिया जागरूक और सज़ग है वैसे ह्युमन राईट्स का युनिवर्सल दिक्लारेसन (Universal
declaration) बहुत बाद में आया लेकिन हमारी फिल्मों में
मानवाधिकार से जुड़े कथानक हमेशा से प्रभावी भूमिका निभाते रहे ।1932
में बनी चंडीदास और अछूत कन्या में
छुवाछूत जैसे विषय को कहानी का मुख्य आधार बनाया गया. 1936
में जे बी एच वाडिया द्वारा
हिन्दू मुस्लिम एकता पर सबसे पहली फिल्म जय भारत का निर्माण किया गया 1936 में प्रभात कंपनी ने दुनिया न
माने फिल्म बनाई जिसका विषय बेमेल विवाह था ।
1938 में वी शांताराम ने पड़ोसी बनाई जो
सांप्रदायिक सदभाव जैसे संवेदनशील विषय पर बनी थी .आज़ादी के बाद फिल्मों में
प्रयोग तो हुए लेकिन इनकी संख्या कम ही रही इसके लिए फिल्मकारों की सोच से ज्यादा
बाज़ार का अर्थशास्त्र और और दर्शकों की मानसिकता भी कम जिम्मेदार नहीं थी .मानवाधिकारों
को फिल्म का विषय बनाने में बिमल रॉय का प्रगतिशील नजरिया पचास के दशक को ख़ास
बनाता है जिनमे दो बीघा जमीन , नौकर , सुजाता , परख
और बिराज बहू जैसी फ़िल्में शामिल हैं । मदर इंडिया , दो
आँखें बारह हाथ और गरम कोट जैसी फ़िल्में आज भी हमारे फिल्मकारों को प्रेरणा देती
हैं सस्ती तकनीक , इन्टरनेट और शिक्षा का फैलाव इन सब ने मिलकर
नब्बे के दशक में एक ऐसा कोकटेल तैयार किये जिससे फ़िल्में थोड़ी और ज्यादा
वास्तविकता के करीब आयीं मल्टी प्लेक्स कल्चर के बढ़ने से निर्माता रिस्क ज्यादा
ले सकते हैं जिससे ज्यादा एक्स्परीमेंटल फ़िल्में बन रही हैं । सस्ती तकनीक , इन्टरनेट
और शिक्षा का फैलाव इन सब ने मिलकर नब्बे के दशक में एक ऐसा कोकटेल तैयार किये
जिससे फ़िल्में थोड़ी और ज्यादा वास्तविकता के करीब आयीं मल्टी प्लेक्स कल्चर के
बढ़ने से निर्माता रिस्क ज्यादा ले सकते हैं जिससे ज्यादा एक्स्परीमेंटल फ़िल्में
बन रही हैं कामर्शियल सिनेमा की अफरा तफरी के बीच आज भी सोशल इस्सुअस पर बेस
फ़िल्में भी खूब बन रही है । साहित्य
मीडिया लेखकों और सिनेमा की दूरियों साहित्यकारों एवं मीडिया लेखकों के प्रति
अरुचि के संदर्भ में कमलेश्वर लिखते हैं,“भारतीय सिनेमा की इस स्थिति के लिए अपने समकालीन लेखकों को दोषी मानता
हूँ- खासतौर से हिंदी लेखकों को दोषी मानता हूँ। क्षेत्रीय सिनेमा के पास अपने
साहित्यिक लेखक हैं, पर हिन्दी सिनेमा में हिन्दी लेखकों का अकाल
है।”14 उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी
सिनेमों में साहित्यकारों और समीक्षकों का सदा अभाव रहा है और यह अभाव सिनेमा को
साहित्य और समीक्षा; दोनों विधाओं से विलग किए हुए है।
साहित्यकार और समीक्षक वर्ग सिनेमा की शक्ति को पहचानने के बावज़ूद भी साहित्यिक
अहंकार और संकुचित सोच के कारण, इस नए माध्यम को आत्मसात
करने से घबरा रहा है। यह वर्ग यह भूल जाता है कि सम्यक् सांस्कृतिक परिवर्तन के
लिए शक्तिशाली कलामाध्यमों का इस्तेमाल जरूरी है। अतः जब तक साहित्यकारों और
मीडिया समीक्षकों का ध्यान इस क्षेत्र की और नहीं जाएगा, तब
तक सिनेमा की वास्तविक शक्ति से हम अपरिचित रहेंगें और सिनेमा के विकास के साथ-साथ
साहित्य और मीडिया को भी समान लाभ मिलेगा।
संदर्भ सूची
1.
डॉo स्मित मिश्र; भारतीय मीडिया
:अंतरग पहचान; पृ॰172, भारत पुस्तक भंडार, दिल्ली-94, सं॰2008
2.
विजय
अगग्रवाल; फिल्म साहित्य की विडंबना; सिनेमा की संवेदना; पृ॰104 प्रतिभा
प्रतिष्ठान, नई दिल्ली-02, सं॰ 1995
3.
वही; पृ॰104
4.
वही; पृ॰ 104
5.
विनोद भारद्वाज; नया सिनेमा; सिनेमाः एक
समझ; पृ॰16; मध्यप्रदेश फिल्मनिगम, भोपाल; सं॰1993
6.
वृंदावन
लाल वर्मा; सिनेमा को काली मैया
उठा ले जाएँ; समकालीन सृजन अंक17, पृ॰13
7.
फिरोज रंगूनवाला; फिल्म पत्रकारिता विवाद ही विवाद; पटकथा; फिल्म-वार्षिकी-1993; पृ॰187
8.
कमलेश्वर, उसके बाद(पटकथा); पृ॰56; राजपाल एंड संस, दिल्ली,सं॰ 1986
9.
विनोद भारद्धाज; नया सिनेमा; सिनेमाः एकसमझ; पृ॰16; मध्य प्रदेश फिल्म निगम, भोपाल; सं॰1993
10. वही; पृ॰16
11. अनुपम औझा; भारतीय
सिने-सिद्धांत; पृ॰196; राधाकृष्ण प्रकाशन
प्रा॰लि॰, दिल्ली-51; सं॰2002
12. वही; पृ॰196
13. वही; पृ॰ 197
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