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सोमवार, 11 मई 2015

माध्यमिक शून्यवाद के प्रणेता : आचार्य नागार्जुन

माध्यमिक शून्यवाद के प्रणेता : आचार्य नागार्जुन
रामशंकर विद्यार्थी
ICSSR डॉक्टोरल रिसर्च फ़ेलो,
म्हटमा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा

नागार्जुन बौद्धाचार्य (जन्म -150; मृत्यु -लगभग 250 ई) भारतीय बौद्ध भिक्षु-दार्शनिक और माध्यमिक (मध्य मार्ग) मत के संस्थापक, जिनकी शून्यता’ (ख़ालीपन) की अवधारणा के स्पष्टीकरण को उच्चकोटि की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि माना जाता है। बाद के कई बौद्ध मतों ने उन्हें प्राधि-धर्माध्यक्ष माना। दो मौलिक रचनाएं, जो काफ़ी हद तक उनकी हैं और संस्कृत में उपलब्ध रही- मूलमाध्यमिका कारिका (सामान्यत: माध्यमिका कारिका के रूप में जानी जाती) तथा विग्रहव्यवर्तिनी हैं, जो अस्तित्व की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन और यथार्थ के स्वरूप पर विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण हैं।
नागार्जुन की जीवन कथा का आंरभिक विवरण चीनी भाषा में उपलब्ध है, जिसे क़रीब 405 ई. में प्रसिद्ध बौद्ध अनुवादक कुमारजीव ने उपलब्ध कराया। यह अन्य चीनी एवं तिब्बती वृत्तांत से सहमत हैं कि नागार्जुन दक्षिण भारत में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। ऐतिहासिक रूप से बचपन की उनकी कथाएं विवादास्प्रद हैं, लेकिन यह संकेत देती हैं कि उनके पास असाधारण बौद्धिक क्षमता थी तथा जब उन्होंने महायान बौद्ध धर्म के सिद्धांतों, जो इस समय पूर्वी एशिया में प्रचलित हैं, के गहन अर्थों को समझा, तब उनमें आध्यात्मिक परिवर्तन हुआ। कुमारजीव के वृत्तांत के अनुसार, नागार्जुन द्वारा बौद्ध धर्म के कुछ मूल विचार कुछ असंतुष्टि से सीखने के बाद एक 'महानाग बोधिसत्व' पर ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर एक प्रमुख नागराज[1] ने दया दिखाई तथा उन्हें अत्यंत गूढ़ महायान श्लोकों के बारे में बताया। नागार्जुन ने कुछ ही समय में इनमें प्रवीणता हासिल की तथा भारत में सफलतापूर्वक सत्य (धर्म) का प्रचार किया और कई विरोधियों को बौद्धिक-दार्शनिक शास्त्रार्थ में परास्त किया। अनुश्रुत वृतांत यह भी संकेत देते हैं कि वह काफ़ी लंबी उम्र तक जिए तथा इसके बाद उन्होंने अपने जीवन का अंत करने का निर्णय लिया। विभिन्न वृत्तांत नागार्जुन के विभिन्न धार्मिक गुणों का वर्णन करते हैं तथा उनके जीवन का कालांकन 500 से अधिक वर्षों के दायरे में करते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि उपलब्ध संदर्भ कई व्यक्तियों के बारे में हो सकते हैं तथा इनमें कुछ काल्पनिक वृत्तांत भी शामिल होंगे। फिर भी नागार्जुन की जीवनी के विभिन्न तत्वों की पुष्टि एतिहासिक साम्रग्री से होती है। वर्तमान विद्वान संकेत देते हैं कि नागार्जुन 50 ई. और 280 ई. किसी अवधि में रहे होंगे। एक आम राय के मुताबिक़, उनका कालांकन 150-250 ई. है। कुछ पुरातात्विक सबूत : उनके द्वारा सातवाहन वंश के एक राजा, संभवत: यज्ञश्री (173-202) को लिखा एक पत्र (सुहारिल्लेख, ‘मैत्रिपूर्ण पत्र’) इस दावे की पुष्टि करता है कि वह दक्षिण भारत में रहते थे।
