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सोमवार, 19 मार्च 2018

दुग्ध व्यवसाय : गरीबी उन्मूलन का सशक्त साधन




दुग्ध व्यवसायः गरीबी उन्मूलन का एक सशक्त साधन
डॉ. रामशंकर
(माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता
एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल के नोएडा परिसर



भारत में दुग्ध उत्पादन की एक स्वस्थ परंपरा भारत में सदियों से चली आ रही है। भारतीय संस्कृति में दूध से बने उत्पाद इस प्रकार रचे-बसे है, जैसे मनुष्य का उसके जीवन से नाता है। दूध और दही से बनने वाले खाद्य पदार्थाे का उपभोग हमारे दैनिक खानपान का एक हिस्सा बनकर हमारी आदतों में शुमार हो गया है। रोजगार उत्पन्न करने से लेकर आमदनी बढ़ाने तक दोनों ही स्तर से पशुपालन के व्यापक क्षेत्र में दुग्ध व्यवसाय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के भारत बहुत ही तेजी से विकास के पथ पर अग्रसर हुआ। हमारे विकास के पैमाने में दुग्ध उत्पादन व्यवसाय भी शामिल रहा है। ग्रामीण भारत के विभिन्न सामाजिक और आर्थिक विकास पर इस सहकारी दुग्ध संघों का व्यापक प्रभाव रहा है। वर्तमान में दुग्ध उत्पादन का सबसे बड़ा हिस्सा भारत में उत्पादित होता है। वर्ष 2012 के आकड़ों के अनुसार भारत में 11करोड़ 15 लाख मीट्रिक टन दूध का उत्पादन भारत में होता है। 

लगभग 40 के दशक के आसपास दुग्ध का उत्पादन तथा दुग्ध उत्पादों का उत्पादन आमतौर पर असंगठित क्षेत्र के हाथ में था। दूध की गुणवत्ता (क्वालिटी) और मात्रा (क्वांटिटी) बढ़ाने पर खास ज़ोर नहीं दिया जाता था। न केवल शहरों में स्थित दुग्ध उत्पादन केन्द्रों या गाय भैंस के तबेलों से ही शहरों में गंदगी फैलती थी, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी पशुधन की स्थिति भी बड़ी खराब हो रही थी। दूध खरीदने वाले उपभोक्ताओं के सामने भी घटिया गुणवत्ता का दुग्ध और दुग्ध उत्पाद खरीदने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। खराब गुणवत्ता का दुग्ध या दुग्ध जनित पदार्थ सेवन करने अनेक बीमारियाँ पैदा हो जाया करती थी। किसानों के लिए दुग्ध व्यवसाय घाटे का सौदा हो गया था । बीमारियों की वजह से कभी-कभी जानवरों की अकाल मृत्यु हो जाया करती थी और बिचैलिये और ठेकेदार भी उनका शोषण करते थे। किसानों को उनके दूध की कम से कम कीमत मिलती थी और बीच में ठेकेदार अपनी खूब जेबें भर रहे थे। ऐसे में सदियों से चली आ रही दुग्ध उत्पादन की हमारी समृद्ध परंपरा बड़ी तेजी से बिगड़ती जा रही थी और डेयरी में आत्मनिर्भरता हमसे कोसों दूर थी। वर्ष 1950 के आसपास भारत में कुल उत्पादन 170 लाख मीट्रिक टन ही हो पाता था और घरेलू मांग को पूरा करने के लिए हमें न्यूजीलैंड और यूरोप से मिल्क पाउडर के आयात पर निर्भर रहना पड़ता था और आयात के नाम पर करोड़ों डालर खर्च करना पड़ता था।
भारत में दुग्ध व्यवसाय को कृषि के सहायक व्यवसाय के रूप में देखा जाता है। खेती किसानी से बचे कचरे, घास-फूस के इस्तेमाल और परिवार के लोगों के श्रम के जरिये ही इस व्यवसाय की साज-संभाल होती है। देश के करीब 7 करोड़ ग्रामीण परिवार दुग्ध व्यवसाय में लगे हुए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 70 प्रतिशत मवेशी छोटे, मझौले और सीमान्त किसानों के पास हैं, जिसकी पारिवारिक आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा दूध बेचने से प्राप्त होता है। तब से लेकर अब तक दुग्ध उत्पादन क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव आया है, इसका पूरा का पूरा श्रेय डेयरी क्षेत्र को जाता है। डेयरी क्षेत्र में ग्रामीण दुग्ध सहकारी संघों के प्रादुर्भाव ने ग्रामीण इलाकों की काया पलट कर दी है। दुग्ध सहकारी संघों की शुरुआत स्वतंत्रता के समय से मानी जाती है। इसकी शुरुआत गुजरात के खेड़ा जिले से हुई। वर्ष 1945 में किसानों ने ठेकेदारों के खिलाफ आर्थिक शोषण पर आवाज उठाई जो अंग्रेजों के नाम पर दूध इकट्ठा कर रहे थे। 

तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने दूध इकट्ठा करने का एकाधिकार पोल्सन नाम की कंपनी को दे दिया था। कंपनी ठेकेदारों के माध्यम से दूध इकट्ठा करवाती थी, जो सबसे कम दाम पर किसानो का दूध छीन रहे थे। उस दौरान सरदार बल्लभ भाई पटेल ने किसानों को अपना सहकारी संघ बनाने की सलाह दी। उन्होने बताया कि जब डेयरी व्यवसाय पर पूरा-पूरा नियंत्रण उनका होगा, तब जाकर मुनाफा मिलेगा। किसानों का केवल दुग्ध उत्पादन पर ही बल्कि दूध इकट्ठा करने, परिष्कृत करने तथा उसको बेचने पर पूरी तरह से नियंत्रण होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो उन्होंने किसानों को पूरी तरह बिचैलियों से मुक्त कर सहकारी संगठन बनाने का पूरा प्रयास किया।
हड़ताल कामयाब रही और दूध इकट्ठा करने पर लगा एकाधिकारी नियंत्रण लगभग समाप्त सा हो गया। औपनिवेशिक सरकार ने किसानों को सहकारी संगठन बनाने के लिए इजाजत दे दी। ग्राम स्तर की दो छोटी-छोटी संस्थाओं तथा प्रतिदिन 247 लीटर से शुरू यह सहकारी संगठन निरंतर उत्तरोत्तर बढ़ता गया, अब यह संगठन लगभग 1 अरब लीटर के प्रतिदिन के दुग्ध व्यवसाय में बदल सा गया है। यही है खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादन संघ की उत्पत्ति। आज यह संघ आमूल के नाम से प्रसिद्ध है। इसके पश्चात भारत में अनेक दुग्ध संघो के निर्माण ने करोड़ो भारतवासियों की सामाजिक व आर्थिक क्रांति कर जिंदगियाँ बदल दी। दुग्ध सहकारी संघों का एक विवरण निम्नलिखित है –
o   भारत में दुग्ध सहकारी संघों लगभग सवा करोड़ किसान परिवारों की जिंदगियाँ जुड़ी है । अकेले गुजरात में लगभग 23 लाख लोग आमूल परिवार के अभिन्न अंग हैं। दुग्ध उत्पादन अब आजीविका का एक साधन बन गया है जिससे ग्रामीण भारत के आर्थिक विकास में मदद मिल रही है।
o   भारत के लगभग एक लाख गांवों में दुग्ध उत्पादन संघ कार्यरत हैं, जिससे किसानों कि आमदनी बढ़ी है और वे समृद्ध हो रहे हैं। देश में लगभग 200 जिलों में ग्राम स्तरीय दुग्ध उत्पादक संघ बना लिए हैं। ये संघ, ग्राम स्तरीय संघ से दूध लेकर स्वयं मूल्यवर्धक बनाने तथा प्रसंस्करण का काम करते हैं।
सरकार दुग्ध उद्योग क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनायें चला रही है। दुग्ध व्यवसाय की प्रगति हेतु सरकार सक्रिय सहयोग दे रही है। इसकी शुरुआत 1970 में शुरू किए गए आपरेशन्स फ्लडयोजना के अन्तर्गत आई श्वेत क्रान्ति से हुई। इस योजना ने सहकारी क्षेत्र में दुग्ध व्यवसाय को अपना कर किसानों को अपने विकास का मार्ग प्रशस्त करने में और एक राष्ट्रीय दुग्ध ग्रिड के जरिये देश के 700 से अधिक शहरों और कस्बों में उपभोक्ताओं तक दूध पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके अतिरिक्त, सरकार ने ग्रामीण स्तर पर उच्च गुणवत्ता वाले दूध के उत्पादन के लिए गुणवत्ता संरचना सुदृढीक़रण एवं स्वच्छ दूध उत्पादन नाम से एक नई केन्द्र प्रायोजित योजना शुरू की।
इसका उद्देश्य दूध दुहने की सही तकनीक के बारे में किसानों को प्रशिक्षण देकर, उन्हें डिटर्जेंट, स्टेनलेस स्टील के बर्तन आदि देकर, मौजूदा प्रयोगशालाओं- सुविधाओं के सुदृढीक़रण, मिलावट की जांच किट, कीटनाशक दवाएं आदि उपलब्ध कराकर ग्रामीण स्तर पर उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे दूध का उत्पादन बढ़ाना है, ताकि स्वच्छ दूध का संग्रहण सुनिश्चित किया जा सके। इसके अलावा, इस योजना के तहत गांवों में ही बड़े पैमाने पर दूध ठंडा करने वाली सुविधायें भी मुहैया कराई गईं। आरंभ होने से अब तक (जुलाई 2009), 21 राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में 1 अरब 95 करोड़ 17 लाख रुपए के खर्च से 131 परियोजनायें मंजूर की जा चुकी हैं, जिनमें से केन्द्र का अंश 2 अरब 51 करोड़ 38 लाख रुपए का रहा। योजनान्तर्गत 21 लाख 5 हजार क्षमता के कुल 1362 बृहद दुग्ध प्रशीतक (बल्क मिल्क कूलर्स) लगाए गए हैं। इस योजना के फलस्वरूप कच्चे दूध के शेल्फ लाइफ (घर में दूध को रखना) में वृध्दि हुई है। इससे दूध की पड़ोस के प्रशीतक केन्द्र पर कम खर्च में भेजा जा सकता है। दूध की बरबादी में कमी आई है, जिससे किसानों की आमदनी में बढ़ोतरी हुई है।
