समाचार
पत्रों में भारतीय चिंतन एवं दृष्टि
डॉ. रामशंकर
स्वाधीनता के पूर्व पत्रकारिता के लक्ष्य राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक उत्थान और लोकजागरण के लिए जनमानस में प्रेरणा का एक सशक्त स्वर। हिंदी के विकासक्रम में कुछ संपादक प्रकाशस्तंभ बने, जिन्होंने अपने समय में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करायी और अनेक ऊर्जावान नव पत्रकारों को मिशनरी (लक्ष्यवेधी) पत्रकारिता के लिए तैयार किया। वास्तव में वह पूरा शुरूआती समय समाचार पत्रों का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। हिंदी के गौरव को स्थापित करने, हिंदी साहित्य को बहुमुखी बनाने, भारतीय भाषाओं की रचनाओं को हिंदी में लाने, हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के महत्व पर टिप्पणी करने तथा इन सबके साथ सामाजिक उत्थान का निरंतर प्रयत्न करने में ये सभी पत्रकार अपने अपने समय में अग्रणी रहे।
’हिंदी प्रदीप’ के संपादक बालकृष्ण भट्ट केवल पत्रकार ही नहीं, एक महान साहित्यकार भी थे। विभिन्न विधाओं में उन्होंने रचनाएँ कीं जिन्हें पढ़ने पर यह पता चलता है कि भट्ट जी की शैली में कितना ओज और प्रभाव था। सरल और मुहावरेदार हिंदी लिखना उन्हीं से आगे अपने वाले पत्रकारों ने सीखा। एक तो उन्होंने निर्भीक पत्रकारिता को जन्म दिया, दूसरे गंभीर लेखन में भी सहजता बनाए रखने की शैली निर्मित की, तीसरे हिंदी साहित्य की समीक्षा को उन्होंने प्रशस्त किया और चौथे हिंदी पत्रकारिता पर ब्रिटिश साम्राज्य के किसी भी प्रकार के अत्याचार का उन्होंने खुलकर विरोध किया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चंद्रिका, बालाबोधिनी हिंदी वैकल्पिक पत्रकारिता के ही नहीं, आधुनिक हिंदी की महावपूर्ण पत्र पत्रिकाएँ मानी जाती हैं। भारतेंदु ने अपने पत्रों और नाटकों के द्वारा आधुनिक हिंदी गद्य को इस तरह विकसित करने का प्रयत्न किया कि वह जनसाधारण तक पहुँच सके। संस्कृत और उर्दू दोनों की अतिवादिता से हिंदी को बचाते हुए उन्होंने बोलचाल की हिंदी को ही साहित्यिकता प्रदान करके ऐसी शैली शुरू की जो वास्तव में हिंदी की केंद्रीय शैली थी और जिसे बाद में महात्मा गांधी और प्रेमचंद ने ’हिंदुस्तानी’ कहकर अखिल भारतीय व्यवहार की मान्यता प्रदान की। भारतेंदु के लिए स्वभाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों का मूलाधार थी। ’बालाबोधिनी’ महिलाओं पर केंद्रित पत्रिका है, जिसमें महिलाओं ने लिखा और भारतेंदु की प्रेरणा से अनेक महिलाएँ हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में आयी। ज्ञान विज्ञान की दिशा में हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध करने का कार्य भी भारतेंदु ने ही पहली बार किया। इतिहास, विज्ञान और समाजोपयोगी सामयिक विषयों पर उनकी पत्रिकाओं में उत्कृष्ट सामग्र छपती थी। आज के समय के लोग भले ही इन पत्रिकाओं को उस समय की मुख्यधारा की पत्रिका मानता हो, लेकिन मुख्य रूप से ये पत्रिकाएँ अपनी एक समाज के कुछ उद्देश्यों को लेकर ही चलायी जा रही थी।
