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बुधवार, 10 जुलाई 2013

उदारीकरण एवं वैश्वीकरण का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव

भारतीय समाज विविधतायुक्त समाज है, जिसमें बहुत से धर्म,जाति,भाषा ,क्षेत्र , रीति-रिवाज व परंपरा का समिश्रण है । अन्य समाजों की तरह भारतीय समाज भी पितृसत्तात्मक समाज है जिसमें सांस्कृतिक व धार्मिक आधार पर तो स्त्रियाँ सम्मानित, पूज्यनीय देवी स्वरूप है लेकिन व्यवहरिक  धरातल पर महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है । भारतीय महिलाओं की सामाजिक संरचना में निर्धारित प्रस्थिति के कारण उनमें शिक्षा का अभाव, सामाजिक आर्थिक भौतिक संपदाओं पर उनकी सहभागिता बहुत ही कम होती है । वे न केवल आर्थिक सामाजिक वंचनाओं की शिकार होती हैं वस्तुतः पूरा नारी समाज असमानता व पिछड़ेपन का शिकार है । उनके साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव के कारण उनकी हैसियत समाज में निम्न है ।
वर्तमान में विश्व के विकसित और विकासशील देशों में ग्रामीण महिलाएं मूख्य भूमिका अदा कर रही हैं। भारत में उदारीकरण का दौर शुरू होने पर महिलाओं की स्थिति में तेजी से परिवर्तन देखने को मिला। देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के फैलाव ने बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार दिया जिनमें महिलाओं की संख्या भी उल्लेखनीय रही। नए प्रौद्योगिकी और शिक्षा के प्रसार ने महिलाओं के प्रति समाज की सोच में बदलाव लाना शुरू किया उनकी सामाजिक स्थिति के साथ -साथ आर्थिक स्थिति भी मजबूत हुई। आज सरकार और उद्योग पूरे ज़ोर से विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित करने में लगे हैं लेकिन उदारीकरण व ढांचागत समायोजन नीतियों के प्रभाव के अध्ययन के संदर्भ में हमें ध्यान रखना होगा कि भारत एक तीसरी दुनिया का देश है और काफी समय तक उपनिवेश रहा है ।
भारत सरकार की ओर से ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए वर्तमान में कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, उनमें प्रमुख रूप से राष्ट्रीय महिला साक्षरता मिशन, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार मिशन, राजीव गांधी किशोरी सशक्तिकरण योजना, जननी सुरक्षा योजना, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शामिल हैं। इसके अलावा महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सरकार ने वर्ष 1990 में एक बड़ा कदम उठाया। इस वर्ष सरकार ने राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की जो महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा और उन्हें अपनी भूमिका के प्रति जागरूक करती है।
हाल के वर्षों में उदारीकरण व ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों को हर आर्थिक समस्या के हल के रूप में देखा जा रहा है । “उदारीकरण का अर्थ है आद्योगिक विनिमय और बाज़ार का पूरी तरह खोला जाना जिससे कि अर्थ व्यवस्था में सरकार के बजाय बाजारी शक्तियाँ हावी हो जाएँ । बाज़ार को सुरक्षित रखने तथा आयात के विकल्प खोजने के बजाय महसूस किया गया कि भारतीय अर्थव्यवस्था को निर्यातोन्मुखी बनाया जाय।[1] उदारीकरण में निहित है- विदेशी व्यापार का उदारीकरण,चुंगी व कर में कमी, खासकर कृषि उत्पादों के निर्यात से सारे प्रातिबंध हटाना ।
          उदारीकारण के लगभग दो दशकों के बाद भूमंडलीकरण की आंधी ने जहां कुछ प्रतिशत महिलाओं को फायदा पहुंचाने का काम किया उससे कहीं अधिक प्रतिशत महिलाओं को विश्व व्यापार की शर्तों के थपेड़ो ने उनकी पारंपरिक आजीविका के साधनों को छीनकर उन्हें अर्थ व्यव्स्था से बाहर करने पर भी मजबूर किया है। पहले से ही सामाजिक असमानता के माहौल में जीती भारतीय महिलाओं पर भूमंडलीकरण का प्रतिकूल असर अधिक नजर आता है। हमारे देश की आर्थिक व्यव्स्था में महिलाओं का सबसे अधिक योगदान कृषि के क्षेत्र में है। यहां अधिकतर खेतिहर कार्य महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। महिलाओं का ज्ञान और उनकी निपुणता बीजों की सुरक्षा, खाद्य उत्पादन और फसलों की विविधता और खाद्य प्रोसेसिंग में काम आती है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत कृषि पर कारपोरेट जगत का दबदबा बढ़ा है। जो खाद्य सुरक्षा महिलाओं के काम पर निर्भर करती है उसे कारपोरेट संबंधित खाद्य संस्कृति ने पीछे धकेल दिया है। ट्रिप्स ( व्यापार संबंधित बौद्धिक संपति अधिकार) समझौते के तहत ग्रामीण महिलाओं से बीज और जैव विविधता का ज्ञान छीनकर ग्लोबल कंपनियों के हाथों चला गया है।