नागार्जुन माध्यमिक दर्शन के प्रतिष्ठापक और महायान बौद्ध दर्शन के प्रमुख आचार्य थे। भगवान बुद्ध ने शाश्वत और उच्छेद, सत् और असत्, भाव और अभाव इन दो अन्तों के बीच चलने का उपदेश दिया था। नागार्जुन ने तथागत द्वारा उपदिष्ठ इस मध्यम मार्ग की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की और बौद्ध परम्परा में प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत का दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत कर जगत को सापेक्ष, फलत: अनुत्पन्न, नि:स्वभाव और स्वभाव शून्य बताते हुए शून्यता के सिद्धांत को शास्त्रीय दृष्टि से प्रस्तुत किया। नागार्जुन ने जीवन एवं उनकी तिथि के विषय में कई प्रकार के प्रवाह और मत प्रचलित हैं। उन मतभेदों का विशद विवरण तो यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु उनके विषय में लंकावतारसूत्र, महामेघसूत्र, महामेरीसूत्र और मज्जुश्रीमूलकल्प में भविष्यवाणियाँ उपलब्ध होती हैं। सभी प्राणियों और परम्पराओं की समीक्षा से ज्ञात होता है कि भारतीय परम्परा में माध्यमिक दर्शन, रसेश्वर दर्शन, तन्त्र तथा आयुर्वेद से सम्बन्ध नागार्जुन नामधारी चार आचार्य हुए। इनमें प्राचीनतम बौद्ध नागार्जुन ही थे, जिनकी तिथि प्राय: ईसवी सन दूसरी शताब्दी के आस पास मानी गयी (146 – 217 ई.) है।
प्रभाव एवं रचनाएं
नागार्जुन का प्रभाव बौद्ध धर्म के माध्यमिक मत के अनुयायियों के ज़रिये जारी रहा। उनकी दार्शनिक स्थितियों की विवेचनात्मक पड़ताल तथा उपदेशात्मक व्याख्या का अध्ययन अब भी कई पूर्वी एशियाई मतों में चीनी बौद्ध धर्मशास्त्र (ता-त्सांग चिंग) के अंग के रूप में किया जाता है। इसी प्रकार तिब्बती बौद्ध धर्मशास्त्र के अंग की तरह बस्तान-ग्यूर में 17 माध्यमिका शोध प्रबंध हैं। इनमें से सभी प्रबंधों का श्रेय नागार्जुन को नहीं दिया और पारंपरिक तौर पर जिनका श्रेय उनको दिया जाता है, संभवत: वे भी उन्होंने नहीं लिखे हैं।
दो मूल रचनाएं, जो काफ़ी हद तक उनकी हैं, इस समय संस्कृत में उपलब्ध हैं; वे हैं- मूलमाध्यमिकाकारिका (माध्यमिका कारिका,’ मध्यम मार्ग के मूल सिद्धांत’) और विग्रहव्यवर्तनी (वाद-विवाद का निवारण), दोंनो सत्ता की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन, तथा यथार्थ के स्वरूप के बारे में असत्य विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण है। जिन तीन महत्त्वपूर्ण, माध्यमिका रचनाओं का श्रेय नागार्जुन को दिया जाता है वे वर्तमान में केवल चीनी भाषा में उपलब्ध हैं, ता-चिह-तू-लुन (महाप्रज्ञपारमिता-शास्त्र, 'प्रज्ञा शोध प्रबंधों की महान पराकाषठा'), शी-चू-पी-पा-शा-लुन (दशमूमि-विभाष-शास्त्र, ’10 स्तरीय ग्रंथों की आभा'), तथा शिन-एर्ह-मेन-लुक (द्वादश-द्वार {निकाय} -शास्त्र, '12 प्रवेश मार्ग ग्रंथ') निम्नलिखित रचनाएं केवल तिब्बती धर्मशास्त्र में मिलती हैं तथा कई विद्वान इन्हें नागार्जुन की रचनाएं मानते हैं : रिग्स पा द्रग का पाही त्सिग लेहुर व्यास पा शेस ब्या बा (युक्ति-षष्टिका, 'संयोजन पर 60 छंद'), तोन पा निद दुन कु पाही त्सिग लेहूर ब्यास पा शेस ब्या बा (शुन्यता-सप्तति, 'शून्यता पर 70 छंद') और शिब भो नम्पर ह्तग पा शेस ब्या बहि म्दो (वैदालया-सूत्र, 'वैदालया श्रेणी का पवित्र ग्रंथ')