 डेयरी उद्यमिता विकास योजना
डेयरी क्षेत्र में निजी निवेश को बढावा देने के लिए डेयरी उद्यमिता विकास य़ोजना (डीईडीएस) 1 सिंतबर 2010 को शुरू की गई। इस योजना का उद्देश्य स्वरोजगार के अवसर बढाकर गरीबी कम करने के साथ देश में निवेश बढाकर दूध का उत्पादन बढ़ाना था। नाबार्ड के माध्यम से लागू होने वाली इस योजना के अंतर्गत वित्तीय सहायता व्यावसायिक, सहकारी, शहरी और ग्रामीण बैंकों के माध्यम से सामान्य श्रेणी के आवेदकों को 25 प्रतिशत की पूंजीगत सब्सिडी और अनुसूचित जाति और जनजाति के लाभार्थियों को 33 प्रतिशत की सहायता केंद्रीय सहायता के तौर पर प्रदान की जाती है। इस योजना का लाभ किसान, व्यक्तिगत उद्यमी, संगठित और असंगठित क्षेत्र के समूह इस योजना के अंतर्गत लाभ लेने के योग्य हैं।
अपनी शुरूआत के बाद से ही नाबार्ड ने 31 दिंसबर 2012 तक 62,046 डेयरियों को स्थापित करने के लिए 251.20 करोड़ रूपए की राशि वितरित की है। इसके अलावा इस योजना को लागू करने के लिए वर्ष 2012-13 के दौरान सरकार ने  140 करोड़ रूपए जारी किए हैं, जिसमें से 31 दिसंबर 2012 तक नाबार्ड ने 32,749 डेयरी स्थापित करने के  लिए 127.13 करोड़ रूपए जारी किए हैं।  
सहकारी संस्थाओं को सहायता
वर्ष 1999-2000 के दौरान जिला स्तरर पर रुग्ण् डेयरी सहकारी मिल्क यूनियन तथा राज्य स्तर पर मिल्क फेडरेशनों के पुनरुत्थान के उद्देश्य से योजना की शुरुआत की गई थी। योजना को सरकार तथा संबंधित राज्य सरकार के बीच 5050 हिस्सेदारी के आधार पर राष्ट्रीय डेयरी टेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीपी) के माध्यम से लागू किया जा रहा है। संबंधित राज्य मिल्क फेडरेशन/जिला मिल्क यूनियन से परामर्श करते हुए पुनरुत्थान योजना को राष्ट्रीय डेयरी टेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीपी) ने तैयार किया है। प्रत्येक पुनरुत्थान योजना को इस ढ़ंग से तैयार किया गया है कि इनके अनुमोदन की तारीख से सात वर्ष की अवधि के भीतर रुग्ण सहकारी संस्था सकारात्मक ढ़ंग से कार्य करने लगेगी।
इसके आरंभ से, 31 दिसंबर 2012 तक विभाग ने मध्य प्रदेश, छत्तीेसगढ़, हरियाणा, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, असम, नागालैंड, पंजाब, पं. बंगाल और तमिलनाडु राज्यों में रुग्ण मिल्क यूनियनों के लिए 42 पुनरुत्थान परियोजनाओं के लिए मंजूरी दी है। इसके लिए 310.91 करोड़ रुपये की कुल लागत निर्धारित की गई है, जिसमें केंद्र का हिस्सा 155.64 करोड़ रुपये का है। 31 दिसंबर 2012 तक रुग्ण सहकारी मिल्क यूनियनों को केंद्र के हिस्से का 120.64 करोड़ रुपये जारी किये जा चुके हैं।
राष्ट्रीय डेयरी योजना और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) के रूप मे दो नए प्रयास शुरू किए गए हैं। राष्ट्रीय डेयरी योजना - वैश्वीकरण और बढ़ती क्रय शक्ति के कारण दूध और दूध से बने उच्च गुणवत्ता वाले पदार्थाे की मांग में वृद्धि हो रही है। भावी मांग को देखते हुए सरकार 2021-22 तक प्रति वर्ष 18 करोड़ टन दूध उत्पादन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 17,300 करोड़ रुपए के परिव्यय से राष्ट्रीय डेयरी योजना शुरू करने के बारे में विचार कर रही है। अगले 15 वर्षों में दूध उत्पादन 4 प्रतिशत की दर से बढने और कुल दूध उत्पादन में 50 लाख टन की वृध्दि होने का अनुमान है। इस योजना के तहत सरकार प्रमुख दुग्ध उत्पादक क्षेत्रों में दूध का उत्पादन बढाना चाहती है। मौजूदा और नई संस्थागत संरचनाओं के माध्यम से सरकार दूध के उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन ढांचे को सुदृढ और विस्तारित करना चाहती है। योजना में प्राकृतिक और कृत्रिम गर्भाधान के जरिए नस्ल सुधार, प्रोटीन और खनिज युक्त मवेशियों का आहार उत्पादन बढाने के लिए संयंत्रों की स्थापना का प्रावधान किया गया है। योजना में मौजूदा 30 प्रतिशत के स्थान पर अतिरिक्त दूध का 65 प्रतिशत संगठित क्षेत्र में खरीदी करने का प्रस्ताव है। इस परियोजना के लिए विश्व बैंक से सहायता
 प्राप्त करने की योजना है।




