भारतीय जीवन मूल्य और दीनदयाल
उपाध्याय की पत्रकारीय चेतना
डॉ. रामशंकर
सहायक प्राध्यापक
शोध सार

पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक राष्ट्रवादी
चिंतक एवं पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का
लेखन संपादन किया है। एक पत्रकार एवं संपादक के रूप में अपने विचारों की व्याख्या
की तथा एक राष्ट्रवादी दर्शन के व्यापक रूप में भारतीय जीवन मूल्यों को स्थापित
करने का प्रयत्न किया। उन्होंने भारतीय जीवन मूल्यों के अंतर्गत एकात्म मानववाद
दर्शन को जन-जन तक पहुचाने का प्रयास किया। दीनदयाल जी न केवल वैचारिक चुनौतियों
के प्रति सजग थे बल्कि उन चुनौतियों का सामना कर अपने लेखों, स्तंभों के माध्यम से समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास करते
थे। भारत जैसा विशाल एवं सर्वसाधन सम्पन्न
राष्ट्र जिसने अपनी ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर सम्पूर्ण विश्व
को अपने ज्ञान पुंज से आलोकित कर मानवता का पाठ पढ़ाया तथा विश्व में जगतगुरू के पद
पर प्रतिस्थापित हुआ, ऐसे विशाल राष्ट्र के
पराधीनता के कारणों पर दीनदयाल जी की लेखनी निर्बाध रूप में बिना भयभीत हुये चलती
रही । भारतीय अस्मिता के विचार को जन-जन तक अपने पत्रकारीय समर्थ के कारण उनकी लेखनी मूल्यधर्मी पत्रकारों
के लिए प्रेरणास्पद है। दीनदयाल की चिंतनशैली में विद्वता एवं अध्ययन क्षमता तो
परिलक्षित है ही, पत्रकारीय दायित्वबोध व
शालीनता भी दिखाई पड़ती है। वर्तमान में
प्रोफेशनलिज्म के नाम पर पत्रकारिता के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह चिंता का विषय
है।
प्रस्तावना
भारतीय पत्रकारिता और राष्ट्रवाद दोनों एक ही धारा में
प्रवाहित होने वाले जल के समान हैं। भारतीय पत्रकारिता ने सदैव राष्ट्रवाद को ही
पोषित, पल्लवित करने का दायित्वपूर्ण
निर्वहन किया है। पत्रकारिता में राष्ट्रवादी प्रवाह को गति देने वाले पत्रकारों
में पं. दीनदयाल उपाध्याय का भी अग्र रूप में लिया जाता है। भारत की राजनीति को एक
ध्रुव से दो ध्रुवीय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दीनदयाल उपाध्याय की
राष्ट्रधर्मी पत्रकारिता में भी अग्रणी भूमिका रही है। अपने राष्ट्रधर्मी विचारों
को जनमानस तक संप्रेषित करने के लिए दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को माध्यम
बनाया था। पत्रकारिता किस प्रकार से जनमत निर्माण करने में सहायक होती है, यह दीनदयाल जी ने बखूबी समझा था।
एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय ने गांधी के
विचार को पुनःव्याख्यायित करते हुए अंत्योदय की बात की। दीनदयाल जी ने राष्ट्रहित
व चिंतन के विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया
था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वह पत्रकारिता जो अपने लिए किसी लक्ष्य अथवा
सन्मार्ग की खोज में थी। उसे दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पत्रकारीय चेतना के माध्यम
से मार्ग प्रशस्त करने का कार्य किया था।
