वैचारिक मंच ‘सोशल मीडिया’: चुनौतियाँ व वस्तुस्थिति
डॉ रामशंकर 'विद्यार्थी'

सोशल मीडिया किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इसका नाम दिमाग में आते ही सबसे
पहले फेसबुक, टिवटर, लिंकइन, यू-टूब, ब्लाग हमारे दिमाग में आता है। आज के वैश्विक परिवेश में
सोशल मीडिया की लोकप्रियता और उपयोगिता का अंदाजा इस रिपोर्ट से लगाया जा सकता है।
अमरिका के यूनाईटेड साईबर स्कूल के मुताबिक रेडियो को 50 मिलियन लोगों तक पहुँचने में 38 साल, टीबी को 13 साल, इंटरनेट को 4 साल और फेसबुक को 100 मिलियन लोगों तक पहुँचने में मात्र नौ महीने का समय लगा।
एक और ध्यान देने वाली बात है कि यह केवल युवाओं की पंसद नहीं बल्कि 60-80 साल के बुजुर्ग भी इस पर सक्रिय रहतें है।
सोशल मीडिया ने आम लोगों को एक ऐसा मंच दिया है, जिससे वो अपनी बातें बिना किसी डर के दुनिया के किसी भी
व्यक्ति के पास पलक झपकते ही पहुंचा सकते है। पंसद, नापंसद, अभिवयक्ति की आजादी जैसे शब्दों को सही साबित करने में इस
मंच का योगदान सराहनीय रहा है। आज ज्यादातर युवा जानकारी के लिए इस पर निर्भर
रहतें है। यूके में 75 प्रतिशत लोग अपनी जानकारी बढाने के लिए ब्लाॅग का इस्तेमाल
करते हैं। एक तरह से सूचनाओं, जानकारियों का विकेन्द्रीकरण हुआ है, अब लोग किसी सूचना के लिए एक व्यक्ति या संस्था पर आश्रित
नहीं हैं। बस एक क्लिक करने की जरुरत है, सूचनाओं का भंडार आपके सामने है। सही मायने में सोशल मीडिया
गाँव के चैपाल की तरह है, जहां इसका हर एक सदस्य अपने साथियों के साथ तुरंत और लगातार सूचनाओं को साझा
और उसपर प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है। इस तरह किसी भी सूचना या विचार को एक साथ
कई व्यक्ति तक पहुँचने में कुछ सेकेंड का ही समय लगता है। यही इसकी सबसे बडी खूबी
है,
वहीं ट्रेडिशनल मीडिया में प्रतिक्रिया व्यक्त करने का कोई
माध्यम हीं नहीं है।
सोशल मीडिया समाज की बनी बनायी स्वनिर्मित परिपाटियों से कहीं आगे निकलकर नित
नये संवाद रचने का सामथ्र्य है। यहाँ कोई संपादक नहीं है। यहाँ कोई बंधे हुये नियम
भी नहीं हैं। यह नये पत्रकारों, लेखकों, कवियों, टिप्पणीकारों और कई बार बहुत से खाली लोगों का एक ऐसा मंच
है,
जिसमें अभिव्यक्ति की अभूतपूर्व आजादी और क्षमता है। तेजी
से बदलती दुनिया, तेज होते शहरीकरण और जड़ों से उखड़ते लोगों व टूटते सामाजिक ताने-बाने ने सोशल
मीडिया को तेजी से लोकप्रिय बनाया है। सुविख्यात ब्रिटिश जस्टिस लॉर्ड ब्रियन
लेविसन ने सामाजिक अभिव्यक्ति के प्रश्न पर अपनी प्रस्थापना में कहा है कि
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्रबल बुनियादी पहलू
है,
किन्तु किसी तौर पर सभ्य समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
वस्तुतः उछृलंख अमर्यादित कदापि नहीं हो सकती।
सीरिया में महिला अधिकारों के लिए संघर्षरत दाना बकदोनिस ने 21 अक्टूबर को फेसबुक पेज के लिए और अरब दुनिया में उत्पीड़ित
महिलाओं और लड़कियों के लिए कुछ करने का सोचा और अपनी फोटो पोस्ट की। दाना फेसबुक
पर ‘द अपराइजिंग ऑफ वीमन इन द अरब वर्ल्ड’ को बराबर फॉलो करती रही हैं। इस फेसबुक पेज के लगभग 70 हजार सदस्य हैं। दरअसल ये अरब दुनिया में महिला अधिकारों
और लैंगिक भूमिकाओं पर बहस के लिए एक अच्छा खासा मंच बन गया है। महिला, पुरूष और गैर अरब पृष्ठभूमि वाले लोग भी इसकी तस्वीरों पर