          वर्ष 2005 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने भूमंडलीकरण के कृषि पर होने वाले प्रभावों पर कराए एक अध्ययन में कहा था कि विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि पर समझौता अनुचित और असमान है और इससें कृषि में कार्यरत महिलाओं पर नकारात्मक बदलाव आया है। कारपोरेट आधरित कृषि ने महिलाओं को उनकी खाद्य उत्पादन और खाद्य प्रस्संकरण की जीविका से बेदखल करने का काम किया है। यह सही है कि ग्लोबलाइजेशन ने अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं को रोजगार के असीम अवसर प्रदान किए है। जो महिलाएं परिवार की देखभाल में समय बिताती थीं उन्हें श्रम प्रधान इन इकाइयों में काम करने का अवसर मिला लेकिन इस प्रक्रिया ने महिलाओं से उनके काम के बुनियादी अधिकार छीन लिए। 1990 से शुरू हुए एसएपी (ढांचागत समयोजन) कार्यक्रम के तहत कई विदेशी कंपनियों ने अपने निर्यात उध्योगों जैसे कपड़ा, खेल का सामान, फूड प्रोसेसिंग, खिलौनों की इकाईयों को भारत में खोलकर महिलाओं को सस्ता श्रम मानते हुए उन्हे अधिक से अधिक काम पर रखा। लेकिन असुरक्षित माहौल और दमघोंटू काम की स्थितियों ने महिलाओं को गुलाम वेतनभोगीबनाने का काम अधिक किया। नौकरियां मिलीं लेकिन न तो युनियन बनाने के अधिकार और न ही अपने अधिकारों के खिलाफ लड़ने या आवाज उठाने के अधिकार मिल सके। काम की उचित कल्याणकारी सरकारी नीतियों के अभाव ने इन महिलाओं को बदहाल और गुलाम बनाने वाली कार्य स्थितियों में भी काम करने का आदी बना दिया है।
          इस प्रक्रिया ने गरीबी के स्त्रीकरणको अधिक प्रोत्साहित किया है। एक अनुमान के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई घंटे काम करती हैं । लेकिन विश्व की केवल दस तिहाई आय अर्जित करती हैं  और विश्व की केवल एक प्रतिशत संपति की मालकिन हैं । ग्लोबलाइजेशन के चलते आर्थिक और सामाजिक स्तर पर आगे बढ़ने के रास्ते खुलने का कुछ हद तक लाभ शहरों की शिक्षित अधिकार संपन्न महिलाओं को हुआ। लेकिन यहां भी फायदा उन्हीं महिलाओं को मिला जो संगठित क्षेत्रों की कंपनियों में बेहतर कार्य शर्तों पर काम करने की स्थिति में अधिक थीं। संचार माध्यमों के विस्तार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, मीडिया के विस्तार और विश्व स्तरीय संस्थाओं के भारत में खुलने से महिलाओं को समान अवसर और अपने अधिकारों के प्रति जागृत करने का काम किया है। इस से महिलाओं के स्तर में बदलाव लाने की कुछ हद तक कोशिश भी सफल हुई। गैर सरकारी संगठनों के आने से महिलाओं में साक्षरता और वोकेशनल प्रशिक्षण का लाभ भी मिला है। लेकिन खुले बाजार से पैदा हुई उपभोक्ता संस्कृति का शिकार भी महिलाएं बनीं। इस संस्कृति ने महानगरों से लेकर छोटे शहरों की महिलाओं को महज उपभोक्ता और उत्पादक बनाने का काम अधिक किया है। ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया ने विकास के नए आयाम बनाए हैं लेकिन लाभों के असमान वितरण से आर्थिक असमानता बढ़ी है।
          वर्ष 2000 में बीजिंग प्लस 5 परिपत्र में 1995 में हुए संयुक्त राष्ट्र महिला सम्मेलन के बाद से हुई प्रगति का आकलन करते हुए कहा गया है कि ग्लोबलाइजेशन कुछ महिलाओं को अवसर प्रदान करता है लेकिन बहुत सी महिलाओं को हाशिये पर भी धकेलता है इसलिए समानता के लिए उन्हें मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। ग्लोबलाइजेशन के मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए यह स्पष्ट है कि इससे समान रूप से महिलाओं का भला होने वाला नहीं। ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है जो महिलाओं की कार्यक्षमता को बढ़ाने और भूमंडलीकरण के नकारात्मक सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का सामना करने के लिए उन्हें सशक्त बनाने का काम करे। भूमंडलीकरण का महिलाओं का उचित लाभ पहुंचे इसके लिए रोजगार की नीतियां को दुबारा तैयार करना होगा। ऐसे अवसरों का निर्माण करना होगा जिसमें महिलाएं विकास की प्रक्रिया में भागीदार बने। इसके लिए ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया के स्वरूप को बदलने की जरूरत है ताकि महज लाभपर केंद्रित नीतियों की बजाय ऐसी नीतियां बने जो लोगों पर केंद्रित हों और महिलाओं के प्रति अधिक जवाबदेह हो ।



[1] साधना आर्य, निवेदिता मेनन,जिनी लोकनीता : नारीवादी राजनीति, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली 

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