इसके अतिरिक्त कृषि और संबद्ध क्षेत्रों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने 11वीं योजना के दौरान 25,000 करोड़ रुपए के भारी निवेश से राष्ट्रीय कृषि विकास योजना नाम से एक नई योजना शुरू की है। उन सभी गतिविधियों को जो एएचडी एंड एफ (पशुधन विकास, डेयरी एवं मत्स्यपालन) क्षेत्रों के विकास को आगे बढाने का कार्य करती हैं, उन्हें राज्य योजना के तहत 100 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है। बशर्ते राज्य सरकार ने कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों के लिए बजट में आवश्यक आबंटन किया गया हो। आशा है कि इससे इस क्षेत्र में ज्यादा लोगों की भागदारी होगी और 11वीं योजना में एएचडी एंड एफ क्षेत्र के लिए कुल मिलाकर 6-7 प्रतिशत वार्षिक का लक्ष्य प्राप्त करने में मदद मिलेगी, जिसमें डेयरी क्षेत्र का योगदान 5 प्रतिशत और मांस क्षेत्र का योगदान 10 प्रतिशत रहने की आशा है। इन सभी गतिविधियों के फलस्वरूप भारत विश्व परिदृश्य में डेयरी व्यवसाय में रोजगार की दृष्टिकोण से एक बड़ा क्षेत्र बनकर उभर रहा है।

