कुपोषण से कराहता विदर्भ का मेलघाट
महाराष्ट्र के विदर्भ में अमरावती जिले का मेलघाट आदिवासी है, इस क्षेत्र में 1993 से अभी तक कुपोषण व भुखमरी से लगभग 10 हजार 252 नौनिहालों की मौत हो चुकी है। यह आधिकारिक आंकड़े हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति इससे भी कई गुना
बदतर व बदहाल है। अगर अधिकारिक आंकड़े की
पड़ताल की जाए तो यहां प्रतिवर्ष 710 से 1000 बच्चे भूख से मर जाते हैं। साल 2007-08 में जहां सबसे कम 447 बच्चे मारे गए वहीं 1996-97 को सबसे ज्यादा 1050 बच्चों को मौत के मुंह में जाना पड़ा। एक
सर्वे के मुताबिक मेलघाट में कुपोषण के लिए 300 से ऊपर गैर सरकारी संथाएं काम कर रही हैं, 16 सरकारी योजनाएं चल रही है और सैंकड़ो रूपए खर्च किए जा रहे हैं| लेकिन बावजूद इसके बच्चों की शव में परिवर्तित करने का सिलसिला थमने का नाम
नही ले रहा है।
सभ्यता
और आधुनिकता का दावा व दंभ भरने वाला हमारा समाज कितना पीछे है, ये मेलघाट में कुपोषण से मरने वाले बच्चों
का आंकड़ा ही बताता है। सरकारी योजनाओं और रोकथाम में लापरवाही पर ही प्रश्नचिह्न नहीं लगाते
बल्कि आज के सभ्य समाज पर भी एक बड़ा सवाल उठाते हैं कि आखिर
क्यों इस आधुनिकता में कुछ ही समुदाय शामिल हैं। सभी
क्यों नहीं? मेलघाट के इन आदिवासियों के लिए कुपोषण अभिशाप बनता जा रहा है। यहां कई
ऐसे गांव हैं जहां बजली तो दूर सड़क तक नहीं है। यहां शिक्षा न होने के कारण लोगों
में अंधविश्वास और फरेबी चरम पर है। हलांकि स्वास्थ्य अधिकारियों का दावा है कि वो अपना काम
बखूबी कर रहे हैं। स्वास्थ्य अधिकारी खुद ही योजनाओं पर सवालिया निशान खड़े कर
रहे हैं|
उनकी मांनें तो बच्चों को पोषक आहार के तौर पर खिचड़ी दी
जाती है लेकिन बच्चों की हालात का जायजा लेने पिछले 2 सालों से कोई भी स्वास्थ्य अधिकारी नहीं आया। लोगों
में शिक्षा न होने के कारण बेरोजगारी है इसलिए उपचार नही हो पाता, यहां के लोगों का कहना है कि उपचार के अभाव में बच्चों की
मौत हो रही है। महाराष्ट्र सरकार करोड़ो रूपये के खर्च का दावा करती है,
16 सरकारी योजनाएं चल रही है और 350 गैर सरकारी संस्थाएं काम कर रही है इतना सब होने बावजूद
बच्चों की मौत हो रही है।
मेलघाट जैसे कुपोषण ग्रस्त इलाकों में राज्य सरकार को जो जिम्मेदारी
बनती है वो अब तक पूरी नहीं हुई है। समय से इन आदिवासी लोगों के भविष्य अंधकारमय हैं इसके लिए
जितना स्वास्थ्य विभाग जिम्मेदार है उतना ही उनका पिछड़ापन भी, मेलघाट
का ये कुपोषण आज पूरे समाज के लिए चुनौती बन गया है। भारत का 58 फीसदी रोजगार कृषि से जुड़ा हुआ है और महज आठ फीसदी रोजगार
प्रशासन, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा के क्षेत्रों में है। ऐसे में कृषि से सरकार की
विमुखता देश में जीवन स्तर के गिरावट का ही संकेत देती है। इसके बावजूद गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों या फिर
भूमिहीनों, जो
कृषि से संबद्ध नहीं हैं, उनकी स्थिति को सुधारा जा सकता है। यदि देश में भोजन सामग्री वितरण प्रणाली को
ठीक कर दिया जाए तो ऐसा संभव है, पर न्यायपालिका के आदेश को लेकर अभी विधायिका व देश के
प्रमुख नेताओं ने जिस तरह की टिप्पणी की, उससे यही लगता है कि देश की सरकार शक्तिशाली होने का गौरव
और देश में भुखमरी दोनों को साथ में रखना चाहती है। देश में लगभग 50.2 मिलियन टन खाद्यान्न का भंडारण हो चुका है, जिसमें 50 फीसदी हिस्सा दो साल पुराना है, जबकि सरकार के पास भंडारण क्षमता इसकी आधी है। इसके बावजूद
गरीबों को अनाज न वितरित करना यही संदेश देता है कि सरकार विकास की उर्द्धोधर तस्वीर
से ही देश की तस्वीर बनाना चाहती है। निश्चित तौर पर देश में गरीबी व गरीबों को
लेकर जो रिपोर्ट राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय आधार पर प्रस्तुत की जाती है, सबका संबंध यथार्थ से नहीं बल्कि एक ऐसे आधार से है, जिससे निहित स्वार्थो को प्रचारित किया जा सके।
(लेखक- रामशंकर, महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में जनसंचार
विषय में शोधार्थी हैं। )
विदर्भ की समस्याओं से संबन्धित जानकारी देने का अच्छा प्रयास है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मनोज जी
हटाएंकम से कम अब तो सरकार जाग ले & तमाम देशवासि
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