एक पत्रकार के तौर पर दीनदयाल का उद्भव सन 1946 में माना जाता है। सृष्टि के प्रथम संचारक नारदजी हों या तिलक की लोकमान्य
पत्रकारिता या जैसा गांधीजी ने 1888 में इंडियन ओपिनियन में
कहा कि कोई भी धर्म या देश मनुष्यता से बड़ा नहीं हो सकता। इसी के समानांतर ही
दीनदयाल उपाध्याय ने लोक कल्याण को ही पत्रकारिता का प्रमुख आधार माना। दीनदयाल के
पास समाचारों का न्यायवादी एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण था। उनके लेखों, उपन्यासों व नियमित कॉलमों में निष्पक्ष आलोचना, उचित शब्दों का प्रयोग और सत्यपरक खबरों को ही मानवता के
अनुकूल मिलता है। जुलाई 1953 में पांचजन्य ने वित्तीय
बजट पर एक विशेषांक निकाला तो उन्होंने समीक्षा करते हुए लिखा कि पंचवर्षीय योजना
को लेकर जिस तरह सरकार के केंद्रीय मंत्री की आलोचना हुई है, बाकी दलों को क्यों छोड़ दिया गया? संपादकीय में मूर्खतापूर्ण जैसे शब्द की जगह किसी अन्य शब्द
का इस्तेमाल होना चाहिए।
भारतीय जीवन मूल्य को पोषित करने में राष्ट्र की सांस्कृतिक
स्वतंत्रता तो अत्यंत महत्वपूर्ण है,
क्योंकि
संस्कृति ही राष्ट्र के संपूर्ण शरीर में प्राणों के समान संचार करती है। प्रकृति
के तत्वों पर विलय पाने के प्रयत्न में तथा मानवानुभूति की कल्पना में मानव जिस
जीवन दृष्टि की रचना करता है वह उसकी संस्कृति है। संस्कृति कभी गतिहीन नहीं होती
अपितु वह निरंतर गतिशील फिर भी उसका अपना एक अस्तित्व है। राष्ट्र भक्ति को
पल्लवित करने की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय
पत्रकारिता को भी जाता है। सुदृढ़ और मानव केन्द्रित पत्रकारिता राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की
एकात्मता का अनुभव कराती है। अतः पत्रकारिता में स्वछंदता की जगह स्वतंत्रता
परमावश्यक हो जाती है। बिना सांस्कृतिक विविधता को समझे पत्रकारिता निरर्थक ही
नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी। इस अध्ययन
में दीन दयाल उपाध्याय के पत्रकारीय चिंतन के भारतीय जीवन मूल्यों के पक्ष को
उद्धृत किया गया है।
साहित्य का पुनरावलोकन
·
भारतीय जीवन मूल्यों एवं राष्ट्रवाद की पत्रकारिता पर
आधारित प्रमुख साहित्य, राष्ट्रीय एवं
अंतरराष्ट्रीय स्तर के शोध पत्र एवं आलेखों का अध्ययन,
·
राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रवाद के पत्रकारीय लेखन से जुड़े
चर्चित ख्यातिलब्ध विद्वानों एवं साहित्यकारों द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता की
वैविध्य उपादेयता तथा व्यापक समाज में आधुनिक चिंतन की उपादेयता के आलोक में रचित
संस्थागत, विभागीय एवं अकादमिक साहित्य का
अध्ययन,
·
राष्ट्रीय व्याख्यानों तथा संगोष्ठियों पर आधारित विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों आदि का अध्ययन।
उद्देश्य
·
राष्ट्रवाद की प्रमुख अवधारणाओं का अध्ययन।
·
भारतीय जीवन मूल्यों के अंतर्गत दीनदयाल उपाध्याय के
पत्रकारीय चिंतन का अध्ययन।
शोधपरक विश्लेषण एवं विवेचना
पत्रकार दीनदयाल उपाध्याय की
पत्रकारिता
दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उनमें एक
कुशल शिक्षाविद, अर्थचिंतक, संगठनकर्ता,
राजनीतिज्ञ, लेखक व पत्रकार सहित अनेक प्रतिभाएं विद्यमान थी। यह बात
अलग है कि उन्हें लोग एकात्म मनवाद के प्रणेता के रूप और एक संगठन के कुशल सेवी के
रूप में ज्यादा जाना जाता है। उनमें लेखन और संपादन का अद्भुत कौशल विद्यमान था।
उनकी गणना उस समय के लब्धप्रतिष्ठित पत्रकारों में भी जाती थी। उनके पत्रकारीय
व्यक्तित्व में पत्रकारिता का आदर्शवाद समाहित था। पत्रकारिता एक मिशन के रूप में
तथा राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के रूप में की जाती थी। आजादी के समय में अनेक
नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को आजादी दिलाकर राष्ट्र के
पुनर्निर्माण और जनजागरण के लिए समर्पित किया। दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व में
पत्रकारीय गुण स्पष्ट दिखाई पड़ते थे। दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि पत्रकारिता एक
मिशनरी संकल्प है जिसे पूरी लगन एवं तल्लीनता से करनी चाहिए। समाजहित की
पत्रकारिता में व्यावसायिक पत्रकार का कोई स्थान नहीं होता है। 25 सितंबर, 2010 को प्रवक्ता डॉट कॉम पर पवन कुमार अरविंद ने अपने आलेख ‘आदर्श पत्रकार पं दीनदयाल उपाध्याय’उनकी पत्रकारिता की शुरुआत 1946 में ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका के प्रकाशन से ही सामने आया है। किस प्रकार राष्ट्रधर्म, पांचजन्य व दैनिक स्वदेश से शुरू हुआ। दीनदयाल इन पत्रिकाओं
की औपचारिक रूप में न संपादक थे न स्तंभकार लेकिन वे इन पत्रों के वे सब कुछ थे।
वे लिखते भी बहुत ही सारगर्भित थे।
बाद में आरगेनाइजर व पांचजन्य में दो लेख छपने लगे। लेख के
माध्यम से दीनदयाल जी कहते हैं कि चुगलखोर और पत्रकार में अंतर है। वे कहते हैं कि
चुगली जनरुचि का विषय हो सकती है लेकिन सही मायनों में संवाद नहीं है। वर्तमान समय
में जब पत्रकारिता को देखते हैं तो पत्रकारिता में वृत्ति दिखाई पड़ती है लेकिन
दीनदयाल जी की पत्रकारिता में वे
वृत्तियाँ नहीं दिखाई पड़ती जिससे आज के पत्रकार ग्रसित नजर आते हैं। दीनदयाल की
चिंतनशैली में विद्वता एवं अध्ययन क्षमता तो परिलक्षित है ही, पत्रकारीय दायित्वबोध व शालीनता भी दिखाई पड़ती है। वर्तमान
में प्रोफेशनलिज्म के नाम पर पत्रकारिता के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह चिंता का
विषय है।
पत्रकार दीनदयाल उपाध्याय और भारतीय
जीवन मूल्य का अंतरसंबंध
प्रसिद्ध विचारक और प्रख्यात पत्रकार दीनदयाल उपाध्याय अपने
व्यस्त राजनीतिक जीवन से अनेक वर्षों तक आरगेनाइजर,
राष्ट्रधर्म, पांचजन्य में ‘‘पोलिटिकल डायरी’’ नामक स्तम्भ के अंतर्गत तत्कालीन राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रम
पर गम्भीर विवेचनात्मक टिप्पणियां लिखते रहे। यद्यपि विषय तत्कालीन होता तो भी उस
पर दीनदयाल जी की टिप्पणी सामयिक के साथ-साथ बहुधा दीर्घकालीन या स्थायी महत्व की
भी होती थी। अशोक मेहता की ‘नई रणनीति’ ‘केन्या भी हमसे समझदार है!’