कमेंट कर सकते हैं।
इसके साथ उनके हाथ में एक नोट भी है, जिस पर लिखा है ‘जब मैंने अपना हिजाब उतारा तो सबसे पहली बात जो मैंने महसूस
की,
वो ये कि मैं अरब दुनिया में महिलाओं की क्रांति के साथ
हूं। बीस साल तक मुझे अपने बालों और शरीर पर हवा को महसूस नहीं करने दिया गया।’ इस तस्वीर पर बहुत विवाद हुआ। इसे 1600 लाइक मिले, 600 लोगों ने इसे शेयर और 250 से ज्यादा कमेंट आए। दाना को बहुत समर्थन मिला। जहां
फेसबुक पर उन्हें बहुत से दोस्तों ने अनफ्रेंड कर दिया वहीं इससे ज्यादा लोगों ने
उन्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। इसके जवाब में कुछ दूसरी महिलाओं ने भी अपने इसी
तरह के फोटो लगाए।
इस फेसबुक पन्ने को चलाने वालों ने जोर शोर से दावा किया कि फेसबुक के
एडमिनिस्ट्रेटर्स ने 25 अक्टूबर को दाना का फोटो हटा दिया। साथ ही दाना और ‘द अपराइजिंग ऑफ वीमन इन द अरब वर्ल्ड’ के अन्य एडमिनिस्ट्रेटर्स को ब्लॉक कर दिया गया है। जब
फेसबुक से इस बारे में टिप्पणी मांगी गई तो उन्होंने कहा कि इस फोटो से फेसबुक के
नियमों का कोई उल्लंघन नहीं होता है, लेकिन ये माना कि इस मामले में उनकी तरफ से कई गलतियां हुईं।
यह एक ऐसी घटना है जो सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतान्त्रिक दायरे
की सीमा रेखा को बताती है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बढ़ते प्रभाव को मार्च 2011 में मिस्र में हुये सत्ता परिवर्तन को नई दिशा दी है।
खासकर फेसबुक के जरिये लगभग पचास लाख लोगों ने होस्नी मुबारक के खिलाफ चल रहे
जनसंघर्ष को साथ दिया। बाद सत्ता हथियाने के बाद इसे सोशल नेटवर्किंग साइट्स
क्रांति का नाम दिया। मिस्र के सत्ता परिवर्तन और सोशल नेटवर्किंग को घाल-मेल कर
पेश किया गया, जैसे
इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिये ही लोग सत्ता परिवतन में एकजुट हो पाये हैं।
ठीक उसी प्रकार भारत में भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स कि खबरें देखने व सुनने को
मिली । जन लोक पाल बिल के लिए अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों का आंदोलन सोशल मीडिया में
खूब पढ़ा गया।
‘अगस्त, 2011 में लंदन में हुये दंगों की जांच कर रही कमेटी ने दंगों को
भड़काने में मीडिया की भूमिका को कटघरे में खड़ा किया है। समिति ने रिपोर्ट में लिखा
है कि मीडिया ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर चल रही अफवाहों को खबर बनाया है, जिसने दंगों को भड़काने में मदद की है।’ ज्यादातर लोग इंटरनेट को ज्यादा लोकतान्त्रिक दुनिया के तौर
पर देखते हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि इंटरनेट की दुनिया में सबसे गतिशील सोशल
नेटवर्किंग साइट्स लोकतान्त्रिक देशों की तरह आर्थिक स्तर पर लोकतान्त्रिक होने की
बुनियाद पर खरी नहीं उतरती है ।
अध्ययन में उत्तरदाता से प्राप्त आकड़ों के विश्लेषण से तथा अवलोकन द्वारा
प्राप्त आकड़ों से यह निष्कर्ष निकलता है कि
सोशल मीडिया में लोगों का रुझान तेजी से बढ़ा है। सोशल मीडिया में सोशल
नेटवर्किंग साइट्स ठीक वैसे ही है जैसे विज्ञापन में दिखने वाली वस्तु जरूरी नहीं
की हकीकत में भी वह वैसी ही हो सबसे बड़ा भ्रम अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर है।
यहाँ अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर दो तरह सवाल उभरते हैं। पहल की कोई आज़ादी है तो