निष्कर्ष-
भारतीय डेयरी क्षेत्र ने 9वीं योजना के बाद से शानदार वृद्धि दर्ज की है, जिसके परिणाम स्वरूप प्रतिवर्ष 130 मिलियन टन के करीब वार्षिक उत्पादन करते हुए देश अब दुनिया के दुग्ध उत्पादन करने वाले देशों में पहले स्थान पर पहुंच गया है। यह हमारी बढ़ती हुई जनसंख्या  के लिए दूध की उपलब्धता और दुग्ध  उत्पादों में दीर्घकालीन वृद्धि को दर्शाता है। दुग्ध शाला लाखों ग्रामीण परिवारों के लिए आय का एक प्रमुख द्वितीयक साधन बन गया है और खासतौर पर कमजोर तबके के लोगों और महिला किसानों के लिए रोजगार और आय सृजन के अवसर प्रदान करने में सर्वाधिक महत्वगपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वर्ष 2012 तक प्रति व्यक्ति दुग्ध की उपलब्धता 290 ग्राम प्रतिदिन के स्तर तक पहुंच गयी है, जो 284 ग्राम प्रतिदिन के अंतरराष्ट्रीय औसत से अधिक है। देश में अधिकांश दूध का उत्पादन छोटे, कमजोर तबके के किसानों और भूमिहीन श्रमिकों के द्वारा किया जाता है। मार्च 2012 तक करीब 14.78 मिलियन किसानों को 1,48,965 ग्राम स्तवर की डेयरी सहकारी समितियों के दायरे में लाया जा चुका है। कुल पशुधन के करीब 87.7 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व 4 हेक्टेयर से कम की भूमि वाले गरीब तबके के किसानों, लघु और उपमध्यम संचालकों द्वारा किया जाता है। दुनिया के सर्वाधिक पशुधन की संख्या  भारत में है। यह दुनियाभर में भैंसों की जनसंख्या का करीब 57.3 प्रतिशत और पशु जनसंख्या का 14.7 प्रतिशत है।
देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक विकास में पशुपालन और डेयरी एक महत्वपूर्ण  भूमिका निभाता है। दरअसल आज के दौर में ग्रामीण रोजगार की दृष्टिकोण से दुग्ध व्यवसाय एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में उभर कर सामने आ रहा है । कम से कम ये उद्योग ग्रामीण महिलाओं की जिंदगी में तो लाभकारी सिद्ध ही हो रहा है । देशभर में लगभग 110 लाख पुरुष खेती किसानी पर निर्भर हैं। पुरुष खेतों में मेहनत करते हैं, तो महिलायें घर पर गाय भैंस की देखभाल करती है। परिवार की कुल आमदनी में महिलाएं डेयरी से होने वाली आमदनी के रूप में अपना निदान करती है।   

इन गतिविधियों से ग्रामीण क्षेत्रों खासतौर पर भूमिहीन, छोटे, गरीब तबके के किसानों और महिलाओं के लिए न सिर्फ लाभदायक रोजगार का सृजन होता है बल्कि उन्हें सस्ता और पौष्टिक अन्न मिलता है। पशुधन सूखे और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय किसानों के लिए सर्वश्रेष्ठ बीमा के तौर पर काम करता है। दुधारु पशुओं की उत्पादकता का बढ़ाने के लिए सरकार ने कई उपाय अपनाए हैं, जिसके परिणाम स्वरूप दूध के उत्पादन में महत्वपूर्ण रूप से वृद्धि हो रही है। सहकारी संस्थाओं को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लायक के साथ साथ सरकार को यह भी देखना होगा सहकारी संस्थाओं का असली पक्ष किसान के हाथ में रहे तभी ग्रामीण भारत में सामाजिक-आर्थिक बदलाव में दुग्ध व्यवसाय अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।   

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