में
स्पष्ट है कि विदेशी वित्त से मुक्ति उतनी ही जरूरी है जितनी विदेशी खाद्यान्न से
मुक्ति है। यह केवल राजनीतिक लक्ष्य ही नहीं,
बल्कि
आर्थिक दृष्टिकोण भी है। मान भी लें कि विदेशी निवेश मददगार होता है, इसलिए जरूरी है तो भी हम विदेशी मदद पर निर्भरता अंधाधुंध
नहीं बढ़ा सकते।’ केन्या की सरकार के एक दस्तावेज ‘अफ्रीकी समाजवाद और उसके समाजवाद पर प्रभाव’ में उल्लेख है जो हमारे यहाँ के नीति नियामकों को समझनी
चाहिए कि ‘विकासशील राष्ट्र के तौर पर हमें
अपने सभी विदेशी विनिमय संबंधी कार्यों और आती हुई मदद की समीक्षा करनी चाहिए।
हमें ऐसे सभी देशों से आने वाली मदद को रोकना चाहिए,
जो
केवल इस उद्देश्य से भेजी जाती है ताकि हम उनके माल के लिए एक बाजार बने रहें।’ हमें खुद भविष्य में कुछ चीजें खुद उत्पादन का लक्ष्य रखना
चाहिए।
सन 1947 में दीनदयाल जी ने
राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की थी। जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। दीनदयाल ने ‘पांचजन्य’, ‘राष्ट्रधर्म’
एवं ‘स्वदेश’ के माध्यम से
राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उनके लेख पांचजन्य के
घोष वाक्य के अनुरूप ही राष्ट्र जागरण का कार्य करते थे। राष्ट्रीय एकता के मर्म
को समझाते हुए उन्होंने 24 अगस्त, 1953 को पांचजन्य में लिखा
कि-‘‘यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय
राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है
उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों
का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोकर गंगा में एकरूप हो
जाएगी।”
दीनदयाल उपाध्याय देश में बदलाव के लिए नारे तथा बेवजह के
धरना-प्रदर्शनों को कभी प्राथमिकता नहीं देते थे। समस्याओं के निदान के लिए वह
पुरूषार्थ को ही महत्वपूर्ण पक्ष मानते थे। 27 सितंबर, 1950 (आश्विन कृष्ण 2 वि. सं. 2007) को पांचजन्य में ‘पुरुषार्थ चाहिए नारे
नहीं’ शीर्षक को उल्लेखित करते हुये लिखा
है कि ‘‘आज देश के व्याप्त अभावों की पूर्ति
के लिए हम सभी व्यग्र हैं, अधिकाधिक परिश्रम करने
तथा आदि के नारे भी सभी लगाते हैं। परंतु वस्तुतरू नारों के अतिरिक्त अपनी
इच्छानुसार सुनहले स्वप्नों, योजनाओं तथा महत्त्वाकांक्षाओं
के अनुकूल देश का चित्र निर्माण करने के लिए उचित परिश्रम और पुरुषार्थ करने को
हमसे पिचानवें प्रतिशत लोग तैयार नहीं हैं। जिसके अभाव में ये सुंदर-सुंदर चित्र
शेखचिल्ली के स्वप्नों के अतिरिक्त और कुछ नहीं। आज सारा देश इस शेखचिल्ली की
प्रवृत्ति से ही ग्रसित है। वस्तुतरू धन कमानेवाला ही उसका मूल्य समझ सकता है। कोई
कुछ भी कहे आज देश में व्याप्त अधिकाधिक अधिकार प्राप्ति की प्रवृत्ति और
स्वतंत्रता से कुछ लूट मचाने की इच्छा दिखती है। हमारी स्वतंत्रता जनसाधारण के
पुरुषार्थ और पराक्रम से प्राप्त न होने के कारण ही ऐसा है और इसीलिए हममें कर्म
चेतना और देश के निर्माण के हेतु परिश्रम करने की भावना नहीं है।”
वर्ष 1947 में भारत भले ही
राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हो गया था परंतु अंग्रेजों के जाने के पश्चात भी
उपनेशवादी संस्कृति भारत के तथाकथित पूंजीपति वर्ग पर हावी थे। इस मानसिकता को
राष्ट्र के सांस्कृतिक विकास में बाधक बताते हुए 17 अगस्त, 1949 (भाद्रपद कृष्ण 9 वि. सं. 2006) को पांचजन्य में ‘सांस्कृतिक स्वतंत्रता’ शीर्षक से दीनदयाल उपाध्याय लिखते हैं कि-‘‘राष्ट्र की सांस्कृतिक स्वतंत्रता तो अत्यंत महत्त्व की है, क्योंकि संस्कृति ही राष्ट्र के संपूर्ण शरीर में प्राणों
के समान संचार करती है। प्रकृति के तत्त्वों पर विलय पाने के प्रयत्न में तथा
मानवानुभूति की कल्पना में मानव जिस जीवन दृष्टि की रचना करता है वह उसकी संस्कृति
है। संस्कृति कभी गतिहीन नहीं होती अपितु वह निरंतर गतिशील फिर भी उसका अपना एक
अस्तित्व है नदी के प्रवाह की भाँति निरंतर गतिशील होते हुए भी वह अपनी निजी
विशेषताएँ रखती हैं जो उस सांस्कृतिक दृष्टिकोण को उत्पन्न करनेवाले समाज के
संस्कारों में तथा उस सांस्कृतिक भावना से जन्य राष्ट्र के साहित्य, कला, दर्शन, स्मृति शास्त्र,
समाज
रचना इतिहास एवं सभ्यता के विभिन्न अंग अंगों में व्यक्त होती हैं। परतंत्रता के
काल में इन सब पर प्रभाव पड़ जाता है तथा स्वाभाविक प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। आज
स्वतंत्र होने पर आवश्यक है कि हमारे प्रवाह की संपूर्ण बाधाएँ दूर हों तथा हम
अपनी प्रतिभा अनुरूप राष्ट्र के संपूर्ण क्षेत्रों में विकास कर सकें। राष्ट्र
भक्ति की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की
संस्कृति को ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मता
का अनुभव कराती है। अतरू संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है। बिना उसके राष्ट्र
की स्वतंत्रता निरर्थक ही नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।”
दीनदयाल जी समय-समय पर समाचार या शीर्षक कैसे लगाना चाहिए
इत्यादि विषयों पर सलाह-मशविरा करते थे। पांचजन्य के प्रसंग का उल्लेख है कि लखनऊ में जब संत फतेहसिंह किसी
मुद्दे पर आमरण अनशन कर रहे थे तो पांचजन्य ने खबर का शीर्षक दिया रू अकाल तख्त के
काल३ मगर दीनदयाल उपाध्याय जी ने इस शीर्षक को हटवाते हुए कहा कि सार्वजनिक जीवन
में कटुतापूर्ण शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। आरगेनाइजर के पूर्व संपादक
के.आर. मल्कानी के अनुसार, तीन दिनों से भी कम अवधि
में जब हरियाणा, पश्चिम बंगाल तथा पंजाब की
गैर-कांग्रेसी सरकारें गिरा दी गईं तो पांचजन्य ने एक व्यंग्यचित्र छापा जिसमें
तत्कालीन गृह मंत्री चव्हाण लोकतंत्र के बैल को काटते हुए दर्शाए गए थे। इस पर
दीनदयाल जी ने प्रतिक्रिया दी कि चाहे व्यंग्यचित्र में ही क्यों ना हो, गौ-हत्या का यह दृश्य मन को धक्का पहुंचाने वाला है।
उन्होंने साफ कहा कि मानवता, पशुता के स्तर पर पहुंच
गई है।
दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि राष्ट्रीय एकता को निर्बाध
बनाए रखने के लिए राष्ट्र की सांस्कृतिक एकात्मता भी नितांत जरूरी है। सांस्कृतिक