ब्राह्मण के संपादक प्रताप नारायण मिश्र आधुनिक हिंदी के सचेतन पत्रकार माने जा सकते हैं। उन्होंने हिंदी गद्य और पद्य दोनों को नया रूप एवं संस्कार दिया। इनके समय तक प्रचलित हिंदी या तो अरबी-फारसी मिश्रित थी, या संस्कृतनिष्ठ, अथवा उसमें भारतेंदु की तरह बोलियों का असंतुलित मिश्रण था। मिश्र जी ने ठोस हिंदी गद्य को जन्म दिया। देशज, उर्दू और संस्कृत का जितना सुंदर मिश्रित प्रयोग मिश्र जी में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। वे हिंदी की प्रकृति को एक विशिष्ट शैली में ढालने वाले पहले पत्रकार थे।
महामना मदनमोहन मालवीय के पत्र, हिंदोस्थान, अद्भुय, मर्यादा का हिंदी के प्रति दृष्टिकोण बड़ा ही दृढ़ था। वे हिंदी के कट्टर समर्थक थे। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना उन्होंने अपने इसी हिंदी प्रेम के कारण की थी। वे समय-समय पर अनेक पत्रों से संबद्ध हुए। हिंदी के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत साफ था कि हिंदी भाषा और नागरी अक्षर के द्वारा ही राष्ट्रीय एकता सिद्ध हो सकती है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी हिंदू विश्वविद्यालय और हिंदी प्रकाशन मंडल की स्थापना करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के उत्थान का रास्ता ही भारत के उत्थान का एक मात्र रास्ता है। मालवीय जी वाणी के धनी थे, जितना प्रभावशाली बोलते थे, उतना ही प्रभावशाली लिखते थे। हिंदी भाषा का ओज उनकी पत्रकारिता से प्रकाशित होता है।

हिंदी
के शीर्षस्थ कथाकार प्रेमचंद का एक प्रेरक स्वरूप उनके जागरूक पत्रकार के रूप में
भी है । ’माधुरी’,
’जागरण’ और ’हंस’ का संपादन करके उन्होंने अपनी इस प्रतिभा का भी उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया
और हिंदुस्तानी शैली को सर्वग्राह्य तथा लोकप्रिय बनाने का महत्व कार्य किया। कर्मवीर, प्रभा और प्रताप में माखनलाल चतुर्वेदी ने साहित्य, समाज और
राजनीति, तीनों को अपनी पत्रकारिता में समेटकर सम्पादन
किया। उनकी साहित्य साधना भी अद्भुत थी। उनके भाषण और लेखन में इतनी धार थी कि वे
समाज से जुड़े मुद्दों को एक कुशल तरीके से अपने लेखन में समेत लेते थे। उनका यह
स्वरूप भी उनके पत्रों के लिए वरदान साबित हुआ। उनका लेखन हिंदी भाषा के प्रांजल
प्रयोग का उदाहरण है। उनका यह कहना था कि ’ऐसा लिखो
जिसमें अनहोनापन हो, ऐसा बोलो जिस पर दुहराहट के दाग न
पड़े हो’। गणेश शंकर विद्यार्थी
ने अभ्युदय और प्रताप में हिंदी पत्रकारिता में बलिदान
और आचरण का अमर संदेश प्रसारित किया और हिंदी भाषा को ओजस्वी लेखन का मुहावरा
प्रदान किया।
स्वातंत्र्योत्तर
हिंदी पत्रकारिता में अज्ञेय ने प्रतीक, नया प्रतीक,
दिनमान,और नवभारत टाइम्स को साहित्यिक
पत्रकारिता को नवीन दिशाओं की ओर मोड़ा। ’शब्द’ के प्रति वे सचेत थे इसलिए भाषा और काव्य भाषा पर ’प्रतीक’ में संपादकीय, लेख, चचाएँ, परिचर्चाएं
प्रकाशित होती रहती थीं। अज्ञेय ने ’दिनमान’ के माध्यम से राजनैतिक समीक्षा और समाचार विवेचन की शैली हिंदी में विकसित