माध्यमिक विश्लेषण के श्लोकों के अलावा तिब्बती अनुश्रुति ने कई तांत्रिक (जादुई) एवं चिकित्सा रचनाओं का श्रेय किसी 'नागार्जुन' को दिया है। बाद की भारतीय रचनाओं में नागार्जुन नाम के एक महान सिद्ध या तांत्रिक का ज़िक्र है, जिन्होंने तांत्रिक आचरण, यानी चमत्कारी मंत्रों एवं मंडलों की मदद से जादुई शक्तियां प्राप्त की तथा नियंत्रित आहार और औषधि से अस्तित्व की अभौतिकीय अगत तक पहुंचे। इन कथाओं के साथ एक शक्तिशाली कीमियागर की कहानी भी संबद्ध है, जिन्होंने अन्य उपलब्धियों के आलावा अमरता का अमृत खोज निकाला था। ठोस ऐतिहासिक आंकड़ों के अभाव तथा परस्पर विरोधी वृत्तांतों दूसरी सदी के इस दार्शनिक पर लागू नहीं माना जाता है।
माध्यमिक दार्शनिक के जीवन एवं दृष्टिकोण के बारे में कुछ जानकारी नागार्जुन की रचनाओं से भी मिल सकती है। उनके विवेचनात्मक विश्लेषणात्मक काव्यों और उनके उपदेशात्मक प्रबंध, पत्र एवं श्लोक लोगों के साथ विनियोजन में अनासक्ति’ (यानि सभी चीजों की शून्यता का बोध करना और इसलिए उनसे निर्लिप्त होना) को व्यवहार में लाने के प्रति अनेक गहरे सरोकार का संकेत देते हैं। दुरूह तर्क के ज़रिये, जैसा माध्यमिका कारिका में है, उन्होंने अस्तित्व के बारे में हिंदू एवं बौद्ध दृष्टिकोणों की आलोचना की हैं। लेकिन उनके अधिकतर शास्त्रार्थ स्थविरवाद और सर्वास्तिवाद के बौद्ध मतों द्वारा प्रस्तातिव अस्तित्व की व्याख्या के प्रयास थे। नागार्जुन की स्थिती प्रारंभिक महायान साहित्य के प्रज्ञापारमिता-सूत्र (प्रज्ञा श्लोकों की पराकाष्ठा) से घनिष्ठ रूप से संबद्ध और संभवत: निर्भर है, जिसमें 'शून्य' का विचार ज्ञान के मार्ग पर चलने वालों से लिए महत्त्वपूर्ण था और माध्यमिका मत में विशिष्ट शब्द बन गया।
यह विचार बताता है कि अस्तित्व का स्वरूप संबंधात्मक है : कोई आत्मा नहीं है, कुछ नहीं है तथा इसके संदर्भ में स्वतंत्र कोई अवधारणा नहीं है; सभी चीज़े किसी से रिक्त हैं तथा केवल परिस्थिती के संदर्भ में विद्यमान हैं। परिवर्तनशील स्वरूपों के पीछे कोई शाश्वत सत्य नहीं है; यहां तक कि बिना किसी बंधन के निर्वाण (ज्ञान-प्राप्ति) भी अस्तित्व के बदलते स्वरूप से स्वतंत्र नहीं है। जिन व्यक्तियों ने ज्ञान में पूर्णता प्राप्त कर ली है, उन्हें निर्वाण एवं अस्तित्व के परिवर्तनशील प्रवाह का एक साथ बौद्ध होता है। यह पूर्णता उन दूसरी 'पूर्णताओं' को रुपांतरित करती है, जो बोधिसत्व (भावी बुद्ध) के मार्ग के अंग हैं, जैसे नैतिकता, सहनशीलता एवं ध्यान। विवेक की पराकाष्ठा पूर्णता के लिए प्रयासरत उत्साही व्यक्ति को पूर्णता की आसक्ति तक से मुक्ति दिला देती है, उस 'पूर्णता' से, जिसमें उसे क्षण के संबंधात्मक स्वरूप का बोध नहीं होता । अत: विवेक को करुणा से पृथक न करने वाले नागार्जुन के दृष्टिकोण से विद्वतापूर्ण शास्त्रार्थ में हिस्सा लेना, बुद्ध की शिक्षाओं की व्याख्या लिखना तथा श्लोकों में माया एवं पीड़ा से मुक्ति की प्रशंसा करना परम सत्य (धर्म) अनुकूल माने जाते हैं।
सत्ताईस अध्यायों में विभक्त और 448 कारिकाओं में निबद्ध माध्यमिक कारिका या मध्यमक शास्त्र नागार्जुन की सर्वाधिक विद्वत्तापूर्ण और प्रसिद्ध रचना है, जो सम्पूर्ण माध्यमिक प्रस्थान का आधार स्तम्भ है। विग्रहव्यावर्तनी में नागार्जुन के दर्शन का प्रमाण पक्ष स्फुट हुआ है। चतु:स्तव में बुद्ध की स्तुति है तो रत्नावली में राजा के आचार मार्ग का निर्देश और बौद्ध दर्शन के वास्तविक स्वरूप का विवेचन है। प्रतीत्यसमुत्पादहृदय, शून्यतासप्तति, युक्तिषष्टिका, उपायहृदय, भवसंक्रांतिशास्त्र, महाप्रज्ञापारमिताशास्त्र और वैदत्यसूत्र नागार्जुन की दूसरी असंदिग्ध रचनायें हैं, जिनमें उनके दर्शन के विविध पक्षों की अभिराम अभिव्यक्ति हुई है।
