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गुरुवार, 16 सितंबर 2021

संप्रेषण बुनियादी व स्वाभाविक प्रवृत्ति

संप्रेषण हर प्राणी की बुनियादी व स्वाभाविक प्रकृति एवं जरूरत है। इसके जरिये हम जानकारियों, भावनाओं एवं अभिव्यक्तियों का आदान-प्रदान करते हैं। संप्रेषण में ध्वनियों, भाषा एवं चित्रों का काफी महत्व होता है। संप्रेषण मानव उत्पत्ति से चली आ रही एक अनवरत प्रक्रिया है, इसका स्वरूप व माध्यम जो भी हो। जन्म लेते ही बच्चा रोकर अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। संचार शास्त्री डेनिस मैकवेल मानव संप्रेषण को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक अर्थ पूर्ण संदेशों के आदान-प्रदान के रूप में देखते हैं। इनका विचार है कि संचार ही मानव समाज की संचालन प्रक्रिया को सफल बनाता है। इसी मानवीय जिज्ञासु प्रवृत्ति ने पत्रकारिता के विभिन्न आयामों का उद्भव किया है।

         पत्रकारिता में समय-समय पर परिवर्तनों का दौर आता रहा है। यही एक मात्र पेशा है जिसमें शामिल लोग अपने कार्य क्षेत्र को ही प्रयोगशाला मानकर नये-नये प्रयोग करते रहे हैं, और नई-नई प्रवृत्तियों को जन्म देते रहे हैं । बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब सूचना प्रौद्योगिकी अपने विकास के चरम पर पहुँची तो ऐसे ही प्रयोगों की संख्या अचानक बढ़ गयी। नतीजा यह हुआ कि इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में ही एक साथ कई-कई नई प्रवृत्तियों ने जन्म ले लिया और अत्यंत प्रभावी ढंग से न केवल पत्रकारिता का रंग-ढंग बदला बल्कि सामाजिक व्यवस्था एवं लोगों के चाल-चलन में व्यापक बदलाव हुआ। इस दौर में पत्रकारिता के दोनों महत्त्वपूर्ण स्वरुप प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक अर्थात मुख्य धारा का मीडिया अपने-अपने खेमे में भी डरा सहमा नज़र आया। वर्तमान समय में प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रानिक मीडिया को ओल्ड मीडिया एवं नागरिक पत्रकारिता, सोशल मीडिया, इंटरनेट आधारित मीडिया, वेब पोर्टल आदि पत्रकारिता के वैकल्पिक स्वरुप को न्यू मीडिया के नाम से जाना जाता है। मोबाइल, डिजिटल कैमरा, लैपटाप व इंटरनेट इत्यादि का आज सूचना संकलन व संप्रेषण में अधिकाधिक योगदान हो रहा है। आज वैकल्पिक मीडिया के द्वारा लोग अपनी अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त कर रहे हैं।

         भारतीय पत्रकारिता के इतिहास को देखें तो एक तरह से यह ठीक ही लगता है कि जीवंत समाज के अभिन्न अंग की तीव्र वैचारिकता के प्रतिफल का नाम ही पत्रकारिता है। प्रसिद्ध संचारविद मार्शल मैक्लुहान का कथन है कि संचार क्रांति के दौर में जब सम्पूर्ण विश्व एक गांव में तब्दील हो गया है। संचार के क्षेत्र में हर दिन कोई न कोई उपलब्धि हासिल की जाती है । ऐसे में मीडिया ने भी अपनी रंगत बदली है।आज पत्रकारिता के आयामों में बदलाव तो हुआ ही साथ ही उसके शस्त्र और औजारों में भी परिवर्तन हुआ है। दुनिया भर में इक्कीसवीं सदी में एक खास मीडिया का प्रादुर्भाव हुआ जिसे वैकल्पिक मीडिया के नाम से जाना जाता है।