की। उन्होंने ’नवभारत टाइम्स’ के साहित्यिक- सांस्कृतिक परिशिष्ट को ऊँचाई प्रदान की जिससे कि दैनिक
पत्र का पाठक भी इनके महत्व को समझने लगा।
दरअसल 1857 की
क्रांति की असफलता के बाद देश का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजों की शैली को अपनाने की
होड़ में आगे बढ़ने लगा था। तिलक इस समूह को सतर्क करना चाहते थे। उन्होंने एक
शिक्षा समिति गठित की। उसका नाम दक्षिण शिक्षा सोसायटी रखा। उसमें शिक्षा तो
आधुनिक शैली में थी, पर उसमें भारतीय चिंतन एक प्रमुख पक्ष
था। इसके साथ उन्होंने दो समाचार पत्रों का प्रकाशन आरंभ किया। एक मराठी में और एक
अंग्रेजी में। मराठी समाचार पत्र का नाम केसरी और अंग्रेजी समाचार पत्र का नाम
मराठा दर्पण रखा। इन दोनों ही समाचार पत्रों में भारतीय संस्कृति की महत्ता और
विदेशी शासन द्वारा दमन किये जाने का विवरण होता।
समाचार
पत्र भारतीय चिंतन को प्रकाशित करने में अहम भूमिका निभा रहे है। ऐसे में बहुत
सारे समाचार पत्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों, त्योहारों,
पर्व, तिथियों संबंधित तथ्यों और दस्तावेजों
को प्रकाशित कर समाज में संस्कृति को जीवंत करने की कोशिश में भागीदारी निभा रहे
हैं। उदाहरण के तौर पर अमर उजाला, जागरण जैसे समाचार पत्र
अपने पहले पेज पर तिथि भारतीय पांचाग के अनुसार प्रकाशित करते हैं। हाल में चल रही
नवरात्रि व दशहरा के कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से प्रकाशित करना भी सांस्कृतिक
चेतना को बढ़ावा देना है। हम शहर की बात करें तो समाज में हो रहे नवरात्र के
कार्यक्रम और डांडियां नृत्यों की कवरेज से अन्य लोगों को भी समाचार पत्रों से पता
चलता है। नवरात्र के सभी दिनों में समाचार पहले पेज पर देवियों क चित्रों के साथ
संक्षिप्त विवरण देते हैं। यह भी सांस्कृतिक चेतना का प्रसार है। इसके अलावा होली,
दीवाली और राष्ट्रीय पर्व के कार्यक्रमों का प्रकाशन भी समाचार
पत्रों की इसी भूमिका में आता है।
बहरहाल
एक ओर हम जहां यह पाते हैं कि आज के मीडिया जगत में काफी गिरावट आई है और
सांस्कृतिक चेतना से संबन्धित समाचारों और विचारों के प्रकाशन की गति धीमी हुई है
वहीं जनमाध्यमों द्वारा सांस्कृतिक पक्ष जैसे यात्राएं, मेले, स्नान, कुंभ उत्सव,
पूजा पद्धति आदि का वैश्विक विस्तार भी हुआ है। समाचार-पत्रों का
तौर-तरीका, कार्यशैली और चलन सब कुछ परंपरागत मीडिया से
बिल्कुल अलग और अनोखा दिखाई देने लगा है।
अब पाठक समाचार के लिए
अख़बार नहीं पढ़ते बल्कि वह घटनाओं को समझने और उनके विश्लेषण के लिए पढ़ते हैं। उन्होंने कहा कि कोई
यह नहीं जानना चाहता कि कल क्या हुआ था। वह यह जानना चाहते हैं की आने वाले कल क्या होने
वाला है। समाचारपत्र उसी समय सफल
होंगे जब वह किसी नई कहानी को अलग और दिलचस्प अंदाज़ में सुनाएंगे। लोगों को ऐसी
पत्रकारिता नहीं चाहिए जो केवल समस्याओं की बात करे बल्कि उन्हें ऐसी पत्रकारिता
चाहिए जो उन के समाधान के रास्ते बताए।