एकात्मता को उल्लेखित करते हुये राष्ट्रधर्म समाचार पत्र में 6 अक्टूबर, 1949 को लिखा है कि- ‘‘भारत में एक ही संस्कृति
रह सकती है, एक से अधिक संस्कृति का नारा देश के
टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का
बहुस्ंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक संस्कृतिवाद को संप्रदायवाद कहकर ठुकराया
गया किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक संस्कृतिवाद को अपना
रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी
हम अपनी संपूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं।”
हिंदुत्व, भारतीयता, समाज-संस्कृति ,अर्थनीति, राजनीति सहित विभिन्न विषयों पर दीनदयाल जी गहरा अध्ययन था।
उनकी पत्रकारिता के अलावा अनेक पुस्तकें हैं जैसे- राष्ट्र चिंतन, सम्राट चन्द्रगुप्त,
भारतीय
अर्थनीति- विकास की एक दिशा, एकात्म मानववाद आदि
पुस्तकें राष्ट्रहित में जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं।
निष्कर्ष
दीनदयाल उपाध्याय का पत्रकारीय चिंतन शाश्वत राष्ट्रवादी और
भारतीय जीवन मूल्यों की विचारधारा से जुड़ता है। पत्रकारिता के आधार पर
उन्होंने राष्ट्रभाव को समझने तथा भारतीय
अस्मिता को लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। वे राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार
कर उनका समाधान अपने आलेखों में प्रकाशित करते थे। समाज और राष्ट्र के कल्याण के
लिए पत्रकारिता को दीनदयाल जी ने एक शस्त्र के रूप में स्वीकार किया। अपनी लेखनी
के माध्यम से उन्होंने सामाजिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों को परिभाषित किया । मानव
जीवन का लक्ष्य भौतिक मात्र नहीं है। धर्म,
अर्थ, काम, मोक्ष का विचार भी ध्यान
रखना चाहिये। सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये। अर्थात लाभ की कामना हो, लेकिन सभी का शुभ होना अनिवार्य है। यदि समाज का हित हो रहा
हो तो परिवार का हित छोड़ देना चाहिये। देश का हित हो रहा हो तो समाज का हित छोड़
देना चाहिये। पत्रकारिता में भी इसी समूल भावना से कार्य करना चाहिए। राष्ट्रवाद
के अंतर्गत राष्ट्रप्रेम का यही विचार प्रत्येक पत्रकार में होना चाहिये।
संदर्भ एवं ग्रंथ सूची
डॉ. जैन, संजीव. प्राचीन भारतीय
संस्कृति. भोपाल: कैलाश पुस्तक सदन.
डॉ. मालवीय,
चिंतामणि.
पं. दीन दयाल उपाध्याय दर्शन और दार्शनिक. मध्य प्रदेश: म. प्र. हिन्दी ग्रंथ
अकादमी.
डॉ. शर्मा, महेशचंद्र. (2016). दीनदयाल उपाध्याय संपूर्ण वाङ्मय.
दिल्ली: प्रभात प्रकाशन.
दीक्षित, हृदय नारायण. सांस्कृतिक
अनुभूति, राजनीतिक प्रतीति. वाराणसी: विश्व
विद्यालय प्रकाशन.
मिश्र, विद्यानिवास. भारतीय
संस्कृति के आधार. नई दिल्ली: प्रभात प्रकाशन.
सिंह, रामधारी’दिनकर’. संस्कृति भाषा और
राष्ट्र. नई दिल्ली: लोकभारती प्रकाशन.
सिंह, रामधारी’दिनकर’. हमारी सांस्कृतिक एकता.
नई दिल्ली: नेशनल पब्लिशिंग हाउस.
सिन्हा, सच्चिदानंद. सांस्कृतिक
विमर्श. बीकानेर: वाग्देवी प्रकाशन.
अशोक मेहता की ‘नई रणनीति’ दीन दयाल सम्पूर्ण वाङ्मय (खंड तेरह) पृष्ठ संख्या -71