         वैकल्पिक मीडिया से आशय ऐसी मीडिया (समाचार पत्र-पत्रिका, रेडियो, टीवी सिनेमा व इंटरनेट आदि) से है, जो मुख्यधारा की मीडिया के प्रतिपक्ष में वैकल्पिक जानकारी प्रदान करती है। वैकल्पिक मीडिया को मुख्यधारा की मीडिया से हटकर देखा जाता है। मुख्यधारा की मीडिया वाणिज्यिक, सार्वजनिक रूप से समर्थित या सरकार के स्वामित्व वाली है। वैकल्पिक मीडिया के अंतर्गत उन खबरों को प्रसारित किया जाता है, जिन्हें मुख्यधारा मीडिया की मीडिया में स्थान नहीं दिया जाता और वे जन सरोकारों से पूर्णतः जुड़ी होती हैं। प्राचीन काल में डुग्गी व मुनादी के माध्यम से खबरों का प्रसारण किया जाता था। विज्ञान व औद्योगिक विकास ने संचार का चेहरा बदल दिया है, जिसमें मुनादी, डुग्गी आज की शैली में पम्फ्लेट, पोस्टर व दीवार लेखन (भित्ति चित्र) में बदल गये हैं। आज जब भी हम मीडिया की बात करते हैं, त्यों ही हमारे जेहन में चौबीस घंटे वाचाल (पोपट) की तरह बोलने वाले तमाम समाचार चैनल, व्यवसायिक निहितार्थ वाले अखबार घूम जाते हैं, जो दिन भर एक्सक्लूसिव के नाम पर अपना राग अलापते रहते हैं। इस भागमभाग की स्थिति ने हमें तमाम समाचारों से वंचित कर दिया है। यही आज मुख्यधारा की मीडिया कहलाती है। मुख्यधारा की मीडिया आज सारे समाज पर छायी हई है, किन्तु नीतिगत मसलों पर इसमें गंभीर सामग्री का एक सिरे से अभाव है। नीतिगत मसलों को मेनस्ट्रीम मीडिया सतही रूप में पेश करता है, जबकि गैर-मुनाफे से चलने वाले मीडिया संगठनों के प्रकाशनों का नीतिगत मसलों पर गंभीर विश्लेषण मिलता है। 

स्वतंत्रता पूर्व वैकल्पिक मीडिया के रूप में साहित्यिक पत्रिका की गणना की जाती थी किन्तु आज इस दायरे में अन्य मीडिया भी आ गए हैं।  असल में विकल्प का अभिप्राय तुलनात्मक है। मीडिया में भी प्रवत्ति के विकल्प का निर्माण किया जा सकता है। जगदीश्वर चतुर्वेदी ने पुस्तक डिजिटल युग में मास और विज्ञापन में लिखा है कि समस्या विकल्प के निर्माण की नहीं है बल्कि समस्या यह है कि क्या वैकल्पिक मीडिया अपने पैरों पर खड़ा हो पायेगा ? वैकल्पिक मीडिया का वही रूप प्रभावी रहा जिसने असरदार तरीके से अपने को आत्मनिर्भर बनाया है अर्थात वैकल्पिक मीडिया के रूप का गठन प्रत्येक मीडिया में संभव है। प्रत्येक मीडिया अपने आप में विकल्प को समेटे है। कहने का तात्पर्य है कि वैकल्पिक मीडिया की धुरी है वैकल्पिक नजरिया, मीडिया इसमें गौण है। प्रत्येक दौर में वैकल्पिक मीडिया अपने तरीके से जन्म लेता आ रहा है।

         वैकल्पिक मीडिया को व्यापक रूप में फैलाने में मुख्यधारा के मीडिया की अहम भूमिका है। जब मुख्यधारा की मीडिया में जन सामान्य की बात को भुलाया जाने लगा और मसालेदार, औचित्यविहीन ख़बरें परोसी जाने लगी और साथ ही साथ जनता की अभिव्यक्ति को जन माध्यम में रोका जाने लगा। अखबारी खबरों पर संदेह किया जाने लगा, तब शनैः शनैः वैकल्पिक मीडिया का उत्थान इस सूचना युग में हुआ। यह वह संचार माध्यम का स्वरूप हो गया जो बार-बार मुख्यधारा की मीडिया के साथ खड़ा होने की कोशिश करता है।