हकीकत में कितनी आज़ादी है और इस आज़ादी पर कैसे- कैसे अवरोध है। दूसरा यह कि यहाँ
पर मिलने वाली आज़ादी के मायने क्या हैं ,या समाज के साथ उनका क्या रिश्ता बनता है। जब अवरोधों कि
बात करते है तो सरकार के कानून कायदे या नियम ही नहीं बल्कि सोशल नेटवर्किंग
साइट्स के संचालकों कि मर्जी भी आड़े आती है। सोशल मीडिया के जरिये अलग-अलग किस्म
के कई नए रोजगारों का सृजन हो रहा है।
‘मेरीलैंड यूनिवर्सिटी के रॉबर्ट एच स्मिथ स्कूल ऑफ बिजनेस
की ताजा स्टडी के मुताबिक फेसबुक के चलते बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिला है।
इस अध्ययन के मुताबिक सिर्फ फेसबुक से जुड़े विभिन्न एप्लिकेशंस के विस्तार के
जरिये इस साल अमेरिका में दो लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार मिला है। इससे अमेरिकी
अर्थव्यवस्था को करीब 15.71 अरब डॉलर यानी 75 हजार करोड़ रुपये का योगदान मिला। वायर्ड पत्रिका के
मुताबिक ब्रिटेन का लगभग आधा कारोबार अब किसी न किसी स्तर पर सोशल मीडिया के मंचों
का लाभ ले रहा है।’ यही वजह है कि सोशल मीडिया से जुड़े रोजगार बढ़ रहे हैं। भारत में भी हाल अलग
नहीं है। खास बात यह कि इस क्षेत्र में उन युवाओं के लिए ज्यादा मौके हैं जिनके
पास खास अनुभव नहीं है। मुंबई-चेन्नई और दिल्ली के अखबारों में हाल में ऑनलाइन
सोशल मीडिया मैनेजमेंट नाम से निकले कई भर्ती विज्ञापनों में अनुभव कैटेगरी में
लिखा गया शून्य, लेकिन
सवाल सोशल मीडिया से जुड़े रोजगारों की मांग का नहीं बल्कि उनकी पूर्ति का है।
इसमें भी बड़ा सवाल महानगरों से इतर युवाओं के इस नए किस्म के रोजगार में संभावना
का है।
सभ्य समाज सकारात्मक और द्वंदात्मक तौर तरीकों से स्वयं ही सुनिश्चित किया
करता है कि अभिव्यक्ति कि आखिरकार कौन सी मर्यादाएं कायम रहेंगी। विश्व पटल सोशल
मीडिया के आने के तत्पश्चात अभिव्यक्ति की आज़ादी का ताकतवर पहलू सामने आया है।
सोशल मीडिया ने शक्तिशाली रूप में स्थापित होकर संस्थागत संगठित मीडिया के
एकाधिकार से विचारों के प्रचार प्रसार को बाहर कर दिया है। सोशल मीडिया ने अरब
देशों में लोकतान्त्रिक इंकलाब को कामयाब अंजाम तक पहुंचाने में ऐतिहासिक भूमिका
का निर्वाह किया है। सोशल मीडिया के द्वारा दिल्ली के जंतर मंतर पर भ्रष्टाचार
विरोधी अन्ना आंदोलन में भ्रष्टाचार की दलदल में फंसे शासक वर्ग के छक्के छुड़ा
दिये।
सोशल मीडिया की अपार शक्ति के खतरनाक दुरुपयोग की संभावना भी किसी तौर पर उसी
तरह विद्यमान है, जिस तरह प्रचार प्रसार माध्यम तहत विद्यामान रही, राष्ट्र और समाज में विनाशकारी वैमनस्य फैलाने और उसे
तीव्रतर तौर से विषमय बनाने में भी सोशल मीडिया कारगर साबित हो रही है। अतः भारतीय
समाज को सुनिश्चित करना है कि सोशल मीडिया द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की
आखिर क्या हद तय हो, ताकि व्यक्ति बेवजह एसका इस्तेमाल न कर सके। सोशल मीडिया पर तमाम विनाशकारी
सांप्रदायिक, वैमनस्यपूर्ण
जातिवाद तथा अश्लील सामग्री डाली जाती है। पृथकवाद से भारत को पहले बहुत हानि
पहुंची है, अतः
अध्ययन से पता चलता है कि इन तमाम देशद्रोही तत्वों पर लगाम कसना आवश्यक है। सोशल
मीडिया को अन्य प्रचार प्रसार के माध्यम के तर्ज पर ही लिया जाना चाहिए इसके साथ
कोई अलग वैधानिक व्यवहार की दरकार नहीं होनी चाहिए।