नागार्जुन की दृष्टि में मूल तत्व शून्य के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। ध्यान देने की बात यह है कि यह शून्य कोई निषेधात्मक वस्तु नहीं है जिसका अपलाप किया जा सके। किसी भी पदार्थ का स्वरूपनिर्णय करने में चार ही कोटियों का प्रयोग संभाव्य है - अस्ति (विद्यमान है), नास्ति (विद्यमान नहीं है), तदुभयम् (एक साथ ही अस्ति नास्ति दोनों) तथा नोभयम् (अस्ति नास्ति दोनों कल्पनाओं का निषेध)। परमार्थ इन चारों कोटियों से मुक्त होता है और इसीलिए उसके अभिधान के लिए "शून्य" शब्द का प्रयोग हम करते हैं। नागार्जुन के शब्दों में-
न सन् नासन् न सदसत् न चाप्यनुभयात्मकम्।
चतुष्कोटिर्विनिर्मुक्त तेत्वं माध्यमिका विदु:॥
शून्यवाद की सिद्धि के लिए नागार्जुन ने विध्वंसात्मक तर्क का उपयोग किया है - वह तर्क, जिसके सहारे पदार्थ का विश्लेषण करते करते वह केवल शून्यरूप में टिक जाता है। इस तर्क के बल पर द्रव्य, गति जाति, काल, संसर्ग, आत्मा, आदि तत्वों का बड़ा ही गंभीर, मार्मिक तथा मौलिक विवेचन करने का श्रेय नागार्जुन को है। इस मत में सत्य दो प्रकार का होता है - (1) सांवृतिक सत्य तथा (2) पारमार्थिक सत्य जिनमें प्रथम अविद्या से उत्पन्न व्यावहारिक सत्ता का संकेत करता है; द्वितीय प्रज्ञा जनित सत्य का प्रतिपादक है। "संवृति" शब्द का अर्थ है अविद्या। अविद्याजनित होने से व्यावहारिक सत्य सांवृतिक सत्य के नाम से जाना जाता है। सत्य की यह द्विविध व्याख्या नागार्जुन की दृष्टि में शून्यवाद के द्वारा उद्भावित नूतन कल्पना नहीं है, प्रत्युत बुद्ध के द्वारा ही प्राचीन काल में संकेतित की गई है। बुद्ध के कतिपय उपदेश व्यावहारिक सत्य के आधार पर दिए गए हैं; अन्य उपदेश पारमार्थिक सत्य के ऊपर आलंबित हैं। अभीष्ट दोनों है बुद्ध को -
द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना।
लोक संवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थित: ॥
नागार्जुन दार्शनिक होते हुए भी व्यवहार की उपेक्षा करनेवाले आचार्य नहीं थे। वे जानते हैं कि व्यवहार का बिना आश्रय लिए परमार्थ का उपदेश ही नहीं हो सकता और परमार्थ की प्राप्ति के अभाव में निर्वाण मिल नहीं सकता। साधारण मानवों की बुद्धि व्यवहार में इतनी आसक्त है कि उसे परमार्थपथ पर लाने के लिए व्यवहार का अपलाप नहीं किया जा सकता। फलत: व्यवहार की असत्यता परमार्थ शब्दों के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु नहीं है। इसीलिए उसे "अनक्षरतत्व" के अभिधान से जानते हैं। परमार्थतत्व बुद्धिव्यापार इतनी आसक्त है कि उसे परमार्थ पथ पर लाने के लिए व्यवहार का अपलाप नहीं किया जा सकता। फलत: व्यवहार की "असत्यता" दिखलाकर ही साधक को परमार्थ में प्रतिष्ठित करना पड़ता है। परमार्थ शब्दों के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु नहीं है। इसीलिए उसे अनक्षर तत्व के अभिधान से जानते हैं।

परमार्थतत्व बुद्धिव्यापार से अगोचर, अविषय (ज्ञान की कल्पना से बाहर), सर्वप्रपंचनिर्मुक्त तथा कल्पनाविरहित है, परंतु उसके ऊपर जागतिक पदार्थों का समारोप करने से ही उसका ज्ञान हमें हो सकता है। यह तत्व वेदांतियों के अध्यारोप तथा अपवादविधि से निमांत सादृश्य रखता है।

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