         वैकल्पिक मीडिया हमारे विकास के साथ बढ़ा है। स्वतंत्रता के समय लोग पर्चे छापकर अपने विरोध को दर्ज करते थे। अपनी बात लोगों तक पहुँचाते थे। तब भी अखबार थे। लेकिन उसमें ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नहीं लिखा जा सकता था। आज वही मुख्यधारा के मीडिया से कट जाने वाली खबरें वैकल्पिक मीडिया के द्वारा अपनी अलग पहचान बना रही हैं। मुख्यधारा के टीवी चैनल और अखबार जैसे संचार माध्यमों की जगह अब सच्चे जन पक्ष का निर्माण करने में लघु पत्रिकाओं और सामुदायिक रेडियो बड़ी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। किसी विशेष व्यवस्था परिवर्तन के उद्देश्य को लेकर अनेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित की जा रही हैं, जो एक बेहतर जनपक्ष के वैकल्पिक मीडिया के रूप में उभर रही  हैं।

         इंटरनेट के माध्यम से वेबसाइट, फेसबुक, ट्वीटर और सोशल नेटवर्किंग साइट्स तेजी से विकसित हो रही ह हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सामुदायिक रेडियो बड़ी तेजी से पुष्पित एवं पल्लवित हो रहा है। किसी विशेष समुदाय में विभिन्न प्रकार से लोगों को वैकल्पिक संचार माध्यमों द्वारा जानकारी उपलब्ध कराई जा रही है। अफ्रीका, मिश्र व मध्य पूर्व देशों में तानाशाही और स्वयं भू व्यवस्थाओं के खिलाफ हुए विद्रोह, वैकल्पिक मीडिया की ही देन है। तमिल गीत “कोलावरी डी” की दुनिया भर में शोहरत के लिए भी वैकल्पिक मीडिया ही श्रेय का हकदार है। पंचायतों में जहाँ पहले महिलाएं प्रतिनिधि पर या पति आश्रित हुआ करती थीं। वहीं आज महिलाएं पंचायतों में साहस पूर्वक राजनीति कर रहीं हैं। बैनर, पोस्टर, होर्डिंग, दीवारों पर लिखे वक्तव्य, कैटलॉग, कार्टून, मेले में लगी प्रदर्शनी, सामुदायिक रेडियो आदि सभी कुछ वैकल्पिक मीडिया का अंग है। इंटरनेट और मोबाइल के विकास ने इसे द्रुत गति प्रदान किया है।

         वर्तमान में जब हम वैकल्पिक पत्रकारिता की बात करते हैं तो हमारे जेहन में गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचन्द जैसे संपादक और विशाल भारत, विप्लव, हंस जैसी पत्रिकाएं आ जाती हैं । तब यह भले ही लगभग मुख्यधारा के अखबार व पत्रिकाएं थीं पर इनके सामाजिक सरोकार, इनकी प्रतिबद्धता और अभिव्यक्ति की आजादी वैकल्पिक पत्रकारिता सरीखी थी। धर्मयुग, हिन्दुस्तान साप्ताहिक, सारिका, दिनमान जैसी पत्रिकाएं बड़े प्रतिष्ठानों से निकलने के बावजूद एक बड़े वर्ग के पाठक तक पहुँच रखती थीं। उस समय इन सभी पत्रिकाओं का जोश व उत्साह चरम पर था। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड से ग्रामीण महिलाओं द्वारा निकलने वाला समाचार पत्र खबर लहरिया एक पाक्षिक समाचार पत्र है, जो वहां की समस्याओं को प्रकाशित करता है।  यह अखबार वैकल्पिक पत्रकरिता के प्रतिमान प्रतिस्थापित करता है। इन सभी वैकल्पिक पत्रिकाओं ने समाज में एक नई सोंच व समझ विकसित की है एवं पुरानी रूढ़िवादी विचारधारा को परिवर्तित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। आज अधिकांश अनियतकालीन पत्रिकाएं तो सिर्फ इसलिए निकाली जाती हैं, ताकि जब विज्ञापनों का जुगाड़ हो जाये समाचार सामग्री के साथ अंक बाज़ार में चला जाय। वैकल्पिक मीडिया के माध्यम से आज ग्रामीण जनपक्ष की आवाज बुलंद हो रही है। लोग विभिन्न वैकल्पिक माध्यमों द्वारा अपनी अभिव्यक्ति को जाहिर कर रहे हैं । वैकल्पिक संचार के माध्यम से लोगों में सामाजिक व राजनैतिक स्तर पर जागरूकता का प्रादुर्भाव हो रहा है।


1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही प्रभावशाली व आवश्यक लेख है। आपने विषय को जिस तरह प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है।

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